बीते माह दुबई में आयोजित जलवायु सम्मेलन- कॉप 28- को नतीजों तक पहुंचने में तय सीमा से ज्यादा समय लगा, लेकिन इस बाबत खुशी जतायी जा रही है कि इस सम्मेलन के बाद दुनिया में मानव जनित ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए बेहतर संभवनाएं होंगी. तेल लॉबी की तीव्र पैरवी के बावजूद, 2050 तक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करने के लिए सभी देश जीवाश्म ईंधन- कोयला और तेल एवं गैस- से दूर जाने पर सहमत हुए हैं. संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत हुए पूर्ववर्ती जलवायु सम्मेलनों में कुछ बातें हुई, कहीं-कहीं पर मौसम परिवर्तन और वैश्विक उष्णता को थामने के लिए कुछ प्रयास भी हुए, लेकिन विकसित देशों की इस जिद, कि वे अपनी जीवन पद्धति बदलने के लिए तैयार नहीं हैं, ने इन प्रयासों के प्रभाव को कम किया. यह सच है कि औद्योगीकरण के समय से लेकर अब तक 23 समृद्ध देश कुल ऐतिहासिक उत्सर्जन के 50 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं और बाकी के लिए 150 से अधिक देश जिम्मेदार हैं. लगभग एक सदी में तेल और गैस का उपयोग 82.34 गुना और कोयले का उपयोग 4.56 गुना बढ़ा है. इसमें भी विकसित देशों का योगदान विकासशील देशों की तुलना में ज्यादा है. आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर वाहनों के उपयोग में बेतहाशा वृद्धि हुई है. आर्थिक संवृद्धि के नाम पर औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ा है. आज लोग ज्यादा से ज्यादा चीजों का उपभोग करने लगे हैं. वाहनों, उद्योगों, कृषि आदि के परिचालन में पेट्रोलियम पदार्थों सरीखे जीवाश्म ईंधनों का उपयोग काफी बढ़ा है.
ऐसे में विश्व ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन जैसी समस्याओं से जूझ रहा है. समुद्र स्तर बढ़ने के कारण तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग विस्थापित हो रहे हैं, कहीं अल्प वृष्टि, कहीं अति वृष्टि और तूफानों के कारण दुनिया विभिन्न प्रकार के संकटों का सामना कर रही है. कृषि उत्पादन पर भी संकट आ रहे हैं. कई स्थानों पर तापमान इतना अधिक बढ़ता जा रहा है कि लोगों का जीना मुश्किल हो रहा है. मौसम परिवर्तन पर होने वाले तमाम संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों में प्रारंभ से ही यह लक्ष्य रहा है कि दुनिया का तापमान 2050 तक औद्योगीकरण से पूर्व की स्थिति की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने पाये. क्योटो सम्मेलन, जहां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की कमी के लक्ष्य निर्धारित किये गये थे, के बाद कॉप सम्मेलनों में बातें तो बहुत हुईं, लेकिन क्योटो सम्मेलन के बाद और कॉप-27 से पहले कोई विशेष प्रगति नहीं दिखाई दी. विकसित देशों ने यह वचन जरूर दिया था कि वे मौसम परिवर्तन से निपटने के लिए 100 अरब डॉलर की सहायता हर वर्ष प्रदान करेंगे. हालांकि यह मदद समस्या की गंभीरता के मद्देनजर अपर्याप्त थी, पर उतनी राशि भी विकसित देशों द्वारा नहीं दी गयी. इससे स्पष्ट है कि विकसित देश, जो वर्तमान पर्यावरण संकट के लिए दोषी हैं, अभी तक इस बाबत गंभीर नहीं हुए थे. कॉप 28 में भी विकसित दुनिया द्वारा जीवाश्म ईंधन से संक्रमण की लागत वहन करने के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया.
हालांकि यह सहमति बनी है कि जीवाश्म ईंधनों के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जायेगा, लेकिन इसके लिए गंभीरता से विचार करना होगा कि यह कैसे होगा. सम्मेलन में अनेक शपथें ली गयीं, जिसमें अक्षय ऊर्जा में तीन गुना वृद्धि, शीतलन से संबंधित ऊर्जा उपभोग में दुगुनी कार्यकुशलता आदि शामिल हैं. पिछले सम्मेलनों में यह बहस चलती रही कि जीवाश्म ईंधनों में से कोयला या पेट्रोलियम, किसके उपयोग को कम करना चाहिए. विकसित देशों का कहना था कि वे पेट्रोलियम उपयोग को कम नहीं करेंगे, लेकिन वे दबाव बना रहे थे कि भारत सरीखे देश कोयले के उपयोग को अवश्य बंद करें. इस बार फिर विकसित देश अंतिम दस्तावेज में शामिल होने में सफल रहे हैं, जब नवीकरणीय ऊर्जा को तीन गुना करने को ‘बेरोकटोक कोयला बिजली को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने’ से जोड़ा गया. यह माना जा सकता है कि कोयले से उत्सर्जन पेट्रोलियम पदार्थों के उत्सर्जन से ज्यादा होता है. लेकिन इस बहस में भारत का यह कहना था कि यदि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को क्रमशः कम करना है, तो इसमें कोयले और पेट्रोलियम पदार्थों में भेद नहीं होना चाहिए. गौरतलब है कि भारत के पास कोयले के बड़े भंडार हैं, इसलिए भारत के लिए जरूरी है कि फिलहाल वह कोयले का उपयोग कुछ समय तक करे और बाद में उसे क्रमशः घटाया जाए. हालांकि कॉप 28 में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग से संबंधित लक्ष्यों, खासकर वैश्विक तापमान औद्योगीकरण से पूर्व की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जायेगा, की समय सीमा 2050 रखी गयी है, लेकिन कॉप 26 में भारत ने अपने वचन में कहा था कि हम 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य प्राप्त करेंगे. इसलिए भारत के पास वैश्विक लक्ष्य की सीमा से दो दशक आगे का समय रहेगा. कॉप 28 में भी कहा गया है कि जीवाश्म ईंधन उपयोग के लक्ष्य को न्यायोचित, व्यवस्थित और न्यायसंगत तरीके से हासिल किया जायेगा. इसका मतलब यह है कि अमीर मुल्कों को अपनी जीवन पद्धति को बदलते हुए जिम्मेदारी के साथ जीवाश्म ईंधनों के उपयोग को कम करना होगा और भारत समेत विकासशील देशों को इसके लिए ज्यादा समय मिलेगा.
अभी तक मौसम परिवर्तन के संबंध में टिकाऊ उत्पादन पर ज्यादा जोर दिया जाता रहा है. लेकिन समझना होगा कि यदि पृथ्वी को वास्तव में बचाना है, तो संयमित उपभोग से ही ऐसा संभव हो सकता है. अधिकाधिक उपभोग और इस कारण अधिकाधिक ईंधन का उपयोग तथा प्रकृति का अंधाधुंध शोषण आज की वैश्विक उष्णता का प्रमुख कारण है. सभी देशों की सरकारों को उपभोग को संयमित करने के संबंध में ठोस प्रयास करने होंगे. जी-20 सम्मेलन में भारत ने दुनिया के सामने एक सिद्धांत प्रस्तुत किया है और वह सिद्धांत है: एक पृथ्वी-एक परिवार-एक भविष्य. प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता और अनुशासन भारत की संस्कृति में ही निहित है. वैश्विक उष्णता के संबंध में हमें दुनिया के सामने यह विचार और दृढ़ता से रखना पड़ेगा कि जिम्मेदारी के साथ उपभोग से ही पृथ्वी को बचाया जा सकता है. सभी देशों के नागरिकों को यह समझना पड़ेगा कि संयमित उपभोग ही ग्लोबल वार्मिंग, यानी पृथ्वी के विनाश को रोक सकता है. देशों को इसी सिद्धांत पर आधारित रणनीति पर विचार करना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)