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इस्लामिक देशों का मेहमान बनकर क्या हासिल करेगा भारत?: नज़रिया

अबू धाबी में एक मार्च, 2019 को आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (ओआईसी) के विदेश मंत्रियों की परिषद के 46वें सत्र के उद्घाटन में भारत पहली बार आमंत्रित मेहमान के तौर पर शिरकत करेगा. मेज़बान संयुक्त अरब अमीरात ने भारत को आमंत्रित किया है तो उसकी कई वजहें हैं, पहली वजह तो यही है कि यह […]

अबू धाबी में एक मार्च, 2019 को आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (ओआईसी) के विदेश मंत्रियों की परिषद के 46वें सत्र के उद्घाटन में भारत पहली बार आमंत्रित मेहमान के तौर पर शिरकत करेगा.

मेज़बान संयुक्त अरब अमीरात ने भारत को आमंत्रित किया है तो उसकी कई वजहें हैं, पहली वजह तो यही है कि यह दुनिया भर में भारत के बढ़ते कद के तौर पर मिल रही मान्यता है. इसके अलावा भारत की अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपरा है और इस परंपरा में इस्लाम का घटक भी शामिल है.

संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्लाह बिन ज़ायद अल नाहयान से आमंत्रण स्वीकार करने के बाद भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा, यह दोनों देशों के बीच गहरी होती रणनीतिक समझदारी का संकेत तो है ही साथ में भारत के करीब 18.5 करोड़ मुस्लिमों का सम्मान भी है.

यह आमंत्रण, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की भारत और पाकिस्तान यात्रा के ठीक बाद आया है, माना जा रहा है कि सलमान ने भारत और पाकिस्तान के बीच बेहतर संबंधों की वकालत की है.

वैसे ये भारत के लिए बेहतरीन मौके के तौर पर आया है, क्योंकि भारत इस्लामिक मुख्यधारा वाली संस्था में पाकिस्तान की प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े कर सकता है. भारत को यह आमंत्रण संयुक्त अरब अमीरात की ओर से मिला है, लेकिन इसे आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (ओआईसी) के लिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है.

पाकिस्तान और सऊदी अरब के चलते ही ओआईसी की पहली बैठक में भारत बाहर रहा था. पहली बैठक 1969 में मोरक्को की राजधानी राबत में हुई थी. तब इसे इस्लामिक कांफ्रेंस आर्गेनाइजेशन कहा जाता था. इसके बाद से ही, दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश होने के बावजूद भारत को ओआईसी की सदस्यता नहीं मिली. पाकिस्तान इस मंच का इस्तेमाल हमेशा भारत के तीखे विरोध के लिए करता रहा है.

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इस्लामिक देशों का मेहमान बनकर क्या हासिल करेगा भारत? : नज़रिया 4
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भारत ओआईसी देशों की जम्मू कश्मीर और भारत में मुसलमानों की स्थिति पर भारत विरोधी एवं एक पक्षीय प्रस्तावों की उपेक्षा करता रहा है. हालांकि इसी दौरान पाकिस्तान को छोड़कर भारत ओआईसी के सभी सदस्यों के साथ अपने संबंध बेहतर भी करता आया और धीरे धीरे कारोबारी संबंधों को राजनीतिक संबंधों से वजनी बनाने में कामयाबी हासिल कर ली.

मोदी सरकार का बोल्ड क़दम

वैसे आने वाली बैठक में भारत की मौजूदगी से जम्मू एवं कश्मीर को लेकर ओआईसी देशों का रवैया बदल जाएगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता. 2018 में ढाका में ओआईसी विदेश मंत्रियों की बैठक में ये एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि भारत कश्मीर में ओआईसी देशों की फैक्ट फाइंडिंग मिशन के प्रवेश को मंजूरी देगा. ओआईसी देश कश्मीर को भारत अधिकृत कश्मीर कहते हैं. इस तरह की बात पहले की भी मीटिंग में होती रही थी.

इस वक्त कश्मीर में स्थिति तनाव से भरी हुई है और आम चुनाव भी दो महीने दूर हैं. ऐसे में आमंत्रण स्वीकार करना, नरेंद्र मोदी सरकार का बोल्ड क़दम माना जा सकता है.

1969 में राबत में ओआईसी मीटिंग में प्रवेश करने में भारत सफल नहीं हो पाया और उसके बाद भी इस संस्था में उसके प्रवेश को लेकर कोशिशें हुई हैं. 2003 में कतर ने ओआईसी सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक से पहले प्रस्ताव रखा था कि भारत को आब्जर्वर के तौर पर आमंत्रित किया जाए.

हालांकि सऊदी अरब ने तब इस प्रस्ताव का विरोध किया था, ये बात दूसरी है कि 2006 में सऊदी अरब ने भी ऐसा ही प्रस्ताव रखा था जब सऊदी अरब के किंग अब्दुल्लाह भारतीय गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि थे. हालांकि तब भी आगे कुछ हुआ था.

हालांकि भारत अगर आधिकारिक तौर पर आब्जर्वर बन जाता तो इससे ये संदेश भी जाता कि वह इस संस्था के सभी एकतरफ़े प्रस्तावों को स्वीकार कर रहा है. भारत ने ये देखा कि ओआईसी सदस्य देशों से उसके द्विपक्षीय संबंध प्रभावित नहीं हो रहे हैं तो उसने उन प्रस्तावों की चिंता किए बिना आपसी संबंधों को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया.

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ओआईसी सदस्य देशों में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, ओमान, मोरक्को, ट्यूनिशिया और मिस्र जैसे देशों से भारत के द्विपक्षीय कारोबार और निवेश वाले संबंध काफी बेहतर हैं. अरब खाड़ी में करबी 60 लाख भारतीय रहते हैं और काम करते हैं, जिनमें आधे सऊदी अरब में रहते हैं.

इन लोग अपने देश में जितना पैसा भेजते हैं वह भारत के सालाना बजट का करीब 40 फ़ीसदी होता है. जबकि हर साल करीब डेढ़ लाख भारतीय मुसलमान मक्का मदीना की यात्रा करते हैं. खाड़ी देशों के लिए भारत निवेश का बेहतरीन ठिकाना माना जाता है. जबकि ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इराक भारत को तेल आपूर्ति करने वाले अहम देश हैं.

क्या मिल रहा है संकेत

भारत ने सूडान, सीरिया, ओमान और क़तर में पेट्रोलियम से जुड़े वेंचरों में निवेश किया है ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को पेट्रोलियम मिलता रहे.

सीरिया और यमन के बीच जिस तरह से संघर्ष बढ़ रहा है और अरब देश जिस तरह से दो धुरी में तब्दील होते जा रहे हैं, जिसमें एक तरफ तो सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात हैं और दूसरी तरफ़ क़तर है. हालांकि भारत की नीति अरब देशों के बीच दखल नहीं देने की रही है, लेकिन माना जा रहा है कि राजनीतिक तौर पर आपसी सहयोग लगातार बढ़ रहा है.

संयुक्त अरब अमीरात के आमंत्रण के मुताबिक भारतीय विदेश मंत्री को ओआईसी के उद्घाटन संत्र में संबोधन देना है जो एक तरह से भारत के संयुक्त अरब अमीरात के साथ ही नहीं बल्कि इस्लामिक देशों के साथ संबंधों का सूचक है.

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ओआईसी देशों से भारत को जो चुनौती मिल सकती है, उसे संबोधित करने के लिहाज़ से ये भारत के सामने पहला अवसर होगा. ओआईसी के सदस्य देश कैसे काम करते हैं, इसे एक बार में बदलना तो संभव नहीं होगा लेकिन उस पर असर डाला जा सकता है.

हालांकि मोदी सरकार और भारत, दोनों के लिए ये किसी जोख़िम से कम नहीं होगा. हालांकि इसमें कामयाब होने पर यह जम्मू और कश्मीर की स्थिति और इस्लामिक देशों से भारत के रिश्ते दोनों को प्रभावित करेगा.

(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं. राजेंद्र अभ्यांकर पूर्व भारतीय राजनयिक हैं, ब्लूमिंगटन के इंडियाना यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक एंड इन्वायरनमेंटल अफेयर्स में पढ़ाते हैं. वे पुणे स्थित कंजरू सेंटर फॉर डिफेंस स्टडीज के चेयरमैन हैं. अप्रैल, 2018 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से उनकी किताब इंडियन डिप्लोमसी- बियांड स्ट्रेटजिक ऑटॉनमी प्रकाशित हुई है.)

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