अच्छे, सच्चे और देश को समर्पित कवियों-शायरों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि कब किस देशकाल और परिस्थिति में उनकी कौन-सी काव्य पंक्ति अचानक प्रासंगिक होकर उन्हें विस्मृति के गर्त से बाहर निकाल लायेगी. राष्ट्रीय चेतना और कश्मीरियत की खुशबू के विस्मृत शायर पंडित बृज नारायण चकबस्त के साथ भी गत दिनों कुछ ऐसा ही हुआ. गत वर्ष 18 सितंबर को पुरानी संसद में विशेष सत्र के अंतिम दिन राज्यसभा सांसद मनोज झा ने अपने भाषण में उनकी कुछ पंक्तियां पढ़ कर उन्हें चर्चा में ला दिया. प्रसंग था संविधान सभा की 11 दिसंबर, 1946 की कार्यवाही का. झा के मुताबिक ‘बुलबुल-ए-हिंद/द नाइटिंगेल ऑफ इंडिया’ कहलाने वाली सरोजिनी नायडू ने उस दिन अपना भाषण ‘एक कश्मीरी कवि’ की पंक्तियों से शुरू किया था- ‘बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक, रंगीं तबीयतों को रंगे-सुखन मुबारक’. इस ‘कश्मीरी कवि’ के पुरखे भले ही कश्मीर के थे, पर वह जन्मा उत्तर प्रदेश में हुआ था- 1882 में 19 जनवरी को फैजाबाद में, जिसका नाम अब अयोध्या है. मां-बाप ने उनका नाम बृज नारायण रखा था, लेकिन उन्होंने शायरी ‘चकबस्त’ के नाम से की. सरोजिनी नायडू ने उनकी जो दो पंक्तियां पढ़ी थीं, वे ‘खाक-ए-हिंद’ नाम की उनकी लंबी रचना से थीं. पंक्तियां पढ़ते वक्त उनकी याद उन्हें थोड़ी दगा दे गयी थी. अपने मूल रूप में वे पंक्तियां इस क्रम में थीं- ‘शैदां-ए-बोस्तां को सर्व-ओ-समन मुबारक/ रंगीं तबीयतों को रंग-ए-सुखन मुबारक/ बुलबुल को गुल मुबारक गुल को चमन मुबारक/ हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक/ गुंचे हमारे दिल के इस बाग में खिलेंगे/ इस खाक से उठे हैं इस खाक में मिलेंगे’.
उर्दू की आधुनिक कविता की नींव की ईंट रहे चकबस्त कोरी भावुकता के शायर नहीं थे. उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष में भी हिस्सेदारी की थी और समाज सुधार के संघर्षों में भी. अपनी एक रचना में उन्होंने लिखा था- ‘उन्हें ये फिक्र है हरदम नयी तर्जे वफा क्या है/ हमें ये शौक कि देखें सितम की इंतिहा क्या है/ नया बिस्मिल हूं मैं वाकिफ नहीं रस्मे शहादत से/ बता दे तू ही ऐ जालिम, तड़पने की अदा क्या है’. जानकारों के अनुसार अगर उम्र दगा कर उनकी संभावनाओं का असमय अंत नहीं कर देती, तो वे ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ लिखने वाले अपने दोस्त अल्लामा इकबाल से बड़े शायर होते. उन्हें उर्दू शायरी का भविष्य माना जाता था और उनकी गजब की सांस्कृतिक निष्ठा व उर्दू-फारसी पर समान अधिकार की उनके विरोधी भी तारीफ करते थे. इकबाल और चकबस्त की दोस्ती के पीछे कोई वैचारिक एकता नहीं, बल्कि दोनों का संबंध कश्मीर से होना था. चकबस्त के कश्मीरी मूल के सारस्वत ब्राह्मण पुरखे 15वीं शताब्दी में उत्तर भारत आ बसे थे. उनके पिता पंडित उदित नारायण, जो स्वयं भी कवि थे, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में डिप्टी कलेक्टर हुआ करते थे.
चकबस्त पांच वर्ष के भी नहीं थे कि उनके सिर से पिता का साया उठ गया. फिर वे अपनी मां के साथ फैजाबाद से लखनऊ चले गये और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध कैनिंग कालेज से कानून की पढ़ाई की. वे जल्दी ही लखनऊ के सफल वकीलों में गिने जाने लगे, लेकिन बाद में वे स्वतंत्रता संघर्ष और सामाजिक सुधार के आंदोलनों में भागीदारी करने लगे. शायरी तो खैर उनका पहला प्यार ही थी. उनकी ‘रामायण का एक सीन’ नज्म इस कदर लोकप्रिय हुई कि लोग उसे ‘चकबस्त की रामायण’ ही कहने लगे. यह नज्म रामायण के उस प्रसंग पर आधारित है, जिसमें भगवान राम वनवास पर जाने से पहले माता कौशल्या से आज्ञा लेने जाते हैं. उन दोनों की बातें पढ़ने व सुनने वालों की आंखें छलछला आती हैं. जिंदगी और मौत को परिभाषित करने वाला चकबस्त का यह दार्शनिक शेर भी बहुत लोकप्रिय है- ‘जिंदगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब/ मौत क्या है इन्हीं अजजां का परीशां होना’, लेकिन उनकी काव्य प्रतिभा की जड़ें दार्शनिकता से ज्यादा उनकी राष्ट्रीयता की भावना में हैं. वे इस बात से बहुत गौरवान्वित अनुभव करते थे कि ‘कभी था नाज जमाने को अपने हिंद पै भी’ और उनके निकट जहालत के गुरूर के हाथों मुल्क की बरबादी ही अफसोस का सबसे बड़ी वजह हुआ करती थी- ‘गुरूरो जहल ने हिंदोस्तां को लूट लिया/ बजुज निफाक के अब खाक भी वतन में नहीं’. खाके हिंद, गुलजार ए नसीम, नाल ए दर्द, नाल ए यास और कमला (नाटक) उनकी प्रमुख रचनाएं हैं. उन्होंने मुख्य रूप से नज्में रची हैं, पर उनकी लेखनी से पचास गजलें भी निकलीं. उम्र ने उनके साथ बड़ी नाइंसाफी की. वे 12 फरवरी, 1926 को रायबरेली रेलवे स्टेशन के निकट गिर पड़े, तो फिर कभी नहीं उठे. कुछ ही घंटों बाद उन्होंने अंतिम सांस ली. तब वे सिर्फ 44 वर्ष के थे.