आदमी
अबूझ बुझवइल हके।
अजगुतेक भाँड़ार हके।
महकइत फुलेक ओंजरा हके,
दंगरल-लहकल आँगरा हके।
आदमी
आदमी के
आदमी बनवल हइ,
गुफा-खोह से निकाइल
सरग देखवल हइ।
आदमी
आदमी के
अदभुत पाइँख देलइ
गेयानेक अनइत आकास
अनगइन ठोठा-ठाँव देलइ।
अजगुत, बेपतियारी
सुँदर-सुँदर कलाक
अठेल उपहार देलइ
भयारेक गढ़िया नजइर
बिसय बेसुमार देलइ।
आदमी
सिरजवइया –
मोनालिसा के
नास करवइया-
नागासाकी-हिराशिमा के
वूहान के
अटुत महीन महादेइत के
जनम देवइया आदमी
आपन गरदनें
टाँगा चलवइया आदमी!
मुस्कानेक फुलेक मनमोहवा
बगइचा लगवइत आदमी
निस्ठुर बइन
दरद दइ
लोरेक समुदर बनवइत आदमी!
ढाँगा इंसानी सफरेक बादो
अड़गुड़ हइ, बुझा दाय
आदमी की हके
कोन मोहड़ा टा
ओकर असली हके!
गाय गाय हवे हे
साँप साँप हवे हे;
मकिन,
पइत आर सदाय
आदमी
आदमी नायँ हवे हे।
काल
एगो अनदेखा आयाँ
आबगा
निरपेछ,
बेबिबादी सच।
अखँड़
लगस्तर गतिमान!
हिटलर हवे चाहे सिकंदर
चाहे कोनो महा जोधा
ना बाँधे पारल
ना केउ रोके पारल।
कालेक गतिक बिस्तार
चाँकेक आविस्कार
चाँद लोकेक चहँटान
मंगल गरहेक खोजाइर
धरतिक हुइलें महाविस्फोट!
सागरेक तर ले
आकासेक सीमा।
गरह-नछतरेक
अड़गुड़-अनबुझ
भेउ टोवेक ताकतरम।
कालेक टेप के
नाय हवे पारे ठेकान!
‘से’ के ओर ना ‘तइक’ के पुथान।
से अनजान
तइक अनपुरवा…
भूत चइल गेल धूर
बरतमान जाहे फुचकल
भविसत देखाइ के झलक
बइन जाहे भूत।
काल –
एगो भाव
ना समटाइ
ना फइलाव
कालेक सगर
गड़कइत रहे
घरी सगर
मकिन देखाइ नाय
ओकर चाक
सिरिफ हवे फहम
ओकर चिन्हा
ओकर रेघा।
चिसल जाहे ऊ
कएक देखनउट छाप
आर्यभट्ट-आइंस्टिन
एडीसन-हॉकिन्स
टॉल्सटॉय-प्रेमचंद
गाँधी-अंबेदकर……..
सब के सब
काल-चाकेक
दगदगिया चिन्हाइ तो हके!
ओकरे छापल अनमेट
छापाइ तो हके!!
प्रो दिनेश दिनमणि, उप सचिव- खोरठा साहित्य संस्कृति परिषद, पता : बराडीह, जैनामोड़, बोकारो