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संताली साहित्य और सांस्कृतिक चिंतन

यूं तो संताली साहित्य का इतिहास बहुत पुराना है और बहुत ही समृद्ध साहित्य है. इसकी समृद्धता को हम उनके लोक साहित्य,वाचिक परंपरा, मिथकों, नृत्य, गीत-संगीत में हम पाते हैं. संताली साहित्य का साहित्य अधिकतर मौखिक परंपरा के रूप में मिलता है.

संताली भाषा का साहित्य अधिकतर मौखिक परंपरा के रूप में मिलता है. उनके पुरखों यानी पूर्वजों से उनके किस्से कहानियों में मिलता है. इनका साहित्य अलिखित होने के बावजूद काफी समृद्ध रहा है. वैसे संताली साहित्य हमेशा से हिन्दी भाषी लेखकों द्वारा लिखा जाता रहा है. जिसकी वजह से संताली साहित्य को खामियाजा भी भुगतना पड़ा है. जैसे कौन सा मौसम में कौन सा फूल जंगल पहाड़ों पर खिलता है, उसकी जानकारी उन्हें नहीं होती है. इसका व्यापक असर उस समुदाय पर पड़ता है. लेखक अपने घर बैठे ही अपनी कल्पनाओं में जंगलों-पहाड़ों में भ्रमण करने निकल पड़ते हैं और गहरा भटकाव के कारण उनको उनका उल्टा परिणाम मिलता है. ठीक उसी तरह सिदो-कान्हू संताल समाज के लिए वीर योद्धा रहे हैं.

यूं तो संताली साहित्य का इतिहास बहुत पुराना है और बहुत ही समृद्ध साहित्य है. इसकी समृद्धता को हम उनके लोक साहित्य,वाचिक परंपरा, मिथकों, नृत्य, गीत-संगीत में हम पाते हैं. संताली साहित्य का साहित्य अधिकतर मौखिक परंपरा के रूप में मिलता है. उनके पुरखों यानी पूर्वजों से उनके किस्से कहानियों में मिलता है. इनका साहित्य अलिखित होने के बावजूद काफी समृद्ध रहा है. वैसे संताली साहित्य हमेशा से हिन्दी भाषी लेखकों द्वारा लिखा जाता रहा है. जिसकी वजह से संताली साहित्य को खामियाजा भी भुगतना पड़ा है. जैसे कौन सा मौसम में कौन सा फूल जंगल पहाड़ों पर खिलता है, उसकी जानकारी उन्हें नहीं होती है. इसका व्यापक असर उस समुदाय पर पड़ता है. लेखक अपने घर बैठे ही अपनी कल्पनाओं में जंगलों-पहाड़ों में भ्रमण करने निकल पड़ते हैं और गहरा भटकाव के कारण उनको उनका उल्टा परिणाम मिलता है. ठीक उसी तरह सिदो-कान्हू संताल समाज के लिए वीर योद्धा रहे हैं. उनका संताल समाज के प्रति बहुत बड़ा योगदान है, लेकिन उनके योगदान को हिन्दी समाज बहुत कम आंकते हैं. यहां तक कि उसके उन्हें लंपट कह कर लिखा पढ़ा जाने लगा उसकी अमूल्य योगदान को धूल धूसरित करने लगा. इधर संताली साहित्य का लिखित दस्तावेज आठ-नौ सौ वर्ष पुराना रहा है. नहीं तो पहले कौन सा गीत किस लेखक ने लिखा, इसका सही नाम नहीं मिलता है पर उनके गीतों को अब भी गाया जाता है.

यहां यह वैसे साहित्यकार का नाम न लेना बहुत ही अन्याय होगा. संताली साहित्य को आगे लाने में उनका योगदान बहुत ही बड़ा रहा है इसलिए उन्हें संताली साहित्य के जनक भी कहा जाता है. उन्होंने संताल समाज के बीच जाकर उसके सानिध्य में रहकर उनके एक-एक शब्द को जानकर बटोरा उनका डिक्सनरी का निर्माण किया.वो हैं डोमन साहु समीर. संताली साहित्य की बात हो रही है तो संताली साहित्य का एक बहुत लोकप्रिय कथन है, जैसे ‘रोड़ाक में राड़ाक,अगर ताड़ामात को लाकुचआ’ यानी यहां कहने का तात्पर्य है : बोलना ही संगीत है और चलना ही नृत्य है. इन पंक्तियों के बगैर संताली साहित्य संपूर्ण नहीं होता. विकास की इस आंधी में संताली साहित्य और उनके सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का हनन हुआ है. विकास के नाम पर चौतरफा हमला हो रहा है. कहा भी गया है किसी की पहचान को नष्ट करना है तो उनके भाषा को नष्ट करना है. इसलिए उन्हें एक जगह से दूसरे जगह घर विस्थापित किया जाता है. ऐसे कई विस्थापितों का दंश अभी देखने सुनने को मिलता है. इसका एक जीवंत उदाहरण है एक सर्वे के मुताबिक, चित्तरंजन जहां रेलवे इंजन अभी बनाया जाता है, वहां उस जगह में कई आदिवासी गांव हुआ करते थे लेकिन वहां आदिवासियों का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं. यहां तक कि उनका पुर्नवास भी नहीं किया गया, जहां विस्थापित होते हैं, सबसे पहले उसका दुष्प्रभाव महिलाओं पर क्यों पड़ता है?

इस तरह वैसे कई एक उदाहरण हैं यहां उनका विस्तार से कहना,दिल को तार-तार कर देने जैसी बात है. ‘मुख्यधारा के नाम पर उनका सांस्कृतिक जीवन पर खतरा मंडरा रहा है. इसलिए इसकी संस्कृति बची रहे,उनके लिए जहां वह रहते हैं उनके लिए जीविकोपार्जन की व्यवस्था करनी चाहिए. संताली साहित्य की सांस्कृतिक चिंतन में हम पाते हैं कि उनके जितने भी पर्व-त्योहार हैं, इनके जीवन पद्धति, कार्यशैली है. सुबह से शाम तक वह जंगलों के आस-पास ही मिलता है. चाहे जंगलों से लकड़ी चुनकर लाना, पशुओं के लिए चारा का जुगाड़ भी जंगलों से होता है. वे अत्यधिक मेहनती होते हैं और उनके मेहनत को उनकी दीवारों में भित्तिचित्र के माध्यम से दिखता है. इनके मिट्टी के घरों को लिपना पोतना साफ सुथरा करना उसमें नक्काशी करना शामिल है. उनका मन पहाड़ों की तराईयों में कल-कल बहती नदियों की पानी की तरह तरल और साफ होता है. उनकी कला संस्कृति बहुत ही समृद्ध हो इसको लिपिबद्ध करने की आवश्यकता है.

संतालों की अपनी संस्कृति, उसकी परंपरा, ज्ञान एवं दर्शन को उन्होंने विकसित किया है. जहां-जहां जंगल बचे व जंगल व्याप्त है. संतालों का वास भी उसी के इर्द-गिर्द पाया जाता है. प्रकृति के करीब रहने से खोने का डर भी नहीं रहता है. जिस तरह बिन पानी के मछली रह नहीं पाते’ ठीक उसी तरह उनकी संस्कृति के किस्से भी उनसे अलग नहीं है. बाजारवाद के इस बढ़ते चकाचौंध के आंधी में संताली साहित्य और संस्कृति भी इसके प्रभाव में धुल- धुसरित हो गया है. इसका सांस्कृतिक जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. उनकी जीवन शैली के साथ अत्यचार हो रहा है. कभी विकास के नाम पर तो कभी नक्सली के नाम पर उन्हें एक जगह से दूसरे जगह भटकना पड़ रहा है. उन्हें शारीरिक,मानसिक स्तर पर प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है. किसी भी समाज का उत्थान और पतन का जितना सामाजिक सांस्कृति का योगदान है उतना ही अर्थव्यवस्था का भी है. उनके विकास जो प्राकृतिक संसाधनों का, उनकी मूल संस्कृति को, उनकी सभ्यता को संरक्षण प्रदान करना भी आवश्यकता है.

संस्कृति को बचाने के लिए नये तकनीक के तहत व्याप्त प्रावधान के तहत उन्हें प्रशिक्षण मुहैया करने की आवश्यकता है. ग्रामीण विकास के तहत उनको कार्यकुशलता को मूर्त रूप देने की जरूरत है. आर्थिक स्थिति को सशक्त और मजबूत बनाने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योग के माध्यम से उनके अंदर प्रतिस्पर्धा को भावना को उत्तरोतर आगे बढ़ाने के लिए उसको सम्मानित और पुरस्कृत करने की आवश्यकता है ताकि उसके अन्दर सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न हो सके विकास के साथ-साथ उसकी संस्कृति सभ्यता को संरक्षण प्रदान करने की आवश्यकता है. इसके लिए भावी रणनीति बजार बनाने की जरूरत है. जंगलों से प्राप्त जुड़ी-बूटियों का संवर्धन और संरक्षण की भी आवश्यकता है ताकि उसका एक आर्थिक उपार्जन का रास्ता मिल सके.

संताली साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कैसे हो ? उसका पाठक वर्ग कैसे बना पाए, इसके लिए मत मुख्यधारा की पत्र पत्रिकाओं में छपने के लिए संपर्क करने की जरूरत है. साहित्य एक ऐसा माध्यम है कि एक छोर दूसरे छोर के साहित्य को वृहत फलक में जोड़ते है. साहित्य और संस्कृति को एक दूसरे के पूरक के रूप में देखने की आवश्यक है. संस्कृति से उसकी सभ्यता का विकास होता है. संस्कृति हमेशा गतियमान होता है.

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