जोदि तोर डाक शुने केउ ना आसे
तोबे एकला चलो रे।
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने यह देशभक्ति गीत लोगों को प्रेरित करने और अपनी बात कहने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से लिखा था. एकला चोलो रे गीत 1905 ई में लिखा गया है. इस गीत में कवि ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी बात मजबूती से रखने और कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहने के लिए कहा है. यह मूलत: बांग्ला भाषा में लिखा गया है, लेकिन इसने अंतरराष्ट्रीय जगत तक अपनी पहचान बनायी.
इस गीत का शब्द-शब्द संघर्ष करने की प्रेरणा देता है. रवींद्र नाथ टैगोर का यह गीत रवींद्र संगीत की शैली में गाया जाता है. इस प्रेरक गीत को रवींद्र नाथ टैगोर ने भी अपना स्वर दिया था, लेकिन वह गीत उपलब्ध नहीं है. अन्य कई बड़े गायकों ने इस गीत को गाया है.
सौ साल से अधिक हो जाने के बाद भी यह गीत पूरी तरह प्रासंगिक है. आज गुरुदेव रवींद्र नाथ की जयंती हैं. उन्हें उनकी कालजयी रचना गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था. अपनी इस कविता में वे कहते हैं कि अगर तुम्हारे आवाज लगाने पर कोई नहीं आता है, तो तुम संघर्ष करना छोड़ो मत, अकेले ही कर्तव्यपथ पर चल पड़ो. अगर सभी तुम्हारी उपेक्षा करें तब भी तुम घबराओ मत, अकेले चलो. रास्ते के कांटों से पैर लहूलुहान हो जायें,तब भी घबराना नहीं. अगर पथ पर रौशनी ना हो घुप्प अंधेरा हो तो हृदय की ज्योति जलाओ और अकेले चलो. पढ़ें एकला चलो रे गीत…
जोदि तोर डाक शुने केउ ना आसे
तोबे एकला चलो रे।
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
जोदि केउ कोथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ भागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केउ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरण तले एकला दलो रे!
यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपन बुकेर पांजर ज्वालिये निये एकला ज्वलो