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गांधी जयंती विशेष : उन्नत समाज के लिए जरूरी है सत्य-अहिंसा का गांधीसूत्र
कुमार प्रशांत गांधीवादी चिंतक करीब 75 वर्ष पहले स्वाधीनता के लिए गांधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो ‘के बुलंद नारे के साथ नयी जनचेतना पैदा की थी और इसी जनांदोलन के बूते अगले पांच वर्षों के भीतर देश के संप्रभु राष्ट्र का सपना साकार हो सका़ बापू ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां […]
कुमार प्रशांत
गांधीवादी चिंतक
करीब 75 वर्ष पहले स्वाधीनता के लिए गांधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो ‘के बुलंद नारे के साथ नयी जनचेतना पैदा की थी और इसी जनांदोलन के बूते अगले पांच वर्षों के भीतर देश के संप्रभु राष्ट्र का सपना साकार हो सका़ बापू ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां भ्रष्टाचार व गंदगी की कोई जगह न हो और समरसता जनमानस के चरित्र में हो़ लेकिन, लंबा अरसा बीतने के बावजूद देश अभी भी ऐसे तमाम सवालों के जवाब ढूंढ़ रहा है़ आत्म-मूल्यांकन के लिए गांधी जयंती से बेहतर भला क्या अवसर हो सकता है़ इस मौके पर देश के मौजूदा हालात और बापू के विचारों के बीच अंतर और समानताओं के आकलन के साथ विशेष प्रस्तुति
कॉलेज के उस हॉल में सौ के करीब युवा होंगे- हमारे देश की नयी पीढ़ी के नुमाइंदे. सभी कॉलेज वाले थे, जिन्हें मैं इस देश के युवाओं का सबसे अधिक सुविधा व अवसर प्राप्त वर्ग मानता हूं. सभी गांधी को न मानने व न चाहने वाले थे. मैंने पूछा, ‘आप सब एक-एक कारण बताएं कि आपको महात्मा गांधी से क्या परेशानी है?’
अभी तक का नकारात्मक माहौल अचानक चुप हो गया. आपस में खुसर-फुसर चल रही है, यह तो मैं देख रहा था, लेकिन कोई जवाब बन रहा हो, यह नहीं देख रहा था. कुछ ने बड़ी हिम्मत जुटा कर आधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात कही, जिसका बहुत सीधा संबंध गांधी से नहीं था. मसलन यह कि गांधीजी ने अहिंसा की बात की, जबकि हमें तो सारे भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए.
मैंने पूछा, ‘तुम गांधी की बात मानते हो क्या?’
वह तुनक कर बोला, ‘हर्गिज नहीं.’
‘तो फिर रोका किसने? गोली मार दो न.’
वह हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा. लगा, जैसे ऐसा जवाब या किसी को मार देने के बारे में ऐसी सलाह उसे कभी मिली नहीं हो, या फिर उसने कभी सोचा ही न हो कि मार डालने की जो बात वह हर सांस में बोलता है, उसे करने के बारे में वह एकदम कोरा है.
मैंने थोड़ा और इंतजार किया कि कोई मजबूत जवाब आये, लेकिन सब उलझे हुए ही दिखे. फिर मैंने ही कहा, ‘नहीं भाई, मुझे गांधी की बिल्कुल ही जरूरत नहीं है. मुझे नहीं चाहिए यह गांधी, क्योंकि मुझे पिछड़ापन नहीं चाहिए.
गरीबी और अशिक्षा को मैं तुरंत दूर करना चाहता हूं, जबकि गांधी उसी का गुणगान करते हैं. मुझेऐसा समाज चाहिए, जो तेजी से विकास करता हो. इसलिए मैं क्यों देखूं कि दूसरे का क्या हो रहा है, मुझे तो अपना देखना है. मैं ऐसा समाज चाहता हूं, जिसमें सबके पास अफरात हो, किसी चीज की कभी कमी न रहे, इसलिए मुझे यह देखना नहीं है कि पर्यावरण का क्या हो रहा है, नदियों का क्या हाल है, हमारे पास जो अफरात है, वह कहां से आता है. मुझे मेरी जरूरत का मिल जाए, मांगने से, चुराने से या कि छीनने से, तो मेरे लिए बस है. मैं दूसरे का कुछ भी छीनना नहीं चाहता हूं, तब तक, जब तक मेरी जरूरतें पूरी हो रही हैं. लेकिन मुझे दिक्कत होगी, तो मैं दूसरों को भी चैन से जीने नहीं दूंगा. गरीबों से मेरी भी हमदर्दी है, लेकिन हमदर्दी से पेट तो भरता नहीं है. इसलिए मैं जब इतना कमा लूंगा कि मेरी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं, तो फिर दूसरों की सोचूंगा.
‘मैं ऐसा भारत चाहता हूं कि जिसमें भ्रष्टाचार न हो, मिलावट न हो, गंदगी न हो और सभी एक-दूसरे की मदद करते हों, लेकिन ऐसा भारत बनाने का काम करने का अभी मेरे पास समय नहीं है. अभी तो यह काम दूसरे करें, जब मेरे पास समय होगा, तो मैं भी जरूर इस काम में सबके साथ काम करूंगा. मेरा किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है, लेकिन मेरा अपना धर्म भी तो है, जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है. इसलिए मैं जान लगा कर अपने धर्म की रक्षा करूंगा और इस रास्ते में जो आयेगा, उसकी जान का भगवान मालिक.’
हम गांधी को जानते नहीं
मैं और भी बहुत कुछ कहना चाह रहा था ताकि गांधीजी की अब हमें कोई जरूरत नहीं है, यह बात पुख्ता प्रमाणित हो कर इन युवाओं के मन में बैठ जाए. लेकिन मेरी हर बात के साथ सामने बैठे युवाओं के चेहरों पर जो उमड़ रहा था, वह था गहरे असमंजस का भाव. यह भाव इतना गहरा व साफ-साफ दिख रहा था कि मुझे रुकना पड़ा. मैंने बात बंद कर दी. अब दोनों तरफ से प्रश्नाकुल नजरें थीं. कौन बोले, ऐसा भाव था. फिर मैंने ही चुप्पी तोड़ी.
‘क्या हुआ? तुम सब मेरी तरफ ऐसी नजरों से क्यों देख रहे हो?’
चुप्पी थोड़ी लंबी खिंची. फिर एक लड़की झिझकते हुए बोली, ‘सर, आप यहां गांधीजी के बारे में बोलने आये थे न!’
‘हां,’ मैंने जल्दी से अपनी सहमति दे दी.
‘तो आप तो गांधीजी के खिलाफ ही बोल रहे हो.’
‘तो तुम लोगों ने भी तो मुझे पहले ही बता दिया था न कि तुम सब न गांधी को मानते हो, न चाहते हो.’
वह फिर बोली, ‘लेकिन इसका मतलब ऐसा थोड़े ही न हुआ कि हम गांधीजी के बारे में बुरी बात करें.’
‘लेकिन, मैंने गांधीजी के बारे में कोई बुरी बात कही ही कहां. मैं तो इतना ही कह रहा था न कि मैं अपनी जिंदगी कैसे जीना चाहता हूं और मैं अपना देश कैसा बनाना चाहता हूं.’
‘लेकिन सर,’ इस बार वह पहला अहिंसा न चाहने वाला युवक बोला, ‘हम वैसा समाज तो नहीं चाहते हैं, जैसा आप बता रहे थे.’‘तो जैसा समाज चाहते हो, वैसा बनाओ तो. बनाने लगोगे तो गांधी तुम्हारे साथ आ जायेंगे, आगे चलोगे तो तुम गांधी के साथ आ जाओगे. गांधी दूसरा कुछ नहीं है मित्रों, अपनी पसंद का समाज बनाने का नाम है.
हमें गांधी इसलिए पसंद नहीं आते हैं कि हम चाहते हैं कि समाज बनाने का काम दूसरे करें, हम उनके बनाये समाज में आराम से रहें. गांधी को यह पसंद नहीं है. वे कहते हैं कि हर किसी को अपने रहने का समाज खुद ही बनाना चाहिए, और जब तुमको बनाने की आजादी मिलेगी तो तुम वही बनाओगे जो तुम्हें पसंद है, और तब तुम देखोगे कि तुम्हारी पसंद और गांधी की पसंद में ज्यादा कोई फर्क है नहीं.’
ऐसा हाल युवाओं का ही नहीं, हम सबका है. हम मानते हैं कि गांधी हमें पसंद नहीं हैं, क्योंकि हम जानते ही नहीं हैं कि हम गांधी को जानते नहीं हैं. यह गांधी की भी और हमारी भीकमनसीबी है.
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