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नीति-निर्माता भी बनें महिलाएं

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने 10 महिला मंत्री बनाये और सुषमा स्वराज को पहली महिला विदेश मंत्री और निर्मला सीतारमण को वाणिज्य मंत्रालय में राज्य मंत्री का स्वतंत्र प्रभार देकर इतिहास रचा. स्मृति ईरानी स्वतंत्रता के कैबिनेट स्तर की मानव संसाधन विकास मंत्री बननेवाली पहली महिला मंत्री बनीं.

संसद में पिछले सप्ताह एक इतिहास बना, जब 24 घंटे से भी कम समय में भारत के 63 साल पुराने संविधान में 128वें संशोधन को पास कर दिया गया. पिछले चार दशक से अधिक समय से, महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में एक तिहाई आरक्षण देने का वादा किया जाता रहा है, ताकि संख्या बल से उन्हें राजनीतिक अधिकार दिया जा सके. लेकिन अधिकार क्या बस संख्या से तय होता है? सत्ता समीकरण में महिलाओं की ताजा स्थिति से एक दुखद तस्वीर सामने आती है. जीवन के हर तबके में, राजनीति से लेकर कॉरपोरेट जगत तक में बढ़ती भागीदारी के बावजूद पुरुषों की तुलना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है. बड़े फैसले पुरुष ही करते हैं. और लोकतंत्र के तीन स्तंभों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- में पुरुषों का दबदबा है.

महिलाओं को हाशिये पर रखने का यह रवैया 1947 में कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद शुरू हुआ. भारत के सभी 14 प्रधानमंत्रियोंं ने महिलाओं को सशक्त करने के बारे में उपदेश दिये, पर उनमें से किसी ने भी अपनी महिला सहकर्मियों को कोई अहम राजनीतिक या कार्यकारी जिम्मेदारी नहीं सौंपी. हैरानी की बात है, कि उदार मत वाले जवाहरलाल नेहरू को भी पर्याप्त महिला मंत्री नहीं मिलीं. आजादी के बाद से कभी भी महिलाओं को कैबिनेट में 20 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा नहीं मिला. महिला केंद्रीय मंत्रियों की संख्या कभी भी आधे दर्जन से ज्यादा नहीं रही. यहां तक कि वाजपेयी जी की अब तक की सबसे बड़ी कैबिनेट में भी 34 मंत्रियों में महिला मंत्रियों की संख्या केवल दो थी. राजकुमारी अमृत कौर भारत की पहली महिला कैबिनेट स्तरीय मंत्री थीं. मगर अपने दूसरे कार्यकाल में नेहरू ने किसी महिला को कैबिनेट में नहीं रखा और केवल लक्ष्मी मेनन को विदेश उपमंत्री बनाया.

लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने भी पर्याप्त महिला मंत्री नहीं बनाये. वर्ष 1962 से 1967 के बीच मंत्रिपरिषद में केवल पांच महिला मंत्री रहीं और उनको भी मामूली मंत्रालय दिये गये. इंदिरा गांधी ने 1967 में जब मामूली बहुमत से सत्ता में वापसी की, तो एक भी महिला को कैबिनेट में नहीं रखा. उनकी सरकार में एक महिला राज्य मंत्री थी और दो उपमंत्री. वर्ष 1972 में तीसरी बार दो तिहाई बहुमत से सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने तीन महिला उपमंत्री का फॉर्मूला जारी रखा. वर्ष 1977 में इंंदिरा की हार के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया. मोरारजी देसाई ने केवल चार महिलाओं को राज्यमंत्री बनाया और कोई बड़ा मंत्रालय नहीं सौंपा. वर्ष 1980 में इंदिरा गांधी 350 से ज्यादा सीटें जीत सत्ता में लौटीं, लेकिन पुरुष सहकर्मियों पर उनकी निर्भरता जारी रही और उन्होंने केवल तीन महिलाओं को राज्य मंत्री बनाया जिनमें शीला कौल शामिल थींं, जो उनकी संबंधी थीं. राजीव गांधी ने इस दीवार को तोड़ने की कोशिश की, जब अपने 401 सांसदों में से उन्होंने 12 महिलाओं को मंत्री बनाया. इनमें कोई भी कैबिनेट स्तर की मंत्री नहीं थी. शीला कौल को शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया.

वर्ष 1989 से 1991 के बीच सरकार में महिलाओं की स्थिति और कमजोर हुई. सामाजिक न्याय के मसीहा कहलाने वाले वीपी सिंह और चंद्रशेखर ने भी अपनी सरकारों में महिलाओं को बहुत कम प्रतिनिधित्व दिया. वीपी सिंह ने एक महिला को राज्य मंत्री और एक को उपमंत्री बनाया. मगर यह संयोग से प्रधानमंत्री बननेवाले पीवी नरसिम्हा राव थे, जिन्होंने सबसे ज्यादा महिलाओं को मंत्री बनाया. उनकी मंत्रिपरिषद में 12 महिला मंंत्री थीं, और कैबिनेट में महिला को शामिल करनेवाले वह दूसरे प्रधानमंत्री थे. उनकी 12 महिला सहकर्मियों में, शीला कौल कैबिनेट मंत्री बननेवाली देश की दूसरी महिला थीं, 40 सालों के बाद ऐसा मौका आया था. हालांकि, राव को भी नहीं लगा कि महिलाएं वित्त, रक्षा, गृह, मानव संसाधन, वाणिज्य या वित्त जैसे मंत्रालय संभाल सकती हैं. कांग्रेस की कठपुतली एचडी देवगौड़ा और आइके गुजराल की सरकारों को तो अपने मंत्री चुनने की आजादी ही नहीं थी.

वर्ष 1998 की वाजपेयी सरकार में कैबिनेट दर्जा प्राप्त एकमात्र महिला मंत्री सुषमा स्वराज थीं. उनके दूसरे कार्यकाल में महिला मंत्रियों की संख्या बढ़कर 11 हो गयी, जिनमें से तीन कैबिनेट मंत्री थे. मगर अच्छे मंत्रालय पुरुषों के ही पास रहे. महिला आरक्षण की हिमायती होने के बावजूद 2004 में कांग्रेस की मनमोहन सिंह की सरकार में केवल दो महिला कैबिनेट मंत्री बनायी गयीं, अंबिका सोनी और मीरा कुमार, जबकि आठ महिला राज्य मंत्रियों को मामूली मंत्रालय दिये गये. मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल में 15 महिलाओं को मंत्री बनाया और पांच को कैबिनेट प्रभार दिये. पर, किसी को भी अहम मंत्रालय नहीं दिये, सिवा ममता बनर्जी के, जो रेल मंत्री रहीं. बड़ा बदलाव 2014 में आया जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने 10 महिला मंत्री बनाये और सुषमा स्वराज को पहली महिला विदेश मंत्री और निर्मला सीतारमण को वाणिज्य मंत्रालय में राज्य मंत्री का स्वतंत्र प्रभार देकर इतिहास रचा. स्मृति ईरानी स्वतंत्रता के कैबिनेट स्तर की मानव संसाधन विकास मंत्री बननेवाली पहली महिला मंत्री बनीं. मोदी ने बाद में सीतारमण को रक्षा मंत्री, फिर वित्त मंत्री बनाया. मोदी के दूसरे कार्यकाल में, कैबिनेट स्तर की दो महिला मंत्री हैं, और महिला मंत्रियों की संख्या सात है.

जहां तक राज्यों का प्रश्न है, तो 1947 के बाद से अब तक केवल 14 महिलाएं मुख्यमंत्री बनी हैं, जबकि पुरुष मुख्यमंत्रियों की संख्या 350 है. सबसे पहले कांग्रेस ने 1963 में सुचेता कृपलानी को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था. तब से कांग्रेस ने पांच और बीजेपी ने चार महिलाओं को मुख्यमंत्री बनाया है. क्षेत्रीय दलों से छह महिलाएं मुख्यमंत्री बनी हैं. आज देश में राज्यों के 36 मुख्य सचिवों में से केवल तीन महिलाएं हैं. आधे दर्जन से भी कम महिलाएं प्रदेशों में पुलिस प्रमुख रही हैं. एक भी महिला आज तक सीबीआइ, इडी, आइबी या दूसरी एजेंसियों की निदेशक नहीं बनी है. एक भी महिला चुनाव आयोग, सशस्त्र सेनाओं, सुप्रीम कोर्ट या रिजर्व बैंक के शिखर तक नहीं पहुंची है. आज तक कोई भी महिला कैबिनेट सचिव, रक्षा सचिव, गृह सचिव या वित्त सचिव नहीं बन सकी है. ऐसे में केवल विधायिकाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ाने से महिलाएं सशक्त नहीं हो जायेंगी. इसके लिए पूरे तंत्र में सोच-विचार कर नीति निर्माण का अधिकार महिलाओं के हाथों में सौंपने के बारे में संस्थागत और ढांचागत परिवर्तन करना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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