Shiv-Parvati Chalisa: आज अखंड सौभाग्य और मनोवांछित वर देने वाली हरियाली तीज का व्रत है. ये दिन शिव-गौरी को समर्पित है. हरियाली तीज का व्रत हर वर्ष सावन माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को रखा जात है. इस दिन विवाहित महिलाएं व्रत रखती हैं और सोलह श्रृंगार कर भोलेनाथ और मां पार्वती की पूजा कर अपने सुहाग की लंबी आयु और परिवार की सुख समृद्धि की कामना करती है. वहीं युवतियों को मनचाहे वर की प्राप्ति का आशीर्वाद मिलता है. हरियाली तीज की पूजा करते समय शिव चालीसा और माता पार्वती चालीसा का पाठ जरुर करना चाहिए. इसके अलावा भी यदि आप प्रत्येक दिन माता पार्वती चालीसा का पाठ करते हैं, तो माता की कृपा से आपके सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होगी.
।।दोहा।।
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान।।
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला।।
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के।।
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये।।
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे।।
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी।।
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी।।
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे।।
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ।।
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा।।
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी।।
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ।।
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा।।
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई।।
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी।।
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं।।
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई।।
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला।।
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई।।
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा।।
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी।।
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई।।
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर।।
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी।।
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै।।
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो।।
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो।।
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई।।
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी।।
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं।।
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी।।
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन।।
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं।।
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय।।
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई।।
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी।।
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई।।
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे।।
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा।।
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे।।
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे।।
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी।।
।।दोहा।।
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश।।
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण।।
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दोहा
जय गिरी तनये दक्षजे शम्भू प्रिये गुणखानि।
गणपति जननी पार्वती अम्बे! शक्ति! भवानि।
ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे, पंच बदन नित तुमको ध्यावे।
षड्मुख कहि न सकत यश तेरो, सहसबदन श्रम करत घनेरो।।
तेऊ पार न पावत माता, स्थित रक्षा लय हिय सजाता।
अधर प्रवाल सदृश अरुणारे, अति कमनीय नयन कजरारे।।
ललित ललाट विलेपित केशर, कुंकुंम अक्षत् शोभा मनहर।
कनक बसन कंचुकि सजाए, कटी मेखला दिव्य लहराए।।
कंठ मंदार हार की शोभा, जाहि देखि सहजहि मन लोभा।
बालारुण अनंत छबि धारी, आभूषण की शोभा प्यारी।।
नाना रत्न जड़ित सिंहासन, तापर राजति हरि चतुरानन।
इन्द्रादिक परिवार पूजित, जग मृग नाग यक्ष रव कूजित।।
गिर कैलास निवासिनी जय जय, कोटिक प्रभा विकासिनी जय जय।
त्रिभुवन सकल कुटुंब तिहारी, अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी।।
हैं महेश प्राणेश तुम्हारे, त्रिभुवन के जो नित रखवारे।
उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब, सुकृत पुरातन उदित भए तब।।
बूढ़ा बैल सवारी जिनकी, महिमा का गावे कोउ तिनकी।
सदा श्मशान बिहारी शंकर, आभूषण हैं भुजंग भयंकर।।
कण्ठ हलाहल को छबि छायी, नीलकण्ठ की पदवी पायी।
देव मगन के हित अस किन्हो, विष लै आपु तिनहि अमि दिन्हो।।
ताकी, तुम पत्नी छवि धारिणी, दुरित विदारिणी मंगल कारिणी।
देखि परम सौंदर्य तिहारो, त्रिभुवन चकित बनावन हारो।।
भय भीता सो माता गंगा, लज्जा मय है सलिल तरंगा।
सौत समान शम्भू पहआयी, विष्णु पदाब्ज छोड़ि सो धायी।।
तेहि कों कमल बदन मुरझायो, लखी सत्वर शिव शीश चढ़ायो।
नित्यानंद करी बरदायिनी, अभय भक्त कर नित अनपायिनी।।
अखिल पाप त्रयताप निकन्दिनी, माहेश्वरी, हिमालय नन्दिनी।
काशी पुरी सदा मन भायी, सिद्ध पीठ तेहि आपु बनायी।।
भगवती प्रतिदिन भिक्षा दात्री, कृपा प्रमोद सनेह विधात्री।
रिपुक्षय कारिणी जय जय अम्बे, वाचा सिद्ध करि अवलम्बे।।
गौरी उमा शंकरी काली, अन्नपूर्णा जग प्रतिपाली।
सब जन की ईश्वरी भगवती, पतिप्राणा परमेश्वरी सती।।
तुमने कठिन तपस्या कीनी, नारद सों जब शिक्षा लीनी।
अन्न न नीर न वायु अहारा, अस्थि मात्रतन भयउ तुम्हारा।।
पत्र घास को खाद्य न भायउ, उमा नाम तब तुमने पायउ।
तप बिलोकी ऋषि सात पधारे, लगे डिगावन डिगी न हारे।।
तब तव जय जय जय उच्चारेउ, सप्तऋषि, निज गेह सिद्धारेउ।
सुर विधि विष्णु पास तब आए, वर देने के वचन सुनाए।।
मांगे उमा वर पति तुम तिनसों, चाहत जग त्रिभुवन निधि जिनसों।
एवमस्तु कही ते दोऊ गए, सुफल मनोरथ तुमने लए।।
करि विवाह शिव सों भामा, पुनः कहाई हर की बामा।
जो पढ़िहै जन यह चालीसा, धन जन सुख देइहै तेहि ईसा।।
दोहा
कूटि चंद्रिका सुभग शिर, जयति जयति सुख खानि,
पार्वती निज भक्त हित, रहहु सदा वरदानि।
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