जो फ़िल्मों के निर्माण से जुड़े होते हैं, वे स्पष्ट रूप से फ़िल्म को एक व्यवसाय मानते हैं, लेकिन इससे इतर एक क्रियेटिव व्यक्ति अगर निर्माण की भी कमान संभाले तो दोनों के समावेश से क्रियेटिव आकार ही निखर कर सामने आता है, रघुवेन्द्र सिंह ने पत्रकारिता से अपने सफ़र की शुरुआत कर आज फ़िल्म निर्माण की तरफ़ रुख़ किया है और इस शुक्रवार रिलीज हो रही शास्त्री विरुद्ध शास्त्री उनका पहला प्रयास है. यह सुपरहिट बंगाली फिल्म पोस्तो का हिन्दी रीमेक है. इस फ़िल्म और उससे जुड़ी चुनौतियों पर युवा निर्माता रघुवेन्द्र सिंह से उर्मिला कोरी की हुई बातचीत के मुख्य अंश…
शास्त्री वर्सेज़ शास्त्री की जर्नी की शुरुआत कैसे हुई थी?
शिबू दा (शिबोप्रसाद मुखर्जी) और नंदिता दी (नंदिता रॉय) के सिनेमा का मैं फैन रहा हूं. उनकी कहानियां हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा और आईना होती हैं. सबसे रिलेट करती हैं. उनके जैसे स्टोरीटेलर्स बहुत कम हैं हिन्दुस्तानी सिनेमा में. बंगाली फिल्म इंडस्ट्री और दर्शक सचमुच बहुत भाग्यशाली हैं कि उनके पास शिबू दा – नंदिता दी हैं. बेलाशेष उनकी पहली फिल्म थी, जिसे मैंने मुंबई में देखा था. उसके बाद हमारी बातचीत हुई और फिर धीरे धीरे हमारी मित्रता प्रगाढ़ हो गई. मेरा कोलकाता आना जाना शुरू हो गया. मैंने जब उनसे फिल्म निर्माण में आने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने उत्साहवर्धन करते हुए कहा कि हम बेलाशेष को साथ मिलकर हिन्दी में बनाते हैं. इसी बीच उनकी पोस्तो फिल्म आयी. इन दोनों फ़िल्मों के रीमेक राइट्स वाइकॉम 18 स्टूडियो ने खरीद लिये. शिबू दा ने मुझे इसकी निर्माण टीम में आने का प्रस्ताव दिया. मुझे उनके साथ काम करना ही था तो मैंने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. इस फिल्म के निर्माण में लगभग पांच साल का समय लगा.
यह निर्माता के तौर पर आपकी पहली फ़िल्म है, फ़िल्म की मेकिंग से जुड़ी सबसे बड़ी चुनौती क्या थी ?
एक लिमिटेड बजट में इस फिल्म को बनाना सबसे बड़ी चुनौती थी. जब आपके पास बजट कम होता है और आप कलाकार और तकनीशियन उच्च श्रेणी के चाहते हैं तो संघर्ष थोड़ा बढ़ जाता है. ऐसे में आपके रिश्ते काम आते हैं. पत्रकारिता के दिनों के मेरे सभी रिश्ते काम आए. चाहे परेश जी हो या नीना जी या फिर अमृता सुभाष या फिर शिव, सबने मेरा मान रखा और सीमित संसाधनों में काम करने के लिए तैयार हुए. उनका सहयोग मैं कभी नहीं भूलूंगा. इसकी मेकिंग के दौरान कुछ कड़वे अनुभव भी हुए. कई लोग जिन्हें मैं दोस्त समझता था, उन्होंने सिर्फ पैसे की वज़ह से काम करने से मना कर दिया. हमारी फिल्म के एक मुख्य कलाकार ने किसी कारण से शूटिंग शुरू होने से एक हफ्ते पहले अचानक फिल्म छोड़ दी और लंदन चले गए. सब सकते में आ गए कि अब क्या होगा! लगा कि अब फिल्म बंद हो जाएगी. चूंकि इस डिपार्टमेंट की जिम्मेदारी भी मेरी थी तो सब मेरी ओर देखने लगे कि अब क्या और कैसे होगा. तीन रात लगातार मैं सो नहीं सका. अपने कई ऐक्टर दोस्तों से मैंने अफरातफरी में बात की लेकिन इतने शॉर्ट नोटिस पर एक मुश्त डेट्स निकालना सभी के लिए कठिन था. कोविड के बाद सबका बैकलॉग था. फ़ाइनली, शिव ने इस फिल्म के लिए अपने सभी प्रोजेक्ट्स को लेट गो किया. पंचगनी में हमारा पहला शेड्यूल था. देर रात शिव और मैं मुंबई से पंचगनी जाते थे, दिन भर शूटिंग करके शाम को लौट आते थे. शिव रात में अपने डबिंग के दूसरे काम पूरा करते और फिर हम देर रात पंचगनी निकल जाते थे. यह सिलसिला शुरुआत के कई दिन तक चला. मुंबई और पंचगनी के बीच एक तरफ का ट्रैवल चार से पांच घंटे का होता है. बहुत मुश्किल टाईम था. ऐसी अनेक चुनौतियां मेकिंग के दौरान आयी लेकिन धैर्य हमने हमेशा बनाए रखा. शिबू दा और नंदिता दी बंगाल में अपनी फ़िल्मों की शूटिंग सिर्फ दो हफ्तों में पूरी कर लेते हैं और उनका वही अनुभव इस फिल्म के लिए वरदान साबित हुआ. शास्त्री विरुद्ध शास्त्री की शूटिंग एक महीने से भी कम समय में कंप्लीट हुई थी.
फ़िल्म में परेश रावल वाले किरदार की पहली पसंद ऋषि कपूर थे. क्या उन्होंने फ़िल्म को हां कहा था ?
ऋषि कपूर जी इस फिल्म को लेकर बहुत उत्साहित थे. अपनी बीमारी के दौरान भी वह इसकी मीटिंग्स करते थे. यहां तक कि एक बार टीम को न्युयार्क भी बुलाया था उन्होंने. वह स्वस्थ होकर जल्द से जल्द इसकी शूटिंग शुरू करना चाहते थे, लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था. परेश जी से मुझे हंसल (मेहता) सर (फ़िल्मकार) ने कनेक्ट किया था. परेश जी सबसे पहले पोस्तो फिल्म देखी और उसके बाद वह फौरन इसे करने के लिए तैयार हो गए. कोविड के तुरंत बाद हमने इसकी शूटिंग की थी और इसके लिए परेश सर ने अपने कई दूसरे प्रोजेक्ट्स के डेट्स हिला दिए थे. हम वाकई भाग्यशाली हैं कि हमें परेश जी का साथ मिला. उन्होंने दादा जी की भूमिका को यादगार बना दिया है. यह उनके अविस्मरणीय किरदारों में से एक है.
यह फ़िल्म बांग्ला फ़िल्म का हिंदी रिमेक है उस फ़िल्म से कितना अलग हिन्दी वर्जन है?
फिल्म की मूल कहानी और भाव से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है. हमारी लेखक अनु सिंह चौधरी ने केवल इसका आवरण बदला, आत्मा वही रखी है. इसमें उन्हें बंगाली फिल्म पोस्तो के लेखक, अपने शिबू दा और नंदिता दी का भरपूर सहयोग मिला. यही इसकी खूबसूरती है. यह एक अर्थपूर्ण और अति भावुक कर देने वाली कहानी है, जो सिर्फ हमारे समाज की नहीं, बल्कि एक विश्वव्यापी बिंदु की ओर सबका ध्यान आकर्षित करती है.
थिएटर में इनदिनों लार्जर देन लाइफ सिनेमा को दर्शक पसंद कर रहे हैं, इस ट्रेंड पर आपको क्या राय है और क्या छोटी फ़िल्मों को इससे नुक़सान पहुंचेगा?
छोटी फ़िल्मों को अपने लिए दर्शक जुटाना हमेशा से एक चुनौती रही है. लेकिन अच्छी फ़िल्मों को अपने दर्शक मिल ही जाते हैं. वह अपनी लागत निकालते हुए निर्माताओं को इतना लाभ दे देती हैं कि वह भविष्य में फिर से छोटी फिल्म का निर्माण करने का हौसला दिखाते हैं. ताजातरीन उदाहरण 12th फेल फिल्म है. इधर ओटीटी प्लैटफॉर्म छोटी फ़िल्मों के लिए संजीवनी बूटी की तरह उभरकर आए हैं. नहीं तो अनेक बनी बनाई फ़िल्में हमेशा के लिए दर्शकों के बीच जाने से वंचित रह जाती.