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विपक्ष की एकता का मंत्र और रणनीति

विपक्षी पार्टियों ने अपना मंत्र तो तय कर लिया है कि वे हर सीट पर एक बनाम एक मुकाबला करेंगे. यानी एनडीए और भाजपा के हर उम्मीदवार के सामने विपक्ष का एक ही उम्मीदवार खड़ा होगा. उन्हें लगता है कि 2019 के चुनाव में गैर-भाजपा दलों को जो 62 प्रतिशत मत मिले थे.

विपक्ष के 18 दलों का इकट्ठा हो जाना और तस्वीरें खिंचवाना कोई नयी बात नहीं है. यह पहले भी कई बार हो चुका है. मगर, इस बार एक नयी चीज यह देखने को मिल रही है कि पटना में ऐसी पार्टियां भी जुट रही हैं जिन्हें कांग्रेस को लेकर आपत्तियां थीं. जैसे, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव और ममता बनर्जी जुट रहे हैं. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी भी आ रहे हैं. इसके पहले छोटी पार्टियां आ जाया करती थीं, मगर उनका कोई असर नहीं होता था. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये नेता बीजेपी को घेरने के लिए क्या तरीका अपनाते हैं. मीटिंग और तसवीरों के आने से कार्यकर्ताओं में उत्साह जग सकता है, मौजूदा सरकार से नाखुश लोगों को भी शायद एक विकल्प नजर आ सकता है, लेकिन रणनीति क्या होगी इसे तय करना होगा.

विपक्षी पार्टियों ने अपना मंत्र तो तय कर लिया है कि वे हर सीट पर एक बनाम एक मुकाबला करेंगे. यानी एनडीए और भाजपा के हर उम्मीदवार के सामने विपक्ष का एक ही उम्मीदवार खड़ा होगा. उन्हें लगता है कि 2019 के चुनाव में गैर-भाजपा दलों को जो 62 प्रतिशत मत मिले थे, यदि वे अच्छी संख्या में एकजुट हो गये, तो भाजपा को हराने का मौका बन सकता है. उनका असल मंत्र यही है, बाकी मुद्दे उतने अहम नहीं हैं. विपक्षी दल अगर इस रणनीति पर चुनाव लड़ना चाहते हैं तो उसमें सभी 18 पार्टियों की जरूरत नहीं है. जैसे, पश्चिम बंगाल में समीकरण क्या होगा यह नीतिश कुमार तय नहीं करेंगे, वहां इसका फैसला ममता बनर्जी और कांग्रेस करेंगे. ऐसे ही, दिल्ली में ममता बनर्जी नहीं, केजरीवाल और कांग्रेस को तय करना होगा. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव तय करेंगे कि कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ना है या नहीं, या यदि ऐसा नहीं होता है, तो वे अपने सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल के अलावा और किन छोटे दलों के साथ गठबंधन करना चाहेंगे.

बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेस के अन्य दलों के साथ गठबंधन पहले से ही मौजूद हैं. इसके अलावा, लगभग 200 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर है. मगर, इन सीटों पर भी तालमेल जरूरी है. जैसे, शरद पवार की एनसीपी गुजरात में अपने उम्मीदवार खड़ी कर देती है, जिससे वोट कट जाते हैं. इसी तरह, ममता बनर्जी ने गोवा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतार दिये थे. इनकी वजह से भी मुकाबले पर असर पड़ सकता है. लेकिन, ऐसी कोई स्थिति नहीं बने इसका फैसला कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के नेताओं को करना होगा. यह फैसला 18 दलों का समूह नहीं करेगा. यानी, विपक्ष को अभी तय करना है कि एक बनाम एक मुकाबले की व्यवस्था कैसी होगी, किसे कितनी सीटें दी जायेंगी और यदि कोई दिक्कत आती है तो उसे कौन हल करेगा.

जैसे, शरद पवार का राजनीतिक कद ऐसा है कि वे किसी दल के नेता को फोन कर मसलों को सुलझा सकते हैं और सीटों के मामले पर सुलह करवा सकते हैं. मुझे ऐसा लगता है कि विपक्ष का एकजुट होने का यह प्रयास बहुत जल्दबाजी है. अभी इन पार्टियों को अपने-अपने क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर खुद को मजबूत करना चाहिए और उसके बाद ही एकजुटता और एक बनाम एक टक्कर के बारे में चर्चा करनी चाहिए. मुझे अभी उनकी कोशिश का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता तो दिखाई दे रहा है, मगर इससे कुछ ठोस प्रगति होती नहीं दिखती.

जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, तो राहुल गांधी ने नीतीश कुमार से यह कहा है कि वह 2024 के चुनाव में नेतृत्व की भूमिका में नहीं होंगे, मगर वह एकजुट विपक्ष के साथ पूरी तरह से सहयोग करेंगे. मगर यह बोलना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. कांग्रेस की स्थिति अभी ऐसी है कि उसे झुककर भी रहना है और सक्रियता भी दिखानी है, क्योंकि ऐसा दिख रहा है कि लोगों में विकल्प के रूप में कांग्रेस को लेकर ज्यादा उम्मीद है. यदि अल्पसंख्यक वोट का उदाहरण लिया जाए, तो कर्नाटक में हमने देखा कि उन्होंने जेडीएस से दूरी बना ली क्योंकि उन्हें शायद यह लगा कि कांग्रेस ही बीजेपी को मात दे सकती है. ऐसे में, यदि अखिलेश यादव को अल्पसंख्यक वोट जुटाना है, तो उन्हें कांग्रेस से तालमेल करना होगा क्योंकि इसके बिना मुस्लिम वोट बंट सकता है. ऐसे ही पश्चिम बंगाल में भी उपचुुनाव में देखा गया कि मुस्लिम वोट कांग्रेस के पक्ष में गये, जिससे ममता चिंतित हो गयी हैं. ऐसे में यदि अल्पसंख्यक मतों को एकजुट रखना है तो कांग्रेस को अहंकार से बचना होगा और अपनी वास्तविक स्थिति के हिसाब से दूसरे दलों के साथ सीटों का बंटवारा करना होगा.

मुझे लगता है कि कांग्रेस की रणनीति बीजेपी की रणनीति से बिलकुल अलग है. बीजेपी के लिए नरेंद्र मोदी तुरुप का इक्का हैं, जिनकी लोकप्रियता आज भी बरकरार है. बीजेपी के पास एक दृढ़ नेता है, राष्ट्रीयता का मुद्दा है, हिंदुत्व का मुद्दा है, समाज कल्याण योजनाओं का मुद्दा है. लेकिन अभी वो चुनाव में तीन बड़ी चीजों को लेकर जनता के सामने उतरेंगे. पहला, नयी संसद, जो औपनिवेशिक दौर के बाद की भारत की संसद है. दूसरा, भारत की विश्वगुरु की छवि, जिसमें वो प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा और सितंबर में होने वाली जी-20 शिखर सम्मेलन को भी पेश करेंगे, जिसके लिए दुनिया के तमाम शक्तिशाली नेता भारत पहुंचेंगे. और तीसरा होगा राम मंदिर, जिसका उद्घाटन जनवरी में होगा. बीजेपी इन तीन बड़ी चीजों को प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धि बताते हुए चुनाव में उतरेगी. इसके मुकाबले विपक्ष को बिलकुल नयी तरह की योजना बनानी होगी क्योंकि उसके पास कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं है, जो सबको स्वीकार्य हो. यह एक वास्तविकता है और उसकी कमजोर कड़ी भी. तो वे इससे जूझने के बजाय अपनी अलग रणनीति पर ध्यान केंद्रित करेंगे जो हर सीट पर एक बनाम एक टक्कर देने की है.

विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी उठा रहा है मगर उन्हें लोकप्रिय नारों में बदलना एक चुनौती है. बीजेपी इन मुद्दों की चर्चा ही नहीं करेगी क्योंकि उनकी ही सरकार है. वह भारत के गौरव को मुद्दा बनाकर चुनाव में उतरेगी कि दुनिया भारत को गर्व के साथ देख रही है. ऐसे में विपक्ष को यह बताना पड़ेगा कि आर्थिक दुश्वारियों से बाहर निकलने के लिए उसके पास क्या सोच है. उसे स्पष्ट बताना होगा कि लोगों को आर्थिक राहत देने के लिए वे कौन से निश्चित कदम उठायेंगे और इस पर सभी पार्टियो को राजी होना होगा. विपक्ष को चुुनाव अपनी ताकत की चर्चा कर लड़ना होगा, ना कि बीजेपी की ताकत पर हमला कर.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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