दिसंबर के आखिरी हफ्ते में अपनी रूस यात्रा के दौरान विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बड़ी स्पष्टता के साथ विश्व को ये बताने की कोशिश की कि आर्थिक प्रगति में भारत अब रूस से आगे निकल चुका है. नब्बे का दशक दोनों मुल्कों के लिए बड़ा महत्वपूर्ण था. तब भारत ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी और सोवियत संघ का विघटन हुआ था. नब्बे के दशक में भारत का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) 270 अरब डॉलर था और रूस की जीडीपी 518 अरब डॉलर थी. आज स्थिति बदल चुकी है. भारतीय अर्थव्यवस्था आज रूस से 60 प्रतिशत अधिक के स्तर पर है. वर्ष 2022 में भारत की जीडीपी लगभग 3.7 ट्रिलियन डॉलर रही, जबकि रूस की जीडीपी 2.3 ट्रिलियन डॉलर के बराबर. यह अंतर आने वाले समय में लगातार बढ़ेगा. भारतीय विदेश मंत्री ने इन आंकड़ों के माध्यम से यह बताने की कोशिश नहीं की कि रूस भारत से पीछे हो चुका है, अपितु यह जरूर प्रमुखता से रखा गया है कि भारत ने पिछले 30 वर्षों में बेहतरीन प्रगति का दौर देखा है और आने वाले समय में एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरेगा.
रूस के आर्थिक विकास में पीछे रह जाने का मुख्य कारण उसकी अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं. दोनों देशों के आर्थिक विकास की तुलना करें, तो तकरीबन 2008 तक रूस की आर्थिक प्रगति भारत से अधिक रही. साल 2009 की वैश्विक मंदी का रूस पर विपरीत प्रभाव पड़ा, जिसके चलते 2010 में गिरावट का दौर रहा, पर उसके बाद फिर आगामी दो-तीन वर्षों तक रूस ने अपनी विकास दर को तेजी से बनाये रखा. वर्ष 2014 दोनों देशों के लिए फिर से एक नया दौर लेकर आया. भारत में एक मजबूत सरकार ने बड़ी तेजी से विभिन्न आर्थिक सुधार किये, वहीं रूस ने अपनी अंतरराष्ट्रीय कट्टरपंथी अतार्किकता के चलते अपनी अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचायी. कट्टरपंथी अतार्किकता को अंग्रेजी में ‘इरिडेंटिज्म’ कहा जाता है, जिसके अंतर्गत जब किसी देश को अपने गौरवशाली इतिहास पर बहुत अधिक फक्र रहता है तथा वह एक बार फिर उस वैभव और स्थिति को किसी भी तरह से हासिल करना चाहता है. इस सोच के चलते वह उन सभी भागों तथा देशों को अपने स्वामित्व में फिर शामिल करना चाहता है, जो कभी इतिहास में उसके हिस्से थे. इसी सोच के चलते 2014 में रूस ने यूक्रेन से क्रीमिया को अलग कर दिया था. उसके बाद रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगे. फिर कोरोना का दौर आया और पिछले दो वर्षों से यूक्रेन से युद्ध के चलते रूसी अर्थव्यवस्था और भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर लगातार बढ़ता चला गया.
इरिडेंटिज्म या अंतरराष्ट्रीय कट्टरपंथी अतार्किकता की शुरुआत 18वीं सदी के अंत में इटली से हुई थी. तब इटली यह सोचा करता था कि यूरोप के विभिन्न मुल्क एक समय में उसी का भाग थे, तो उन्हें फिर से शामिल होना चाहिए. पिछली सदी में जापान और जर्मनी के हिटलर की सोच भी कुछ इसी तरह की थी. ऐसे उदाहरण सोमालिया और इथोपिया तथा अर्जेंटीना के फॉकलैंड के साथ भी देखे गये हैं. इस विचारधारा ने इन सभी मुल्कों को आर्थिक रूप से बहुत संकट में खड़ा किया है. हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान भी कुछ हद तक इसी से त्रस्त है क्योंकि पिछले 70 वर्षों से वह कश्मीर को धर्म तथा भाषा के आधार पर अपना भाग मानता है. आज वह आर्थिक गुजर-बसर के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की सहायता पर निर्भर है. रूस ऐसी ही राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते मुश्किल में है.
अपनी यात्रा के दौरान जयशंकर राष्ट्रपति पुतिन से भी मिले तथा उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के साथ उनकी लंबी चर्चा हुई. यह तो विदित ही है कि भारत रूस का बहुत पुराना मित्र है. लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि वैश्वीकरण के दौर की शुरुआत के बाद से भारत का अमेरिका की तरफ झुकाव तथा रूस का चीन की तरफ लगाव पारस्परिक रूप से बहुत बढ़ता गया है, जिसके कारण दोनों की मित्रता में काफी समय से और गहराई की जरूरत लगातार बनी रही है. हालांकि पिछले दो वर्षों से भारत और रूस का वार्षिक मैत्री सम्मेलन लगातार स्थगित होता रहा है. इस दफा भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे स्थगित किया. दिसंबर 2021 में राष्ट्रपति पुतिन वार्षिक मैत्री सम्मेलन के लिए ही भारत के दौरे पर आये थे. अभी अक्टूबर 2023 में जी-20 के वार्षिक सम्मेलन में पुतिन दिल्ली में उपस्थित नहीं रहे थे. यहां यह बताना भी अत्यंत आवश्यक है कि रूस पिछले दो वर्षों से यूक्रेन के साथ युद्ध लड़ रहा है और इसी दौरान भारत ने अपनी कच्चे तेल की मांग की पूर्ति के लिए रूस से भारतीय रुपये में कच्चा तेल खरीदना शुरू किया, जबकि यूक्रेन युद्ध के चलते रूस पर गंभीर प्रतिबंध लगे हुए है. यह बात भी देखने में आ रही है कि कच्चे तेल की खरीद के भुगतान में दी गयी भारतीय मुद्रा का रूसी कंपनियां पूर्ण रूप से उपयोग नहीं कर पा रही है. इस कारण उनका रूस की सरकार पर इस बात का दबाव है कि वह भारत को चीनी मुद्रा युआन के एवज में कच्चे तेल की बिक्री करे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)