रामनवमी (निर्बलों के बल, अनाथों के नाथ, दीनों के आराध्य, मर्यादापुरुषोत्तम, मानवीय आदर्शों के प्रतिस्थापक और घट-घटवासी भगवान राम के जन्मदिन) का पर्व यूं तो देश की सीमाओं के पार भी मनाया जाता है, लेकिन अयोध्या में (जिसे उनकी जन्मभूमि और राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त है) इस पर्व का उल्लास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी नये संवत्सर के पहले दिन से ही असीम होने लग जाता है. इसके नौवें दिन रामनवमी को सरयू के तट पर मेलार्थियों, श्रद्वालुओं व स्नानार्थियों के बीच मंदिरों का वातावरण ‘भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी’ के गायन से गुंजायमान होता है. इस दिन रामजन्मोत्सव का मुख्य केंद्र वह ‘कनक भवन’ होता है, जिसे कहते हैं कि महारानी कौशल्या ने सीता को मुंह-दिखाई में दिया था. दूसरे मंदिरों के उत्सव भी कुछ कम नहीं लुभाते, क्योंकि उनमें भक्तों व संतों के हृदयों में बसी भगवान राम की विविध छवियों का भरपूर अक्स दिखता है. यह अक्स बताता है कि राम इसलिए भी घट-घटवासी हैं कि अपने भक्तों को अपनी किसी खास छवि का ‘बंदी’ नहीं बनाते. अपनी भावनाओं के अनुसार कोई नयी ‘मूरत’ गढ़ ले, तो भी कोई हर्ज नहीं.
संत कबीर कभी कहते हैं ‘हरि मोर पिउ मैं राम की बहुरिया’, कभी-‘हरि जननी मैं बालक तोरा’ और कभी ‘कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मोरा नाउं, गले राम की जेबड़ी, जित खैंचे तित जाउं.’ संतों का एक संप्रदाय सखा भाव से राम की उपासना करता है. संत तुलसीदास के राम ‘ब्रह्म’ और ‘ठाकुर’ होने के साथ तात-मात, गुरु-सखा, हितू, सहायक, कृपालु, दयालु, दानी और सकल ताप व पापपुंजहारी हैं, तो महात्मा गांधी के निकट सबको सन्मति प्रदान करने वाले. किसी को शौक-ए-दीदार हो, तो वह राम की कुछ बेहद जतन से गढ़ी गयी और ज्यादातर अनगढ़ छवियों में बहुलतावाद का सबसे प्रामाणिक प्रतिबिंब देख सकता है. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ‘साकेत’ में राम से ही पूछते हैं- ‘राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या? विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?’ अगर हां, तो वे कहते हैं- ‘तब मैं निरीश्वर हूं ईश्वर क्षमा करे, तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे.’
समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने अपने निबंध ‘राम, कृष्ण और शिव’ में शिव और कृष्ण के साथ राम को भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्नों में ऐसे ही थोड़े शामिल किया और कहा है कि उनमें भारत की उदासी और रंगीन सपने एक साथ प्रतिबिंबित होते हैं. उनके अनुसार, राम का जीवन किसी का कुछ भी हड़पे बिना फलने की कहानी है. वे लिखते हैं, ‘उनका निर्वासन देश को एक शक्ति केंद्र के अंदर बांधने का एक मौका था. इसके पहले प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे- अयोध्या और लंका. अपने प्रवास में राम अयोध्या से दूर लंका की ओर गये. मर्यादित पुरुष की नीति-निपुणता की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति तब हुई, जब राम ने रावण के राज्यों में से एक बड़े राज्य को जीता. उसका राजा बालि था. राम ने इस पहली जीत को शालीनता और मर्यादित पुरुष की तरह निभाया. वह राज्य हड़पा नहीं, जैसे का तैसा रहने दिया.’ रावण की लंका को भी उन्होंने हड़पा नहीं, विभीषण को उसका राजा बनाया.
अल्लामा इकबाल कहते हैं कि ‘है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज, अहले-नजर समझते हैं उनको इमाम-ए-हिन्द’ तो सुनना अच्छा लगता है, लेकिन पंडित ब्रजनारायण चकबस्त द्वारा ‘रामायण का एक सीन’ शीर्षक नज्म में राम के मुंह से कहलवायी गयी यह बात देश की सीमाओं व धर्म की संकीर्णताओं से परे उनकी घट-घट व्यापकता के साथ कहीं ज्यादा न्याय करती है- ‘कहते हैं जिसको धरम, वो दुनिया का है चराग.’ इंडोनेशिया, थाईलैंड व फिलीपींस आदि देशों में कही जाने वाली रामकथाएं इसी मान्यता को पुष्ट करती हैं. गौरतलब है कि ये देश हिंदू बहुल नहीं हैं. वहां यह कहने वाले भी मिलते हैं कि ‘क्या हुआ जो आज हमारा धर्म हिंदू नहीं है. लेकिन हम इससे कैसे इनकार कर सकते हैं कि अतीत में हमारा भगवान राम से गहरा नाता रहा है. वह नाता हमारी सांस्कृतिक धरोहर है.’
अपने देश में रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा के संत रामानंद के शिष्यों में भी दूसरे धर्मों और संप्रदायों के लोग थे. कबीर तो थे ही. अवध में अंग्रेजों ने 1856 में नवाब वाजिदअली शाह को गिरफ्तार कर लिया, तो उनके कुशलक्षेम के लिए भगवान राम से प्रार्थनाएं की गयीं. इसके पीछे वह गंगा-जमुनी संस्कृति थी, जिसे नवाबों ने अपने समय में लगातार सींचा. उनमें से कई स्वयं रामोपासक थे और उन्होंने अयोध्या के अनेक मंदिरों को दान व जागीर देने में दरियादिली दिखायी थी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)