स्वयं को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है… विश्व एक विशाल व्यायामशाला है, जिसमें हम स्वयं को मजबूत बनाने के लिए जीते हैं- शक्ति अर्जित करने के लिए, क्योंकि शक्ति ही जीवन है. इसके विपरीत निर्बलता मृत्यु का पर्याय है… इसलिए उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए.’ समझ गये होंगे आप, ये 1863 में 12 जनवरी को कोलकाता में जन्मे स्वामी विवेकानंद के विचार हैं, जिन्हें उनकी अनूठी आध्यात्मिकता के साथ धर्म, सभ्यता, संस्कृति, समाज व राष्ट्र की बाबत अप्रतिम दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है.
जब भी उनकी चर्चा होती है, सबसे पहले यही याद किया जाता है कि 1893 में शिकागो में संपन्न हुई विश्व धर्म संसद में ‘अमेरिकावासी बहनों और भाइयों’ के संबोधन से तालियों की गड़गड़ाहट के बीच शुरू हुए अपने भाषण में, अपने स्नेह व सौहार्दभरे स्वागत के लिए भावविह्वल कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता व सार्वभौम स्वीकृति की शिक्षा दी. साथ ही, इस पृथ्वी के समस्त धर्मों व तमाम देशों के उत्पीड़ितों व शरणार्थियों को आश्रय दिया और सभी धर्मों को अलग-अलग रास्तों से एक ही ईश्वर तक पहुंचने का माध्यम माना.’ इस भाषण में जहां उन्होंने मनुष्य मात्र को इस पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुके सांप्रदायिकता, कट्टरता और धर्मांधता जैसे तत्वों के विरुद्ध आगाह किया, वहीं उस सिलसिले को रोकने पर जोर दिया था, जिसके तहत ये तत्व पृथ्वी को हिंसा से भरते, मनुष्यता को रक्त से नहलाते और सभ्यताओं को ध्वस्त करते हुए देशों को निराशा के गर्त में डालते आये हैं.
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोम्यां रोलां ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित अपनी कृति ‘लाइफ ऑफ विवेकानंद’ में लिखा है कि चूंकि वे पर उपदेश कुशल नहीं थे, इसलिए शक्ति अर्जित करने का उनका आह्वान भी महज दूसरों के लिए नहीं था. उन्होंने स्वयं के शरीर को भी किसी पहलवान की तरह मजबूत व शक्तिशाली बना रखा था. यह तब था जब उनके निकट शक्ति का अर्जन महज शारीरिक शक्ति के अर्जन का पर्याय नहीं था. उसमें आध्यात्मिक व मानसिक शक्तियों का अर्जन भी शामिल था, जिसका उनके निकट सबसे अच्छा तरीका यह था कि हम ब्रह्मांड की सारी शक्तियों को अपनी मानें, न कि पहले अपनी आंखों पर हाथ रख लें, फिर रोएं कि कितना अंधकार है. यह सुविदित तथ्य है कि उनके दौर में लंबी दासता के कारण देश खस्ताहाल हो चुका था, और निशक्त व गरीब हाशिये पर डाल दिये गये थे. इन निशक्तों व गरीबों को उबारने के लिए उन्होंने उनकी निस्वार्थ सेवा का ‘दरिद्रनारायण सिद्धांत’ प्रतिपादित किया और कहा था कि दरिद्रनारायण की सेवा भगवान की सेवा जितनी ही महत्वपूर्ण और पवित्र है. विश्व धर्म संसद में भी उन्होंने भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देने को उसका अपमान बताया और कहा था कि भूखों को धर्म से ज्यादा रोटी की जरूरत होती है.
एक बार उन्होंने कहा था, ‘जब तक मेरे देश में कोई भी व्यक्ति भूखा है, तब तक मेरे लिए उसके लिए अन्न की व्यवस्था करना, उसे अच्छी तरह संभालना, यही सबसे बड़ा धर्म एवं पुण्यकर्म है. इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह मिथ्या या ढकोसला है. जो लोग भूखे हों, जिनका पेट न भरा हो, उनके सम्मुख धर्म का उपदेश देना मात्र केवल दंभ है. पहले उनके लिए अन्न की व्यवस्था करने का प्रयत्न करना चाहिए.’ वे लोगों को जीवन का जो मार्ग बताते थे, उसके आड़े आने वाली समस्याओं से भी सावधान करते थे. कहते थे कि किसी दिन जब आपके सामने कोई समस्या न आये, आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि गलत मार्ग पर चल रहे हैं. उनका कहना था कि बाहरी स्वभाव व्यक्ति के अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप भर होता है, इसलिए उसे सब कुछ अपने अंदर से सीखना चाहिए, क्योंकि आत्मा से अच्छा कोई शिक्षक नहीं है और उसके अतिरिक्त उसे कोई भी कुछ नहीं पढ़ा सकता, न आध्यात्मिक बना सकता है, न आत्मविश्वासी. उनका यह भी कहना था कि सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है और प्रेरणा कहीं से भी ली जा सकती है.
उनको बचपन से खाने व खिलाने दोनों का शौक था. उनकी एक जीवनी का नाम भी ‘स्वामी विवेकानंद द फीस्टिंग, फास्टिंग मोंक’ (दावत और उपवास वाले संत) है. अफसोस की बात है कि उन्हें लंबा जीवन नहीं मिला. महज 39 वर्ष की उम्र में ही उन्हें इस संसार को अलविदा कहना पड़ा. पर उन्हें जितना भी जीवन मिला, उन्होंने उसका एक पल भी प्रमाद में नहीं गंवाया. चार जुलाई, 1902 को जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने ध्यान की अपनी दिनचर्या नहीं बदली और ध्यानावस्था के दौरान ही महासमाधि ले ली थी.