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रूस-यूक्रेन युद्ध रुकने के आसार कम, पढ़ें पूर्व विदेश सचिव शशांक का ये खास लेख

भारत, चीन और यूरोप के देश इस युद्ध को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो देश इस लड़ाई में शामिल हैं, वे पहले शांति के लिए आगे बढ़ें. जर्मनी और फ्रांस के शासन प्रमुख भारत आने वाले हैं. अगर वे कोई ठोस प्रस्ताव रखते हैं, तो भारत उस पर विचार करेगा.

जब पिछले साल 24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था, तब सभी को यह लग रहा था कि बहुत जल्दी युद्ध खत्म हो जायेगा और रूस को जीत हासिल हो जायेगी. ऐसा सोचना स्वाभाविक भी था, क्योंकि दोनों देशों की सैन्य क्षमता में भारी अंतर है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यूक्रेन के लोगों और सेना ने बहुत हिम्मत दिखायी तथा वे रूस के विरुद्ध अभी भी डटे हुए हैं. यूक्रेन को नाटो के देशों से लगातार मदद मिलती रही है. यह लड़ाई मुख्य रूप से यूक्रेन के उन्हीं इलाकों में चल रही है, जहां अधिकतर रूसी मूल के और रूसी भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं. इन क्षेत्रों को रूस ने अपना इलाका घोषित करते हुए अपने में मिला लिया है. ये क्षेत्र यूक्रेन के पूर्वी और दक्षिणी हिस्से हैं. रूस ने क्रीमिया को कई साल पहले ही अपने में मिला लिया था. नाटो समूह की भी लगातार कोशिश यह रही है कि भले ही वे यूक्रेन को सैनिक मदद देते रहें, लेकिन उनका और रूस का सीधा टकराव न हो जाये. नाटो की यह मदद आगे भी जारी रहेगी. कुछ दिन पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यूक्रेन का दौरा किया है. पश्चिम के विभिन्न नेता भी यूक्रेन जाते रहे हैं तथा यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ने भी अनेक देशों की यात्रा की है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने यूक्रेन यात्रा के दौरान 500 मिलियन डॉलर की अतिरिक्त सहायता की घोषणा की है. उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया है कि आगे भी यूक्रेन को हर संभव मदद मुहैया करायी जायेगी. इस यात्रा के दौरान वे पोलैंड भी गये, जहां उन्होंने कहा कि अगर रूस को रोका नहीं गया, तो संभव है कि वह यूक्रेन के बाद पोलैंड पर भी हमला कर दे. इसलिए पोलैंड को यूक्रेन की और अधिक मदद करनी चाहिए. इस तरह, जो यूक्रेन के पड़ोसी देश हैं, पूर्वी और मध्य यूरोप में, वे भी यूक्रेन के साथ खड़े हैं. पिछले वर्ष अमेरिका में हुए मध्यावधि चुनाव में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में रिपब्लिकन पार्टी की जीत के बाद ऐसी आशंका थी कि अमेरिका पहले की तरह यूक्रेन की मदद नहीं कर सकेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हाल में हुए म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में पश्चिमी देशों के बीच बात उठी कि यूक्रेन को पूरी मदद की जानी चाहिए, तो वहां आये रिपब्लिकन पार्टी के प्रतिनिधियों ने भी इसका पूरा समर्थन किया. इससे राष्ट्रपति बाइडेन को भी हौसला मिला है तथा यूक्रेन की मदद से उन्हें घरेलू राजनीति में भी फायदा मिल सकता है.

इस युद्ध के कारण पश्चिमी देशों ने रूस को विश्व समुदाय में अलग-थलग करने की कोशिश की और इसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली है, लेकिन रूस के तेल और गैस के कारोबार को रोका नहीं जा सका. अमेरिका अरब के तेल उत्पादक देशों को तेल के बदले डॉलर में ही कारोबार करता रहा है, जिसे पेट्रोडॉलर कहा जाता है. इससे उन देशों को भी सुरक्षा की गारंटी प्राप्त होती थी. इस बार जब अमेरिका ने अरब के देशों से यूरोप को तेल और गैस देने का अनुरोध किया, तो उन्होंने इससे इनकार कर दिया. उन देशों को अब अमेरिकी गारंटी की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह गारंटी अब चीन मुहैया कराने के लिए तैयार है. हालांकि चीन ने निकटता के बावजूद रूस को अब तक सीधे तौर पर मदद नहीं दी है, पर अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि स्थिति बदल रही है. हाल ही में चीन के शीर्षस्थ कूटनीतिक और पूर्व विदेश मंत्री वांग यी ने रूस का दौरा किया है. वे म्यूनिख सम्मेलन में भी गये थे. कुछ दिनों में चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग की रूस यात्रा संभावित है. ऐसे में स्थिति बदल सकती है, लेकिन चीन ने मध्य-पूर्व के देशों को सुरक्षा का आश्वासन जरूर दे दिया है. इससे निश्चित ही अमेरिका को एक धक्का तो लगा ही है.

दूसरा धक्का जो अमेरिका को लगा है, वह नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन से संबंधित है. इसी पाइपलाइन से रूस का तेल व गैस जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों को भेजा जाता था. ऐसी रिपोर्ट हैं कि इस पाइपलाइन को अमेरिका ने ही बम से नष्ट किया है. इससे यूरोप के देशों में भी यह भावना बढ़ती जा रही है कि अमेरिका उनके हितों की रक्षा नहीं कर रहा है, बल्कि वह हथियार और ऊर्जा स्रोत बेच कर अपने हित साध रहा है. जाहिर है कि अगर वे यूरोप को गैस मुहैया करायेंगे, तो बाजार के हिसाब से उसके दाम भी वसूलेंगे. इस तरह से अभी अगर किसी को फायदा होता नजर आ रहा है, तो वह अमेरिका है. नाटो के देशों में नॉर्वे जैसे एक-दो देशों को लाभ है, पर सभी के साथ ऐसा नहीं हो रहा है. दूसरी ओर, चीन ने समझदारी से काम लेते हुए रूस को सीधी मदद नहीं की है, क्योंकि वह एशिया के देशों को यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि यह यूरोप का युद्ध है, तो यूरोप तक ही सीमित रहे, एशिया को उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए. लेकिन अब चीन को ऐसा लग रहा है कि अमेरिका भी एशिया में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, तो वह भी अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है.

निश्चित रूप से भारत, चीन और यूरोप के देश इस युद्ध को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो देश इस लड़ाई में शामिल हैं, वे पहले शांति के लिए आगे बढ़ें. जर्मनी और फ्रांस के शासन प्रमुख भारत आने वाले हैं. अगर वे कोई ठोस प्रस्ताव रखते हैं, तो भारत उस पर विचार करेगा, लेकिन अगर वे केवल ये चाहेंगे कि भारत भी रूस पर प्रतिबंध लगा दे और महंगे दाम पर तेल और गैस खरीदे, तो उससे काम नहीं बनेगा. हम 80 प्रतिशत तेल और गैस बाहर से खरीदते हैं. हम ये नहीं चाहेंगे कि हम अधिक दाम देकर परेशानी उठाएं. जहां तक युद्ध की बात है, तो ऐसा लगता है कि यह इसी तरह से अभी आगे भी जारी रहेगा और इसमें कोई बहुत बड़ी तेजी नहीं आयेगी, हालांकि रूस ने अभी एक आक्रामक मोहरा चल दिया है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने स्टार्ट समझौते पर अमेरिका के साथ आगे बढ़ने से इनकार कर दिया है. इस समझौते के तहत दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों और लंबी दूरी के मिसाइलों के बारे में जानकारी का आदान-प्रदान होता है. इससे यह पता चलता है कि कितने मिसाइल और परमाणु हथियार तैनात हैं तथा कितने भंडार में हैं. राष्ट्रपति पुतिन अपने संबोधन में जिस प्रकार से पश्चिम पर आरोप लगाया है, उससे लगता है कि दोनों पक्षों के बीच अविश्वास की खाई बहुत बढ़ गयी है. अब यह देखना है कि इस पर अमेरिका का क्या रूख होता है.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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