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Trial Period Movie Review:प्रीडिक्टबल स्क्रीनप्ले ट्रायल पीरियड के अलहदा कांसेप्ट के साथ नहीं कर पाया है न्याय

Trial Period Movie Review: यह कल्पना करना मुश्किल है कि बचपन में माता-पिता में से किसी एक को खोना कितना दर्दनाक हो सकता है. फिल्म एक अकेली मां के बारे में हैं, जो अपने बेटे के लिए परीक्षण अवधि के दौरान 'नए पापा' की तलाश कर रही है.

फ़िल्म – ट्रायल पीरियड

निर्देशक – अलेया सेन

कलाकार – जेनेलिया देशमुख,मानव कौल,स्वरूपा घोष, शीबा चड्ढा,गजराज राव,शक्ति कपूर और अन्य

प्लेटफार्म – जिओ सिनेमा

रेटिंग -ढाई

Trial Period Movie Review: नए प्रयोग के तहत लीग से हटकर कहानियां कही जा रही हैं. ट्रायल पीरियड भी लीग से हटकर कहानी है, रिश्ते हमेशा खून से नहीं बनते हैं, इसके लिए भावनाओं की जरूरत होती हैं, लेकिन इस खास कांसेप्ट वाली कहानी के साथ फिल्म का प्रीडिक्टबल स्क्रीनप्ले न्याय नहीं कर पाया है. जिस वजह से एक बार देखी जा सके फिल्म बनकर रह जाती है.

किराये पर पिता लेने की है कहानी

सिंगल मदर एना (जेनेलिया देशमुख)अपने बेटे रोमी (जिदान) के साथ जिंदगी को बैलेंस करने में बिजी है. इसी बीच बेटा अपने पिता के बारे में सवालों को पूछना शुरू कर देता है, क्योंकि स्कूल में दूसरे बच्चे इसके लिए उसका मज़ाक बना रहे हैं. टीवीएस की ऑनलाइन शॉपिंग में हर सामान 30 दिन के ट्रायल पीरियड पर मुहैया होता देख रोमी को लगता है कि पापा भी ट्रायल पीरियड पर मिलते हैं. वह जिद पर अड़ जाता है. एना को जब यह बात मालूम पडती है, तो वह एक तरीका निकालती है. वह किराये के पति का इंतजाम करती है और कहानी में प्रजापति द्विवेदी (मानव कौल) की एंट्री होती है. बेरोजगार प्रजापति को काम की तलाश है. एना की शर्त होती है कि प्रजापति को रोमी के साथ अच्छे से पेश आना नहीं है, ताकि ट्रायल पीरियड खत्म होने के बाद रोमी अपने पिता के बारे में ना सोचें, लेकिन तीस दिनों में कहानी अलग ही मोड़ ले लेती है. यही आगे की कहानी है.

फिल्म की खूबियां और खामियां

खूबियों की बात करें तो फिल्म की कहानी लीक से हटकर है और फिल्म में मनोरंजन का हल्का फुल्का मसाला भी है. जो फिल्म के दौरान गुदगुदाता रहता है. खामियों की बात करें तो फिल्म की कहानी कांसेप्ट के लेवल पर जितनी रोमांचक लगती है.वह परदे पर उस तरह का रोमांच नहीं ला पायी है. फिल्म बहुत ही ज़्यादा प्रेडिकटेबल है. क्लाइमैक्स आसानी से समझ आ जाता है. मां और बेटे के बीच भावनात्मक दृश्य की कमी खलती है. मानव कौल और जेनेलिया के किरदार अचानक से प्यार में पड़े नज़र आते है. यह बात भी अखरती है.बीच-बीच में कहानी ट्रैक से हटने लगने लगती है. जहां आपको लगता है कि कहानी में थोड़ा इमोशन और ड्रामा की जरूरत थी.फिल्म इसके अलावा कई बार दृष्यों का दोहराव भी हुआ है. फिल्म आसानी से बीस मिनट तक कम की जा सकती थी. फिल्म का म्यूजिक औसत है. सिनेमाटोग्राफी फिल्म में ज़रूर फ्रेशनेस जोड़ती हैं.

मानव कौल और जिदान की उम्दा परफॉरमेंस

जेनेलिया अपनी भूमिका में अच्छी कोशिश करती दिखी हैं, लेकिन उनके साथ दिक्कत ये है कि अभी भी उनके चेहरे पर दर्द और गुस्से के भाव कम ही परफेक्ट तरीके से आ पाते हैं.वो परदे पर क्यूट ही दिखती हैं. मानव कौल उम्दा रहे हैं, जैसा कि उनसे उम्मीद थी.अपनी बोली से लेकर बॉडी लैंग्वेज सभी पर उन्होने काम किया है. बाल कलाकार के तौर पर जिदान याद रह जाते है. गजराज राव चित परिचित अंदाज में नजर आते है. शीबा चड्ढा और शक्ति कपूर को करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं था. बाकी के कलाकार अपनी भूमिका में जंचे हैं .

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