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Pitru Paksha 2023: पितृ पक्ष में ब्रज की हवाओं में घुल जाती है ‘सांझी’ कला, जानें क्या है मान्यता

सखाओं के साथ कृष्ण-बलराम और गोओं के चरणों का स्पर्श प्राप्त कर ब्रज रज भी फूली नहीं समातीं और आकाश में उड़ने लगती हैं. इसलिए, इस संध्या समय को ‘‘गोधूलि बेला’’ का नाम भी दिया गया है.

आशा शर्मा

पितृ पक्ष आश्विन माह में कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक होता है. इन 15 दिनों में लोग अपने पितरों यानी पूर्वजों इस्ट देवों का तर्पण करते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध कर दान करते हैं. इस दौरान मथुरा, वृंदावन के प्रमुख मंदिरों में सांझी कला को आकर्षक रूप से प्रस्तुत करने की परंपरा निभायी जाती है. इस अवसर पर मंदिरों में फूल, रंग, धागे, गोबर तथा पानी से कलात्मक सांझियां तैयार की जाती हैं.

रंगों की सांझी तैयार करने के दौरान सूखे रंगों को, छोटे सूती कपड़े की पोटलियों द्वारा उंगलियों के संचालन से रंग छानते हुए कलात्मक बेल- बूटे तैयार करते हैं. वृंदावन के राधाबल्लभ मंदिर, भट्टजी की हवेली, राधारमण, गोपीनाथजी मंदिर, शाहजहांपुर वाले मंदिर, प्रियाबल्लभ कुंज व यशोदानंदन मंदिर आदि मंदिरों में सांझी मनोरथ की पुरानी परंपरा है, जिसे आज की युवा पीढ़ी भी निभाती चली आ रही है. सांझी शब्द ‘सांझ’ से बना है. सांझ माने शाम का समय अथवा संध्या जो ब्रज में प्रचलित है.

संध्या माने संधिकाल-शाम और रात के बीच का समय. श्यामसुंदर अपने ग्वालबालों के साथ नित्यप्रति प्रात: काल गो चराने जाते हैं और संध्या के समय लौटते हैं. इसलिए, संध्या का यह समय दिव्य है. सखाओं के साथ कृष्ण-बलराम और गोओं के चरणों का स्पर्श प्राप्त कर ब्रज रज भी फूली नहीं समातीं और आकाश में उड़ने लगती हैं. इसलिए, इस संध्या समय को ‘‘गोधूलि बेला’’ का नाम भी दिया गया है. इसी समय इस कला का चित्रण किये जाने से इसका नाम पड़ा ‘सांझी’. सांझी एक अद्भुत लोक कला है. अनेक रंगों के माध्यम से विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों में सुसज्जित श्रीकृष्ण लीला के मनमोहक दृश्य ब्रज की एक अनूठी कला जिसके दर्शन कर श्रीकृष्ण लीला की स्मृति हो जाती है.

16वीं सदी में भक्ति आंदोलन के काल में इस कला की व्यापक प्रगति हुई थी. वैष्णव मंदिर आज भी सांझी कला को जीवित रखे हुए हैं. ब्रज में इस कला को श्रीकृष्णलीला से संबंध रखने के कारण विशेष दिव्यता को प्राप्त है. मान्यता है कि प्रथम सांझी श्री राधारानी ने गोपियों के संग बनायी थी. चूंकि, यह राधा द्वारा निर्मित कला की प्रतिकृति है, इसलिए इस सांझी को देवस्वरूप मानकर ब्रज में इसकी पूजा की जाती है. ‘मनवांछित फल पाइये जो कीजै इहि सेव। सुनौ कुंवरि वृषभानु की यह सांझी सांचौ देव।।’

मंदिरों की गायन शैली में सांझी की परंपरा केवल कलात्मक सौंदर्य ही नहीं है, इस परंपरा से जुड़ीं पदावलियों का गायन इसके महत्व को और अधिक बढ़ाता है. राधाबल्लभ संप्रदाय में उपासना परंपरा के अनुसार सांझी के दौरान लीलाओं का अंकन होता है, वहीं समाज गायन के अंतर्गत सांयकाल विभिन्न गायकों द्वारा रचित पदावलियां गायी जाती हैं. वृंदावन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के प्रकाशन अधिकारी एवं साहित्यकार गोपाल शरण शर्मा बताते हैं कि सांझी लोक अनुष्ठान के रूप में प्रचलित ब्रज का एक अद्भुत शिल्प है.

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इसे विधि-विधान पूर्वक मनाया जाता है. वस्तुत: सांझी कला में चित्रांकन, गायन और पूजा-विधान का समन्वय देखने को मिलता है. भक्ति साहित्य और वाणियों में सांझी के पद व लोक साहित्य में सांझी के गीत प्राप्त होते हैं. देवालयों में सांझी के पदों का गायन किया जाता है. गांवों में बालिकाएं ‘संझा माई’ के गीत गाकर उनकी पूजा करती हैं. चित्रकला की दृष्टि से सांझी में कलाकारों की कल्पनाशीलता और रंगों का संयोजन, प्रकृति चित्रण आदि का अनूठा संयोजन देखने को मिलता है. सांझी के व्रत की कथा इसके पूजा विधान को दर्शाती है. इधर, ब्रह्मकुंड का सांझी मेला पुन: वैभव पा रहा है.

(असिस्टेंट प्रोफेसर आइएमएस, नोएडा)

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