नागरिकता संशोधन कानून को लेकर एक बार फिर बहस होती नजर आ रही है. पश्चिम बंगाल की एक सभा में केंद्रीय राज्यमंत्री शांतनु ठाकुर ने इसे जल्दी लागू करने का दावा किया है. चूंकि जल्दी ही लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए प्रेक्षकों के एक समूह को लग रहा है कि केंद्र सरकार ध्रुवीकरण के लिए इस कानून को लागू करने जा रही है. उन्हें लगता है कि इस कानून को लेकर पहले से ही सशंकित मुस्लिम समुदाय फिर सड़कों पर उतरेगा और इससे बहुसंख्यक मानस भी गोलबंद होगा, जिसका फायदा निश्चित तौर पर भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को होगा. ऐसी सोच सही हो सकती है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसी आधार पर संसद से पारित किसी कानून को लागू करने से रोका जाना चाहिए? निश्चित ही इसका जवाब ना में है. यह कानून 2014 से पहले तक अफगानिस्तान, बर्मा, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आये हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों को नागरिकता देने का प्रावधान करता है. नागरिकता संशोधन कानून बुनियादी रूप में 1955 में पास हुआ था. इसके तहत बंटवारे के बाद भारत आये लोगों को नागरिक अधिकार देने का प्रावधान किया गया था. इस कानून में पहली बार संशोधन वाजपेयी सरकार के दौरान 2003 में हुआ था. इसके बावजूद पड़ोसी देशों से आये हिंदू, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध शरणार्थी किस हाल में है, इसे देखना-समझना हो तो हमें राजस्थान के बीकानेर, जोधपुर या जैसलमेर के शरणार्थी कैंपों और दिल्ली के नजफगढ़ के पास स्थित कैंपों का दौरा करना पड़ेगा. इनमें रह रहे लोगों को ना तो शैक्षिक सुविधाएं मिल पाती हैं, ना उन्हें नियमित रोजगार मिल पाता है और ना ही दूसरी सरकारी सहूलियतें क्योंकि ये भारत के वैध नागरिक नहीं हैं. यह कानून ऐसे ही लोगों के लिए आया था. लेकिन दिसंबर 2019 में इसे संसद ने मंजूरी दी थी, तो इसे एक तरह से मुस्लिम विरोधी बताने की शुरुआत हुई. इस कानून के खिलाफ देश का करीब समूचा मुस्लिम बहुल इलाका खड़ा हो गया. इसे वामपंथी वैचारिकी से प्रभावित राजनीतिक ताकतों ने खुला समर्थन दिया. दरअसल मुसलमानों को बरगलाने की वजह बना है 2003 में हुआ संशोधन. इसके तहत, विशेषकर उत्तर-पूर्वी राज्यों में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने की बात है, जिससे एक खास अवधि के बाद सीमा पार से आये लोगों की पहचान की कोशिश की जानी थी.
बड़ी बात यह है कि नागरिकता संशोधन कानून बुनियादी रूप से भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नहीं है. इसका मकसद सराय की तरह मानते हुए लगातार सीमा पार से भारत आने वाले लोगों की पहचान सुनिश्चित करना और अवैध आप्रवासन रोकना है. गैर भाजपा दलों के लिए ऐसे अप्रवासी बड़े वोट बैंक साबित होते रहे हैं, इसलिए वे देश की समस्याओं को भुलाते हुए इन अप्रवासियों को सहयोग करते रहे हैं. यही वजह है कि इस कानून के खिलाफ देशव्यापी विरोध में विपक्षी दलों का बड़ा हिस्सा भी शामिल रहा. अनेक विपक्ष शासित राज्यों ने इस कानून को लागू करने से इनकार कर दिया था. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संप्रभुता की गारंटी संसद देती है और संसद सर्वोच्च है. सवाल यह है कि सर्वोच्च संसद के कानून को कोई राज्य लागू करने से कैसे मना कर सकता है? इस कानून की आलोचना के संदर्भ में उठने वाले तर्कों को भी देखा जाना चाहिए. इस कानून में चूंकि मुसलमानों का जिक्र नहीं है, इसीलिए तर्क दिया जाता है कि यह कानून भेदभावपूर्ण है. इसी आधार पर इस पर सेक्युलरिज्म के उल्लंघन का भी आरोप लगता है.
इस कानून की आलोचना की एक वजह यह भी है कि नागरिकता रजिस्टर एक होगा तो मुसलमानों का बहिष्कार हो सकता है. इससे संविधान में निहित समानता और गैर भेदभाव के मूल्यों को चुनौती मिलती है. आरोप यह भी लगाया जाता है कि कानून लागू होने के बाद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में कानून की जटिलता की वजह से बेगुनाहों को अपनी नागरिकता साबित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, नतीजतन अन्यायपूर्ण परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं. वैसे भारत को अवैध आप्रवासन से बचाना है, तुष्टीकरण की राजनीति की बजाय समानता आधारित व्यवस्था को अपनाना है, तो यह कानून हर हाल में लागू किया जाना चाहिए. कानून का विरोध ना हो, इसके लिए आशंकाओं का समाधान सरकारी स्तर पर किया जाना चाहिए, लेकिन यह तर्क स्वीकार नहीं हो सकता कि संसद का बनाया कानून लागू नहीं किया जा सकता. वैसे जिस तरह के विरोध के सुर तेज हो रहे हैं, उससे लगता है कि उनकी कोशिश एक बार फिर 2019 को ही दोहराने की है. लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि चार साल के लंबे अंतराल में समाज के हर तबके को इतनी जानकारी तो हो चुकी है कि यह कानून बुनियादी रूप से क्या है और उसका बुनियादी लक्ष्य क्या है? लोग यह समझ चुके होंगे कि यह कानून भेदभाव नहीं करता, बल्कि पहले से भेदभाव भुगत रहे अति अल्पसंख्यक समुदायों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश करता है. अगर ऐसा नहीं हुआ है, तो लोगों को इस नजरिये से समझाने की कोशिश होनी चाहिए. शायद सरकार का मकसद भी यही है. इस प्रक्रिया के जरिये कुछ राजनीतिक लक्ष्य भी हासिल करना संभव है, पर ध्यान रखना होगा कि विरोध की भी अपनी राजनीति होती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)