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राष्ट्रीय रोजगार नीति बनाने की जरूरत

आज जरूरत इस बात की है कि एक राष्ट्रीय रोजगार नीति बने, जिसमें उभरती प्रौद्योगिकियों, नये बिजनेस मॉडलों और नये प्रकार से श्रमिकों के शोषण के सभी रास्ते बंद हों और हर कामगार चाहे, वह स्थायी हो या अस्थायी या गिग वर्कर, सभी एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें.

हाल में ब्लिंकिट नामक एक ई-कॉमर्स कंपनी के डिलीवरी कामगारों ने एक दिन की हड़ताल की थी, जिसे मीडिया ने भी खासा महत्व दिया था. मामला यह था कि इस कंपनी, जो उपभोक्ताओं को उनकी किराना आवश्यकताओं की आपूर्ति 10 मिनट से आधे घंटे के बीच करने का दावा करती है, ने अपने डिलीवरी एजेंटों का मेहनताना घटाकर आधा कर दिया था. इस बदलाव से पहले कंपनी हर डिलीवरी पर एजेंट को 25 रुपये देती थी. लगभग एक साल पहले तक डिलीवरी एजेंटों को 50 रुपये प्रति डिलीवरी दिया जाता था. डिलीवरी श्रमिकों का कहना है कि इस दौरान ईंधन की लागत में बेतहाशा वृद्धि हुई है, लेकिन उनका मेहनताना एक चौथाई रह गया है.

वास्तविकता यह है कि आज बड़े शहरों में युवा किसी अच्छे रोजगार के अभाव में डिलीवरी एजेंट के रूप में काम करने के लिए बाध्य हो रहे हैं. शुरुआती दौर में ये श्रमिक भी अच्छा खासा कमा लेते थे, लेकिन मेहनताना कम होने के कारण अब उनकी हालत बहुत दयनीय हो गयी है. वैकल्पिक रोजगार के अभाव में युवाओं के लिए डिलीवरी एजेंट के नाते काम करना उनकी मजबूरी हो गयी है. उधर एप आधारित टैक्सी सेवा प्रदान करने वाली ओला और उबर सरीखी कंपनियों ने भी ड्राइवरों से अत्यंत शोषणकारी तरीके से कमीशन वसूलना शुरू कर दिया है. इसके चलते इनके ड्राइवर भी कई बार हड़ताल जैसे तरीके अपना चुके हैं.

ओला, उबर के ड्राइवर हों, ब्लिंकिट, जोमैटो, स्वीगी आदि के ऐजेंट हों, या एप आधारित किसी अन्य सेवा प्रदाता पर पंजीकृत अन्य प्रकार के कामगार हों, जिनका रोजगार इन एप कंपनियों के रहमोकरम पर चलता है या जिनकी रोजी-रोटी इनसे प्राप्त संदेशों के आधार पर डिलीवरी या सेवा के ऑर्डर पर निर्भर करती है, आज इन कंपनियों के शोषण से पीड़ित हैं. ऐसे सभी कामगार, जो इस तरह अस्थाई रूप से काम कर रहे हैं, उन्हें आजकल ‘गिग वर्कर’ कहा जाता है. दो-तीन दशक पहले तक गिग शब्द का कम उपयोग होता था.

‘गिग’ शब्द का अर्थ और ‘गिग’ अर्थव्यवस्था और ‘गिग वर्कर’ आदि शब्दों को समझना और समाज पर इसके प्रभावों को जानना जरूरी हो गया है. दो-तीन दशक पहले कामगारों के दो प्रकार होते थे. एक, वेतनभोगी कर्मचारी और दूसरे, आकस्मिक श्रमिक. वेतनभोगी श्रमिक सामान्यतः स्थायी रूप से एक निश्चित वेतन और सुविधाओं के साथ नियुक्त होते हैं. इनको हटाने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया है. दूसरी तरफ आकस्मिक श्रमिक, यानी ‘कैजुअल लेबर’ से अभिप्राय दिहाड़ी मजदूरों से होता है. इनको दिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है और उन्हें प्रतिदिन रोजगार की तलाश में जाना होता है.

संगठित क्षेत्र में सामान्यतः श्रमिकों की नियुक्ति स्थायी आधार पर होती है और उनके रोजगार की काफी हद तक सुरक्षा भी होती है. असंगठित क्षेत्र, जैसे कृषि, कंस्ट्रक्शन और कई बार मैन्युफैक्चरिंग में दिहाड़ी मजदूरों का चलन देखने को मिलता है. सामान्यतः शिक्षित एवं प्रशिक्षित कामगार वेतनभोगी होते हैं और दिहाड़ी मजदूरों में अधिकांश अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित मजदूर होते हैं. आज इन दोनों वर्गों से इतर एक नये प्रकार के श्रमिक वर्ग ‘गिग वर्कर’ का निर्माण हुआ है.

नयी तकनीक के आधार पर ऑनलाइन, क्लाउड वर्किंग, फ्रीलांस वर्कर, ई-कॉमर्स, सप्लाई चेन आदि के रूप में यह नयी श्रेणी उभरी है. तेज रफ्तार की इस दुनिया में हर कोई अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है. कथित रूप से ये श्रमिक काम तो कर रहे हैं और काम देने वाले एप भी सामने दिखते हैं, लेकिन सरकारी परिभाषाओं में इन्हें श्रमिक यानी ‘वर्कर’ ही नहीं माना जाता, बल्कि उन्हें ‘फ्रीलांसर’ कहा जाता है. ये वर्कर श्रमिकों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटे, ओवर टाइम और छुट्टी जैसे न्यूनतम लाभों से भी वंचित हैं.

कुछ लोग यह तर्क देने की कोशिश करते हैं कि इस ‘गिग’ अर्थव्यवस्था ने रोजगार के नये अवसर निर्माण किये हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के द्वारा भी एप और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म के माध्यम से डिलीवरी श्रमिकों एवं ड्राइवरों आदि के रूप में श्रमिकों की श्रेणी की व्याख्या की गयी है. पिछले कुछ समय से बेहतर कार्य-दशाओं और मेहनताने के लिए इन ‘गिग’ वर्करों द्वारा आंदोलन भी हुए हैं, लेकिन इनकी हालत में कोई सुधार होता नहीं दिखता. साल 2017 के ‘ई एंड वाई’ के अध्ययन के अनुसार दुनिया के 24 प्रतिशत ‘गिग’ वर्कर भारत में हैं.

भारतीय संसद द्वारा हाल में सामाजिक सुरक्षा के नये कोड के रूप में पारित श्रम कानून में पहली बार इन श्रमिकों को श्रम कानूनों के दायरे में लाने का प्रयास हुआ है. दुनियाभर में ऐसे वर्करों की सामाजिक सुरक्षा में सबसे बड़ी बाधा यह आ रही है कि इन वर्करों को चिह्नित कैसे किया जाए. अमेरिका और यूरोप में इन कामगारों के लिए पूर्व निर्धारित और पारदर्शी कार्यदशाओं के संबंध में कुछ काम हुआ है. लेकिन विषय केवल इन एप से काम प्राप्त करने वाले श्रमिकों का ही नहीं है. आज के युग में ठेके के मजदूर, आउटसोर्स लेबर, अस्थाई लेबर, निश्चित अवधि के कर्मचारी आदि सभी कमोबेश शोषण एवं प्रतिकूल कार्यदशाओं के संकट से जूझ रहे हैं. आज जरूरत इस बात की है कि एक राष्ट्रीय रोजगार नीति बने, जिसमें उभरती प्रौद्योगिकियों, नये बिजनेस मॉडलों और नये प्रकार से श्रमिकों के शोषण के सभी रास्ते बंद हों और हर कामगार चाहे, वह स्थायी हो या अस्थायी या गिग वर्कर, सभी एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें.

श्रमिकों को विस्थापित करने वाली नयी प्रौद्योगिकियों के कारण पुराने रोजगार नष्ट हो रहे है और अत्यंत सीमित नये रोजगारों का सृजन हो रहा है. काम के अभाव में जीने के लिए श्रमिक सभी प्रकार के शोषणों के बावजूद काम करने के लिए मजबूर हैं. लेकिन एक सभ्य समाज में श्रमिकों की इस दुर्गति को किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे सभी गिग, अस्थाई, ठेके वाले वर्करों को ठीक से परिभाषित और चिह्नित करने का काम करते हुए उनके लिए न्यूनतम मजदूरी, अधिकतम काम के घंटे और विभिन्न प्रकार की सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करना होगा.

ऐसा न होने पर यह व्यवस्था जंगल राज से ज्यादा कुछ नहीं कहलायेगी, जिसका नियम है केवल योग्यतम को ही जीने का अधिकार है, यानी ‘सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट.’ जाहिर है कि इस युग में नीति निर्माताओं से अपेक्षा है कि वे सभ्य समाज के निर्माण की ओर बढ़ें, जंगल राज की तरफ नहीं. भारत सरकार से अपेक्षा है कि वे इन ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा हेतु योजनाएं बनाये.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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