हरिवंशराय बच्चन (27 नवंबर, 1907-18 जनवरी, 2003)
मधुर भावनाओं से सुमधुर खींच कल्पना की हाला/ कवि साकी बन कर आया है लेकर कविता का प्याला/ कभी न कण भर खाली होगा लाख पिएं दो लाख पिएं/ पाठकगण हैं पीने वाले, पुस्तक मेरी मधुशाला’ हिंदी साहित्य के 1935 के बाद के उत्तर छायावादी दौर में ‘हालावादी’ कवि हरिवंशराय बच्चन कवि सम्मेलनों में अपनी मस्ती व मादकता से ओत-प्रोत काव्यकृति ‘मधुशाला’ के ऐसे अनूठे छंद सुनाते, तो श्रोता झूम उठते. शायद इसलिए कि इन छंदों की मादकता गुलामी और निराशा के उस दौर में देशवासियों के विक्षुब्ध व वेदनाग्रस्त मन का आश्रय बन जाती और उन्हें ढाढ़स बंधाती थी. बच्चन ने 1936 में ‘मधुबाला’ और 1937 में ‘मधुकलश’ जैसी कृतियां भी रचीं. फिर भी उनके कवि यश का बड़ा हिस्सा ‘मधुशाला’ के ही खाते में रहा.
‘मधुशाला’ ने जहां उन्हें अपार लोकप्रियता दी, वहीं उनके लिए कई संकट भी पैदा किये. सबसे बड़े संकट से उनका 1940 में सामना हुआ, जब उन्हें इंदौर में काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया गया. महात्मा गांधी उस कवि सम्मेलन के विशेष अतिथि थे. बच्चन की लोकप्रियता से ईर्ष्या रखने वाले कुछ महानुभावों ने गांधी जी से शिकायत कर दी कि आयोजकों ने एक ऐसे कवि को भी बुला रखा है, जिसने मदिरा का गुणगान करने वाली ‘मधुशाला’ लिखी है. फिर इन महानुभावों ने गांधी जी से पूछा कि उसने मंच पर उनकी उपस्थिति में ही मदिरा का गुणगान शुरू कर दिया, तो वे क्या करेंगे. गांधी जी ने बच्चन को बुलाया और ‘मधुशाला’ के कुछ छंद सुनाने को कहा. बच्चन ने सतर्कता से दो छंद सुनाये. पहला- ‘मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला/ ‘किस पथ से जाऊं’ असमंजस में है वह भोला-भाला/ अलग-अलग पथ सब बतलाते, लेकिन मैं बतलाता हूं/ ‘राह पकड़ तू एक चला चल’, पा जायेगा मधुशाला’ और दूसरा- ‘मुसलमान औ’ हिंदू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला/ एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला/ दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद-मंदिर में जाते/ बैर बढ़ाते मस्जिद-मंदिर मेल कराती मधुशाला’ इन्हें सुन कर गांधी जी ने उनको बरी-सा करते हुए कहा, ‘यह तो सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने वाली कविता है. जाइए, बेधड़क इसे सुनाइए,’ पर यह तोहमत उन पर लगती रही कि वे शराब का प्रचार कर युवकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं.
उनके समकालीन ज्यादातर आलोचकों का कहना था कि वे ‘मधुशाला’ के बाद कुछ भी न लिखें, तो भी उन्हें भुलाया नहीं जा सकेगा, पर सौभाग्य से प्रकृति ने उन्हें 95 साल से ज्यादा की उम्र दी और वे लगातार अपनी सृजनयात्रा जारी रख सके. वर्ष 1966 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत होने के बाद भी उन्होंने लेखन से अवकाश नहीं लिया.
साल 1907 में आज के ही दिन प्रतापगढ़ जिले के बाबूपट्टी गांव में एक कायस्थ परिवार में उनका जन्म हुआ था. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत के निवासी इस परिवार के पूर्वज बाद में प्रयाग व प्रतापगढ़ आदि में आ बसे थे. पिता प्रताप नारायण श्रीवास्तव और माता सरस्वती देवी ने बचपन में लाड़ के मारे उन्हें ‘बच्चन’ कहना शुरू किया, तो उन्हें मालूम नहीं था कि आगे यह उनका उपनाम हो जायेगा और वे सन्नाम होंगे, तो ‘हरिवंश राय श्रीवास्तव’ से ‘हरिवंश राय बच्चन’ हो जायेंगे. उन्नीस साल की उम्र में उन दिनों के रिवाज के अनुसार चौदह वर्षीया श्यामा के साथ वे विवाह के बंधन में बांध दिये गये. तिस पर दुर्भाग्य यह कि श्यामा जल्दी ही क्षयरोग की शिकार हो संसार छोड़ गयीं. साल 1941 में रंगमंच और गायन से जुड़ीं पंजाब की तेजी सूरी बच्चन की जीवनसंगिनी बनीं.
तेजी से विवाह के बाद की बच्चन की ‘नीड़ का निर्माण फिर’ शीर्षक रचना उनके निराशा से उबर कर जीवन की ओर लौटने का ‘संदेश’ थी, लेकिन इसके बाद उन्होंने आत्मकथा को छोड़ अपनी किसी भी कृति में अपने किसी पारिवारिक प्रसंग का जिक्र नहीं किया. अलबत्ता, उन्होंने अपनी आत्मकथा में अपनी एक ऐसी अभिलाषा का जिक्र किया है, जिसकी पूर्ति के लिए सारे जीवन सचेष्ट रहे, ‘मैं गाऊं तो कंठ स्वर न दबे औरों के स्वर से/ जीऊं तो जीवन की औरों से हो अलग रवानी’ इस ‘अलग रवानी’ ने उनके खाते में साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, एफ्रो-एशियन सम्मेलन के कमल पुरस्कार आदि कई पुरस्कार और सम्मान डाले. बिड़ला फाउंडेशन ने उनकी चार खंडों में प्रकाशित आत्मकथा (‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’) के लिए उन्हें सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित किया था. वर्ष 1976 उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया.
वे 1941 से 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे और आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र से भी जुड़े रहे थे. फिर अध्ययन के लिए कैम्ब्रिज चले गये और 1955 में वहां से लौटने के बाद विदेश मंत्रालय में हिंदी के विशेषज्ञ नियुक्त हुए. उन्हें फारसी के मशहूर कवि उमर खय्याम की रुबाइयों के हिंदी अनुवाद के लिए भी जाना जाता है. यह भी कहते हैं कि ‘मधुशाला’ पर रुबाइयों का व्यापक प्रभाव है. उन्होंने कुछ फिल्मी गीत भी लिखे हैं, जिनमें ‘रंग बरसे…’, जिसे उनके पुत्र अमिताभ बच्चन ने स्वर दिया है, आज भी लोकप्रिय है.