वंदे भारत की उपयोगिता को हम विकसित देश जापान के उदाहरण से समझ सकते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान की स्थिति बहुत खराब हो गयी थी. बदहाल जापान की सरकार और नीति-निर्माताओं ने तब एक रेल प्रोजेक्ट शुरू करने की योजना बनायी, जिसे बाद में बुलेट ट्रेन कहा गया. उन्होंने तब कहा कि यह ट्रेन देश की तस्वीर बदल देगी और आर्थिक तौर पर जापान दुनिया में शीर्ष पंक्ति में पहुंच जायेगा. और यही हुआ. वर्ष 1962 में ओसाका से टोक्यो तक जानेवाली वह ट्रेन दुनिया की सबसे तेज गति से चलनेवाली ट्रेन बन गयी. आज जापान की मदद से इसी बुलेट ट्रेन को भारत में मुंबई से अहमदाबाद तक चलाने की तैयारी हो रही है. जापान यह मानता है कि उनकी आर्थिक प्रगति इसी ट्रेन की वजह से संभव हुई.
दरअसल, विश्वभर में यह माना जाता है कि रेल की प्रगति करने से देश की प्रगति होगी. आज के समय में रेल के विकास की जरूरत हमारे अस्तित्व से भी जुड़ गयी है. धरती के तापमान को गर्म करनेवाली गैसों की वजह से विश्व पतन के मार्ग पर जा रहा है. इसलिए कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कम करने की कोशिश हो रही है. परिवहन क्षेत्र में 95 प्रतिशत प्रदूषण सड़कों पर चलनेवाले वाहनों से होता है. इसमें रेलवे का हिस्सा लगभग डेढ़ प्रतिशत होता था. अब रेल मार्गों का पूर्ण विद्युतीकरण हो चुका है और अब ट्रेनों को सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा के स्रोतों से बननेवाली बिजली से चलाने का प्रयास हो रहा है. इसे हासिल करने से कार्बन उत्सर्जन का स्तर शून्य हो जायेगा. भारत दुनिया का पहला ऐसा देश है, जिसने लगभग पूरी तरह से अपने रेलमार्गों का विद्युतीकरण कर लिया है, और बहुत जल्दी इसकी घोषणा हो जायेगी.
अमेरिका, यूरोप समेत दुनिया के कई देश भी रेलमार्गों के पूर्ण विद्युतीकरण की कोशिश कर रहे हैं, मगर उनमें अड़चनें आ-जा रही हैं. ब्रिटेन सरकार ने इस बारे में एक समिति गठित की थी, जिसने हाल ही में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पूरा प्रयास करने पर भी वह 2035 तक 90 प्रतिशत तक ही विद्युतीकरण करने में सक्षम है. दुनियाभर में प्रदूषण को कम करने के लिए सड़कों पर वाहनों की संख्या को कम करना सबसे ज्यादा जरूरी बताया जा रहा है. अभी 95 प्रतिशत उत्सर्जन सड़कों पर दौड़ते वाहनों से होता है. लेकिन, स्वतंत्रता के बाद 1950 में भारत में यात्रा और मालों के यातायात के लिए 80 प्रतिशत से ज्यादा इस्तेमाल रेल का होता था. आज की तारीख में यात्रा के लिए केवल 10 प्रतिशत, और माल वहन के लिए केवल 27 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल रेल से होता है. भारत में सड़कों की लंबाई 63 लाख किलोमीटर है.
और, रेलमार्ग की लंबाई 65 हजार किलोमीटर है. यानी सड़कों की लंबाई रेलमार्गों से लगभग 100 गुना ज्यादा है, लेकिन रेल से 27 प्रतिशत माल जा रहा है. गणना करें, तो एक रेलमार्ग 27 सड़कों के बराबर पड़ता है. वाहनों के प्रदूषण को कम करने में रेल के इसी महत्व को समझते हुए पूरी दुनिया में इनके विकास का प्रयास हो रहा है. दिल्ली में हर दिन औसतन 50 लाख लोग मेट्रो से सफर करते हैं, यदि मेट्रो नहीं होता और इन 50 लाख लोगों में से चार-चार लोग भी टैक्सियों में होते, तो सड़कों पर 12 लाख वाहन दौड़ते रहते. भारत में राष्ट्रीय रेल योजना के तहत वर्ष 2030 तक रेलमार्गों की क्षमता को इतना विकसित करने का प्रयास है, जिससे लगभग 47 प्रतिशत लोग रेल से ही यात्रा करें और मालों की ढुलाई के लिए भी रेल का ही इस्तेमाल हो.
इस अनुपात को भी वर्ष 2050 तक कायम रखने का लक्ष्य है, क्योंकि आर्थिक विकास होने के साथ-साथ यदि रेल की क्षमता का भी विकास नहीं किया जायेगा, तो यह अनुपात घटने लगेगा. भारत में अभी रेलों से 1600 मिलियन टन माल का वहन होता है. लक्ष्य को हासिल करने के लिए इसे वर्ष 2030 तक बढ़ाकर 4500 मिलियन टन करना होगा, जिसका मतलब यह है कि हर चार साल में क्षमता को दोगुना करना होगा. वर्ष 2014 में रेलों से 800 मिलियन टन का माल वहन होता था, लगभग 10 साल बाद भी हम 1600 मिलियन टन तक ही पहुंचे हैं. ऐसे में 2030 में 4500 मिलियन टन के लक्ष्य को हासिल करना बहुत बड़ी चुनौती है. लेकिन, इस दिशा में प्रयास जारी रखना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो सड़कों पर चलते वाहनों के प्रदूषण को नियंत्रित करना नामुमकिन हो जायेगा.
वंदे भारत ट्रेनों में डिजाइन से लेकर निर्माण तक का काम पूरी तरह से भारत में हो रहा है. इससे आर्थिक बचत भी हो रही है और देश आत्मनिर्भरता की ओर भी बढ़ रहा है. वंदे भारत की जिस ट्रेन को आयात करने पर 300 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते, आज देश में उसे 97 करोड़ में बनाया जा रहा है. कम कीमत पर इन गाड़ियों के निर्माण के कारण हम अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी दूसरों को मुकाबला दे रहे हैं. आगे चलकर हमें विदेशों से भी इनके ऑर्डर मिल सकते हैं और भारत इन ट्रेनों के निर्यात का भी एक केंद्र बन सकता है. भारत में अभी कुल 22,000 ट्रेनें चलती हैं, जिनमें से 9000 मालगाड़ियां और 12000 यात्री गाड़ियां हैं. सवारी गाड़ियों में से 3000 गाड़ियां पैसेंजर ट्रेन, तथा 9000 मेल या एक्सप्रेस गाड़ियां हैं.
भारत में आज की तारीख में 34 वंदे भारत रेलगाड़ियां चल रही हैं, और इस योजना के प्रथम चरण में 400 वंदे भारत ट्रेन चलाने का लक्ष्य है. वंदे भारत ट्रेनों के बारे में ऊपरी तौर पर ऐसी भी धारणा रही है कि यह अमीरों की ट्रेन है. लेकिन, वंदे भारत का लक्ष्य समानता को हासिल करना है. वंदे भारत का किराया एकबारगी जरूर ज्यादा लगता है, मगर लोग भूल जाते हैं कि भारत में अभी भी साधारण स्लीपर श्रेणी का किराया सड़कों से यात्रा के किराये का एक-तिहाई है. जैसे, रांची से हावड़ा जाने का बस का किराया लगभग 800 रुपये होता है. स्लीपर में यह किराया लगभग 300 रुपया होगा. यानी, सड़क से यात्री को अभी भी दोगुने से ज्यादा पैसे देने पड़ रहे हैं. इसी यात्रा के लिए वंदे भारत का साधारण श्रेणी का किराया लगभग 1000 रुपये है. ऐसे में समझा जा सकता है कि वंदे भारत ट्रेन को आम लोगों को ध्यान में रखकर ही चलाया जा रहा है.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)