22.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

मायं-माटी : ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार में मदद मिले

बाजार अपने आप में क्रूर है, इसमें कोई दो राय नहीं है. हालांकि भारत जैसे देश में जातीय और लिंग क्रूरता, बाजार की क्रूरता से पहले आता है. एक साधारण ग्रामीण परिवार के व्यक्ति के लिए इन सारी क्रूरताओं को लांघ पाना अपने आशातीत जीवन काल को खत्म करने जैसा ही है, जो काफी लोग प्रयास कर रहे हैं.

गणेश मांझी

सिमडेगा एक कम घनत्व वाला जिला है, जिसमें 70 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. ये झारखंड के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के बॉर्डर को छूता है. अब, कल्पना करें कि आदिवासी बहुल सिमडेगा जिला का तेलंगा खड़िया बस स्टैंड में एक आदिवासी युवा दीपक लकड़ा बस चलाने का व्यवसाय शुरू करता है. कल्पना करें कि एक आदिवासी युवती दीप्ति लकड़ा टिकट काटने का काम शुरू करती है. वस्तुस्थिति ये है कि यहां न पहले से कोई आदिवासी, न ही कोई महिला, बस के संचालन में किसी भी प्रकार के रोजगार या व्यवसाय से जुड़ा हो. बस चलाना-चलवाना एक ऐसा व्यवसाय है, जिसमें धक्का-मुक्की, सांठ-गांठ, लड़ाई-झगड़ा आम बात होती है, खासकर अर्द्ध शहरी क्षेत्र के दृष्टिकोण से. इस व्यवसाय में वर्षों से पैठ बनाये हुए व्यवसायी वर्चस्व का कवच बनाये हुए, जिसमें धन और बाहुबल भी शामिल है, एक ग्रामीण परिवेश के युवक-युवतियों के लिए कितना मुश्किल होगा. इस क्षेत्र में व्यापारिक कदम बढ़ाना सहज ही समझा जा सकता है. व्यापार, समाज सेवा के लिए नहीं किया जाता, और न ही बाजार में आपका प्रतियोगी आपको सहर्ष स्वागत करेगा. आपका एक ही मकसद होना चाहिए पैसा कमाना, चाहे आप जाति का इस्तेमाल करें, या धर्म का, या बाहुबल का, या फिर प्रशासनिक सांठ-गांठ का. ये तमाम हथकंडे व्यवहारिक ढंग से अपनाये जा सकते हैं क्योंकि ये एक अप्रत्यक्ष विनियमित बाजार है, जहां पर कोई भी सत्ताधारी सरकार कम बोलना चाहती है. कम बोलना भी उनकी राजनीति का हिस्सा हो सकता है क्योंकि कम विनियमित बाजार इनके राजनीतिक आय का बढ़िया स्रोत भी हो सकता है.

Also Read: मांय माटी : आदिवासियत का समूहगान है ‘अघोषित उलगुलान’

व्यापारिक पृष्ठभूमि नहीं होने, व्यापारिक सोच नहीं होने, साथ ही व्यापार के क्षेत्र में शिक्षा का अभाव होने की वजह से पहले से ही व्यवस्थित व्यापारिक समूह में अपने आप को शामिल करना असंभव-सा होता है, और अगर किसी प्रकार शामिल हो भी गये तो टिकना भी उतना ही मुश्किल होता है. ये व्यापार के क्षेत्र में व्यवसाय करने वाले के प्रवेश और बाहर निकल जाने (एंट्री/ एग्जिट) के सिद्धांत पर आधारित है. हमारा देश किसी-न-किसी प्रकार से जातीय विभाजन के बंधनों में बंधा रहा है और व्यवसाय या कारोबार भी इसी विभाजन का हिस्सा रहा है, जो कमोबेश अब भी जारी है. जाति अनुसार व्यवसाय का विभाजन या व्यवसायानुसार जाति का विभाजन स्पष्ट देखे जा सकते हैं, जैसे एक खास समुदाय को आप मिठाई बेचते देखेंगे, या सीमेंट, छड़ या कपड़े-जूते का व्यवसाय व्यापार करते देख सकते हैं. ठीक उसी प्रकार मीडिया, शिक्षा में भी कुछ खास समुदाय के लोगों के वर्चस्व से इंकार नहीं किया जा सकता. ऐसी स्थिति में एक ग्रामीण पृष्ठभूमि का व्यक्ति जो एक आदिवासी, दलित या अन्य पिछड़े समुदायों से ताल्लुक रखता हो किसी भी प्रकार का व्यवसाय, व्यापार करना आसान नहीं है. वास्तव में, सर्वप्रथम व्यापार के बाजार में प्रवेश करना ही अपने आप में बड़ी बात है.

एडम स्मिथ कहते हैं बाजार को एक अदृश्य हाथ चलाता है जिसका व्यवहार इस प्रकार है – “कोई भी व्यक्ति – कसाई, शराब बनानेवाला, या बेकर (ब्रेड, पेस्ट्री, केक इत्यादि बनाने वाला) के परोपकार (दयालुता) से वो अपने रात के खाने की उम्मीद नहीं करता, बल्कि उनके अपने स्वार्थ की वजह से.” आधुनिक बाजारवाद का सिद्धांत स्वार्थ के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि भारतीय शिक्षा का नैतिक पहलू स्वार्थ होने को गलत बताता है. स्वार्थ के सिद्धांत पर बाजार काम करते हुए सबों की इच्छा की पूर्ति करता है साथ ही आधुनिक बाजार के स्वार्थ सिद्धांत की क्रूरता पर स्मिथ थोड़ा और जोर देकर कहते हैं – “अपने सहयात्री नागरिकों की परोपकारिता पर जीवित रहना सिर्फ एक भिखारी का काम हो सकता है.” कुल मिलाकर ईमानदारी से व्यापार करना बस सुनने में अच्छा लगता है और इसका हिस्सा बनने के लिए बहुत सारे छोटे-छोटे पहलुओं का अध्ययन और बाजार में प्रवेश करने से पहले इनका व्यावहारिक समझ बहुत जरूरी है.

बाजार अपने आप में क्रूर है, इसमें कोई दो राय नहीं है. हालांकि भारत जैसे देश में जातीय और लिंग क्रूरता, बाजार की क्रूरता से पहले आता है. एक साधारण ग्रामीण परिवार के व्यक्ति के लिए इन सारी क्रूरताओं को लांघ पाना अपने आशातीत जीवन काल को खत्म करने जैसा ही है, जो काफी लोग प्रयास कर रहे हैं और बाजार में जातीय और लिंग के बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ रहे हैं. कुछ लोग आधुनिक बाजार में अपने आशातीत जीवनकाल को इसलिए भी खपाना चाहते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी कम-से-कम बाजार के सिद्धांतों को समझने लग जाये और स्वार्थ के गुरों को सीख ले. गिने-चुने ही, लेकिन आज, आदिवासी, पिछड़े, दलित, भिन्न लिंग वाले, और आर्थिक रूप से पिछड़े लोग भी बाजार में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर रहे हैं.

Also Read: ‘मायं माटी भाषा आऊर संस्कृति’ को मिला संगीत नाटक अकादमी, जानिए झारखंड के किन-किन कलाकारों को मिला अवॉर्ड

बाजार में प्रवेश करने का एकमात्र उद्देश्य होता है लाभ कमाना और जिनके मन में पैसे कमाने का स्वार्थ नहीं पनपा है वो बाजार में प्रवेश ना ही करे तो अच्छा है, जैसा कि अक्सर आदिवासी युवक-युवतियों के व्यवहारों से देखने को मिलता है. बिना योजना, जोड़-गुना, गहराई के अंदाजा के बिना बाजार में कूदना खतरनाक हो सकता है क्योंकि काफी बार बाजार का स्वार्थ रूप अति-स्वार्थ में बदल जाता है, जिसके दुष्परिणाम आपके हिस्से आ सकता है जो कि 2007-08 के वित्तीय संकट में देखने को मिला था. 2007-08 का वित्तीय संकट के दुष्परिणाम से रिश्ते और परिवारों को टूटते देखा गया. स्वार्थपन और अति-स्वार्थपन के पतले धागे से अंतर को विभेद करने आना जरुरी है. तमाम किस्म के विज्ञापन, उत्साहवर्धक भाषणों, नेटवर्किंग बिजनेस की कलाबाजी से आकृष्ट होकर अनायास ही युवाओं में अक्सर बिल गेट्स और एलॉन मस्क बनने की इच्छा जागृत होती है. अधीरतावश सब कुछ जल्दी हासिल करने की इच्छा रखने वाला युवा अक्सर धोखा खा जाता है, ऐसे युवाओं के झुंड को हम ‘मैगी जेनेरेशन’ कहते हैं जो दो मिनट में खाना तैयार करके खा जाना चाहता है, ये जाने हुए बिना कि क्या खा रहा है.

दरअसल व्यापार की शुरुआत कानूनी या गैरकानूनी तरीके से हो सकती है. यानी, अगर व्यापार की शुरुआत के लिए आपको लाइसेंस लेने हैं और इसे लेने में काफी अड़चनें हैं तो आप बिना लाइसेंस लिए गैरकानूनी तरीके से व्यापार करना चाहेंगे क्योंकि लाइसेंस की कीमत से अधिक चुकौती पर आपकी पूंजी का बड़ा हिस्सा लाइसेंस लेने में चला जायेगा. कुल मिलाकर, कोई व्यक्ति गैरकानूनी तरीके से तभी व्यापार करेगा, जब शुद्ध लाभ धनात्मक हों, यानी व्यापार का कुल लाभ पकड़े जाने और दंडित किये जाने के हानि से अधिक हो. क्योंकि आधुनिक बाजार का सिद्धांत ही स्वार्थ पर आधारित है इसलिए अगर आप सत्ताधारी दल के साथ सांठ-गांठ के अनुसार अपना व्यापार चला रहे हैं तो सफल होने की संभावना अधिक है. यानि सत्ताधारी दल अपने कार्यकर्ताओं को अलग-अलग क्षेत्रों में पूंजी मुहैया कराकर कानूनी अथवा गैर-कानूनी तरीके से व्यापार को बढ़ावा दे सकती है ताकि उस लाभ का एक समुचित हिस्सा पार्टी फंड में आ सके और किसी खास पार्टी की सरकार चलाने में मदद हो सके. विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़े लोगों की संपत्तियां रियल एस्टेट व्यवसाय में लगना एक बहुत बड़ा उदाहरण है. जैसे कि देखा गया है चुनाव के समय रियल एस्टेट बाजार का प्रदर्शन मंदा होता है, क्योंकि रियल एस्टेट में लगा हुआ संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा चुनाव में लग जाता है.

अक्सर एक ग्रामीण पृष्ठभूमि का व्यक्ति, महिला, और अन्य प्रकार के लिंग वाले का बाजार में प्रवेश कर पाना बड़ा मुश्किल होता है क्योंकि बाजार के काफी सारे प्रोडक्ट्स में किसी खास जाति और समुदाय का वर्चस्व बना हुआ है. झारखंड सरकार को ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले युवाओं को स्व-रोजगार और स्टार्टअप को लेकर उत्साहवर्द्धन करना चाहिए. साथ ही ये भी पुनरावलोकन करने की जरूरत है कि झारखंड में 25 लाख रुपये तक का ठेका आदिवासी उद्यमियों को देने की योजना कितनी सफल रही?

गणेश मांझी, सहायक प्राध्यापक, सेंटर फॉर मैथमेटिकल एंड कंप्यूटेशनल इकोनॉमिक्स, स्कूल ऑफ एआइ एंड डेटा साइंस, आइआइटी, जोधपुर

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें