फ़िल्म-लाइगर (Liger Movie Review)
निर्माता-करण जौहर और चार्मी कौर
निर्देशक-जगन्नाथ पुरी
कलाकार-विजय देवरकोंडा, अनन्या पांडे,माइक टायसन,चंकी पांडे,विष और अन्य
रेटिंग-डेढ़
साउथ के स्टार विजय देवरकोंडा की अर्जुन रेड्डी,डियर कॉमरेड,गीता गोविन्दम जैसी फिल्मों की सैटेलाइट चैनलों पर हिंदी रिलीज ने उन्हें हिंदी भाषी दर्शकों के बीच भी लोकप्रिय चेहरा बना दिया है. यही वजह है कि फ़िल्म लाइगर से बॉलीवुड में उनके डेब्यू को लेकर जबरदस्त माहौल बना हुआ था. फ़िल्म के ट्रेलर में विजय का परिचित स्वैग और गुस्सा भी नज़र आया. फ़िल्म में भी था, लेकिन फ़िल्म से स्टोरी और स्क्रीनप्ले नदारद था. जिसने विजय की बॉलीवुड में शुरुआत की पूरी तरह से ‘ वाट ‘लगा दी है.
सब्र का इम्तिहान लेती है कहानी
कहानी की शुरुआत एक कार के पीछे बेतहाशा भागते लाइगर(विजय देवरकोंडा) से होती है. मालूम पड़ता है कि लाइगर की प्रेमिका तान्या(अनन्या पांडे) को कुछ लोगों ने किडनैप कर लिया है. वहां तक कहानी कैसे पहुँची यह बताने के लिए कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. फ्लैशबैक में जाने से पहले लाइगर यह भी कहता है कि मैं कहानी बताने में बहुत बुरा हूं मतलब साफ है कि मेकर्स को भी पता है कि कहानी बुरी है खैर फ़िल्म पर चले आते हैं. लाइगर अपनी मां (रम्या)के साथ बनारस से मुम्बई शिफ्ट हुआ है. उनका एक ही सपना है कि लाइगर मिक्स मार्शल आर्ट चैंपियन बनें क्योंकि उसके पिता मिक्स मार्शल आर्ट के एक फाइटर थे ,लेकिन लाइगर के पास सीखने के लिए पैसे नहीं है. दूसरे ही सीन में एक बड़े से मिक्स मार्शल आर्ट अकादमी में मां बेटे की एंट्री होती है. एक भारी भरकम डायलॉग के बाद कोच(रोनित रॉय) बिना किसी फीस के लाइगर को सिखाने को राजी भी हो जाते हैं. उनकी बस एक ही दकियानूसी शर्त होती है फोकस. मतलब लड़कियों से दूर रहना है.
मां भी लाइगर को यही सीख देती रहती है, लेकिन फ़िल्म है ,हीरो है तो हीरोइन भी होगी और जब दोनों है तो प्यार तो होना ही है. यहां भी होता है,लेकिन जब तान्या की मालूम पड़ता है कि लाइगर हकला है तो वह उसे छोड़ देती है. प्यार में चोट खाया नाकाम प्रेमी से किस तरह से लाइगर मिक्स मार्शल आर्ट चैंपियन बनता है.यही कहानी है. कहानी में एक ट्विस्ट भी है लेकिन वह किसी भी तरह से चौंकाता नहीं है. फ़िल्म का फर्स्ट हाफ टाइमपास है. सेकेंड हाफ में फ़िल्म पूरी तरह से औंधे मुंह गिर जाती है,परदे पर उसके बाद जो कुछ भी चलता है. उसने फ़िल्म को पूरी तरह से उबाऊ बना दिया है और फ़िल्म के क्लाइमेक्स ने तो सब्र का इम्तिहान ही ले लिया है. फ़िल्म में ड्रामा के साथ-साथ इमोशन की भी कमी है. जो किसी भी मसाला फ़िल्म की ज़रूरत होती है.
कमज़ोर कहानी ने परफॉर्मेंसेज को भी बनाया प्रभावहीन
अभिनय की बात करें तो विजय देवरकोंडा की मेहनत दिखती है. उन्होंने अपने किरदार के लिए जबरदस्त बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन किया है. फ़िल्म में उनका एक्शन भी लुभाता है,लेकिन कमज़ोर कहानी की वजह से यह सब बेमानी सा लगता है. राम्या एक बार फिर अपने चित परिचित अंदाज़ में नज़र आईं हैं. रोहित रॉय का काम भी अच्छा है. फ़िल्म के सेकेंड हाफ में उनको नजरअंदाज कर दिया गया है तो अनन्या पांडे को फ़िल्म में करने को कुछ खास नहीं था. कमज़ोर कहानी वाली इस फ़िल्म में उनका किरदार सबसे ज़्यादा कमज़ोर रह गया है. बॉक्सिंग लीजेंड माइक टायसन के फैंस को भी यह फ़िल्म निराश ही करेगी.
यहां भी हो गयी चूक
गीत-संगीत की बात करें तो गानों की अधिकता है, जो इस बोझिल फ़िल्म को और बोझिल बना गए हैं. बैकग्राउंड म्यूजिक औसत है तो हिंदी में डब संवाद असर नहीं डालते हैं.
देखें या ना देखें
फिल्मों की सबसे बड़ी ज़रूरत अगर अच्छी कहानी आपको लगती है,तो यह फ़िल्म आपके लिए नहीं है.