योगिराज श्री अरविंद
साधक को पहले मन को तैयार करने, शांत एवं स्थिर बनाने की आवश्यकता है. साधना के लिए मन के तैयार होते ही उसमें शांति आती है और बहुत बड़ी समता की स्थापना होती है. साधना के आरंभ में पहले अपने विचार में ज्ञान प्रवाह का अनुभव करना चाहिए. यह अनुभव ईश्वर की प्रेरणा के रूप में चित्त के भीतर करना चाहिए. यह प्रेरणात्मक ज्ञान भीतर के गुरु रूप से साधक को अपने आप ही सबकुछ दिखा-सुना देगा. क्या करना चाहिए, किसमें कमी है, क्या नहीं करना चाहिए, से सारी बातें वह स्वयं ही कहना आरंभ कर देगा.
चिंताएं मनुष्य को कुछ नहीं करने देतीं, अत: साधक का कर्त्तव्य है कि वह खुद को समस्त चिंताओं से मुक्त कर ले. मन और बुद्धि को चिंताओं से खाली कर लेने पर एक स्तब्ध प्रसन्न भाव आता है. मन के स्थिर और शांत होने पर ही सत्य का प्रकाश होता है और भगवान अपने आप प्रकाशमान हो जाते हैं, यानी उनका प्रकाश साधक को दिखने लगता है.
भक्ति-गंगा
बुद्धिं देहि यशो देहि कवित्वं देहि देहि मे ।
मूढत्वं च हरेद्देवि त्राहि मां शरणागतम् ॥
अर्थात् : हे देवि! आप मुझे बुद्धि दें, कीर्ति दें, कवित्वशक्ति दें और मेरी मूढ़ता का नाश करें. आप मुझ शरणागत की रक्षा करें.