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सतीपीठ तारापीठ बनी सिद्धपीठ मां तारा का प्रभाव आज भी जागृत जाने इसके पीछे का रहस्य..

तारापीठ मंदिर कमेटी के अध्यक्ष तारामय मुखोपाध्याय ने बताया की, वशिष्ठमुनि की तपस्या और संत बामाखेपा की कहानी ने तारापीठ को प्रसिद्ध बना दिया है.मां तारा की कृपा से साधकों को यहीं सिद्धि प्राप्त हुई है.

बीरभूम, मुकेश तिवारी: बीरभूम जिले का तारापीठ. आज भी मां तारा के प्रभाव और उनकी शक्ति से जागृत है. कौशिकी अमावस्या पर देश विदेश से यहां महाश्मशान में तंत्र साधना हेतु साधक और औघड़ पहुंच रहे है. प्रसिद्ध साधकों की उपलब्धियों के कारण ही आज भी बीरभूम का तारापीठ ‘सिद्धपीठ’ के नाम से जाना जाता है. मां तारा का यह परिसर मां तारा के खास भक्त बामा खेपा की चमत्कारी कहानियों से भरा पड़ा है. यह सिर्फ भक्ति नहीं है कि लोग पारंपरिक तारापीठ में आ ते हैं. इतिहास के कारण भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों से कई लोग यहां आए है. तारापीठ के अंशों में देवी के प्राकट्य एवं पौराणिक कथा का वर्णन है.कहा जाता है कि वशिष्ठमुनि ब्रह्मा के सातवें पुत्र थे. वह सप्तर्षियों में से एक थे.

तारापीठ के नाम के पीछे का रहस्य

ऐसा माना जाता है कि तारापीठ श्मशान के निकट वह मातृ आराधना में लंबी तपस्या में बैठे रहे. तपस्या से संतुष्ट होकर देवी दुर्गा प्रकट हुईं. चूँकि उनका जन्म माँ के गर्भ से नहीं हुआ था, इसलिए वशिष्ठमुनि ने देवी को माँ के रूप में प्रकट होने का प्रस्ताव दिया. समुद्र मंथन के दौरान महादेव ने विषपान किया था जिसके कारण उनका समूचा कंठ नीला पड़ गया था. देवी दुर्गा ने तारा रूप में महादेव को स्तनपान कराया. शुक्ल चतुर्दशी के दिन वही माँ तारा के रूप में उन्होंने वशिष्ठमुनि को दर्शन दी. तभी से इस स्थान को तारापीठ कहा जाता है. लेकिन इसे लेकर और लोगों का अलग-अलग राय हैं.

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‘साधक बामाखेपा’ की जन्मस्थली पर भी दर्शन करने जाते है लोग

कुछ लोगों का ऐसा मानना है जब सती का शरीर विष्णु के चक्र में खंडित हुआ था, तो नेत्रगोलक या तारा यहीं गिरा था. इसके अलावा और भी पौराणिक मत हैं. हालाँकि, वर्तमान तारा पीठ मंदिर का निर्माण 1818 में बीरभूम के मल्लारपुर के जमींदार जगन्नाथ राय द्वारा किया गया था.संत बामाखेपा की भक्तिमय और चमत्कारिक कहानियों से यह तारापीठ और भी प्रसिद्ध हो गया है. बामाचरण (बामाखेपा) चट्टोपाध्याय का जन्म 1837 में तारापीठ के निकट अतला गाँव में हुआ था. इसी तारापीठ में द्वारका नदी के तट पर साधना करके उन्होंने सिद्धि प्राप्त की थी.भक्त जब तारापीठ में मां तारा के दर्शन करते हैं तो वे लोग ‘साधक बामाखेपा’ की जन्मस्थली पर भी दर्शन किए बिना नहीं लौटते. इस तारापीठ मंदिर के बगल में एक तालाब है.कहा जाता है कि व्यापारी जयदत्त द्वारका नदी मार्ग से नाव लेकर जा रहा था. तारापीठ के पास उनके पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु हो गई थी.

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तारापीठ में है  ‘जीवित कुंड’

उस समय, व्यापारी के एक नौकर ने कटी हुई शोल मछली को मंदिर के बगल के मौजूद तालाब में धोने ले गया .बताया जाता है की पानी में धोते समय शोल मछली जीवित हो गई. नौकर ने दौड़कर आकर जयदत्त को यह बात बतायी. यह सुनकर वह अपने मृत पुत्र को तालाब में ले गए और स्नान कराया .और जमीदार का पुत्र जीवित हो गया. इस घटना के बाद इस कुंड का नाम ‘जीवित कुंड’ पड़ गया.कहा जाता है कि इसी कुंड से माता तारा प्रकट हुई थीं. ऐसे अनेक चमत्कार, पौराणिक कथाएँ तारापीठ के विभिन्न तीर्थों में वर्णित हैं.यहां हर साल लाखों श्रद्धालु जुटते हैं. देश के बाहर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से लोग तारापीठ आते हैं.

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तारापीठ में हर वर्ष लाखों श्रद्धालुओं की उमड़ती है भीड़

खासकर रथयात्रा, कौशिक अमावस्या, फलहारिणी अमावस्या, काली पूजा, शुक्ल चतुर्दशी आदि पर श्रद्धालुओं की भीड़ को संभालने के लिए पुलिस और प्रशासन को मशक्कत करनी पड़ती है. तारापीठ मंदिर कमेटी के अध्यक्ष तारामय मुखोपाध्याय ने बताया की, वशिष्ठमुनि की तपस्या और संत बामाखेपा की कहानी ने तारापीठ को प्रसिद्ध बना दिया है.मां तारा की कृपा से साधकों को यहीं सिद्धि प्राप्त हुई है. व्यापारी जयदत्त का पुत्र भी माँ तारा की कृपा से पुनः जीवित हो गया. मंदिर, स्नान घाट, जीवित कुंड, दाह संस्कार, बामाखेपा के अटाला गांव जैसे पवित्र स्थान आदि की एक चमत्कारी कहानी है. तारापीठ मंदिर कमेटी के सचिव ध्रुव चट्टोपाध्याय ने बताया की, कौशिक अमावस्या, शुक्ल चतुर्दशी, काली पूजा आदि दिनों में लाखों भक्त इकट्ठा होते हैं. इन दिनों विशेष अनुष्ठानों के अनुसार मां की पूजा, स्नान, आराधना, संध्यारती की जाती है.

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