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भारत-अमेरिका संबंध सामरिक सहयोग नये दौर में
भारत तथा अमेरिका के बीच कूटनीतिक संबंध उत्तरोत्तर मजबूत होते दिख रहे हैं. वैश्विक और क्षेत्रीय भू-राजनीति की मौजूदा स्थिति में दोनों देशों को आपसी सहयोग बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है. चीन की आक्रामकता तथा आतंकवाद को शह देने की पाकिस्तानी नीति के विरुद्ध अमेरिका ने खुल कर भारतीय रुख का समर्थन किया […]
भारत तथा अमेरिका के बीच कूटनीतिक संबंध उत्तरोत्तर मजबूत होते दिख रहे हैं. वैश्विक और क्षेत्रीय भू-राजनीति की मौजूदा स्थिति में दोनों देशों को आपसी सहयोग बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है. चीन की आक्रामकता तथा आतंकवाद को शह देने की पाकिस्तानी नीति के विरुद्ध अमेरिका ने खुल कर भारतीय रुख का समर्थन किया है.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकारों ने भी कहा है कि अमेरिका और पाकिस्तान एक-दूसरे के उद्देश्यों को लेकर आशंकित है. बीते दो दशकों में भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक और सामरिक सहयोग लगातार बढ़ा है, पर अब भी कई तरह के पेंच फंसे हुए हैं. दोनों देशों के संबंधों के विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है संडे-इश्यू…
सबीना सिद्दीकी
वरिष्ठ पत्रकार
जिस अमेरिका-भारत रिश्ते ने पिछले ही वर्ष एक नयी उड़ान भरी थी, उसने इस वर्ष अगस्त में लॉजिस्टिक्स विनिमय करार के द्वारा सहयोग के एक अहम द्विपक्षीय दौर में प्रवेश भी पा लिया. इस करार ने एक-दूसरे की सैन्य सुविधाओं तक दोनों देशों की पहुंच के रास्ते खोल दिये. वैसे चार मूलभूत करारों में भारत के साथ संपन्न यह दूसरा समझौता था, जो अमेरिका रक्षा क्षेत्र में अपने सहयोगी देशों के साथ किया करता है.
इस शृंखला के जिस पहले करार पर भारत ने 2002 में दस्तखत किये थे, वह सैन्य सूचनाओं की सुरक्षा से संबद्ध समझौता था, जबकि नयी दिल्ली की पिछली सरकार ने यह सोचते हुए तीन करार टाल रखे थे कि वे भारत को पूरी तरह अमेरिकी शिविर का सदस्य घोषित कर देंगे.
फिलवक्त, मोदी सरकार ने भी बाकी बचे दो करारों तक पहुंचने की कोई समय सीमा सोच नहीं रखी है, जो क्रमशः संचार एवं सूचना सुरक्षा समझौता तथा भू-स्थानिक खुफिया सूचनाओं के लिए बुनियादी विनिमय एवं सहयोग समझौता है.
दरअसल, एक बेल्ट एक रोड (ओबोर) की चीनी पहल के अंतर्गत चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के निर्माण ने भारत को असहज कर दिया था. मगर आपसी सहयोग की इस समृद्ध होती शृंखला के बाद भी भारत अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों को लेकर आशंकित बना ही रहता है.
अमेरिका के लिए अहम है पाकिस्तान
अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में पड़ी दरारों के बावजूद, वास्तविकता यही है कि इस क्षेत्र में सामरिक संतुलन बनाये रखने में अपनी भौगोलिक स्थिति के बल पर पाकिस्तान की अहम भूमिका की वजह से अमेरिका को उसके साथ अपने रिश्ते कायम रखने ही पड़ेंगे.
रॉयल युनाइटेड स्टडीज इंस्टिट्यूट नामक ब्रिटिश थिंक टैंक की रिपोर्ट के अनुसार, पकिस्तान को अमेरिका की जरूरत से कहीं ज्यादा अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत है. चीन के साथ बढ़ती नजदीकियों ने पाकिस्तान को वह भरोसा भी दे रखा है, जिसके दम अमेरिका की सैन्य एवं आर्थिक सहायता पर उसकी निर्भरता अब पहले जैसी नहीं रही.
पाकिस्तान की इसी स्थिति ने अमेरिकी विदेश सचिव रेक्स टिलरसन को यह कहने को मजबूर कर दिया कि दक्षिण एशिया की दीर्घावधि स्थिरता के लिए पाकिस्तान अहम है. अमेरिकी और नाटो अधिकारियों द्वारा पाकिस्तान से यह अनुरोध करने की वजह भी यही है कि वह नयी अमेरिकी रणनीति को खुद को अलग-थलग करने की किसी कोशिश के रूप में न देखे.
अमेरिकी इरादों के प्रति भारत को असहज करनेवाली दूसरी बात यह है कि अमेरिका जहां भारत का इस्तेमाल कर चीन को अपनी हद में रखने की कोशिशें कर रहा है, वहीं वह स्वयं चीन के साथ सद्भावपूर्ण संबंध बनाये रखता है. भारत ने तो अब तक बेल्ट-रोड की चीनी पहल से दूरी बनाये रखी, पर अमेरिका स्वयं चीन का सबसे अहम आर्थिक साझीदार बना बैठा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप नवंबर में चीन के दौरे पर जा रहे हैं, पर उन दोनों के इस बढ़ते रिश्ते के दायरे से भारत को बाहर ही रखा गया है. प्रकट रूप से, यह वर्ष अमेरिकी-चीन संबंधों के लिए एक स्थिर वर्ष रहा है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग तथा ट्रंप में अच्छी आपसी समझ है और वे फोन संपर्क द्वारा नियमित रूप से विभिन्न मामलों पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते रहते हैं. उन दोनों के बीच कोई व्यापार युद्ध नहीं चल रहा और फ्लोरिडा में दोनों नेताओं की पिछली मुलाकात के बाद उनके बीच चार स्तरीय वार्ता भी तीव्र गति से प्रगतिशील है.
भारत से बढ़ती अमेरिकी अपेक्षाएं
हाल ही, अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस नयी दिल्ली पहुंचे और उन्होंने पाकिस्तान के अनुरोध पर भारत से कहा कि यह तहरीक-ए-तालिबान को अपना समर्थन सीमित कर दे. हालांकि उन्होंने चीन-पाक आर्थिक गलियारे पर भारत के नजरिये का समर्थन करते हुए यह टिप्पणी की कि यह गलियारा पाकिस्तान में भारत की विवादित भूमि होकर गुजरता है.
पर अंततः भारत अपने ही पड़ोस में खुद को कुछ इस तरह अकेला कर दिया गया महसूस करता है कि वह ईरान के साथ ऊर्जा समझौते की दिशा में भी कोई प्रगति नहीं कर सकता.
इसी बीच, ट्रंप की यह इच्छा है कि अमेरिका के साथ अपने व्यापारिक तथा आर्थिक संबंधों में भारत अधिक संतुलन लाये. हाल ही उन्होंने यह कह कर चौंकाया भी कि भारत अफगानिस्तान में अपने खर्चे बढ़ाने और अमेरिका के साथ 24 अरब डॉलर का अपना व्यापार घाटा कम करने की दिशा में आगे बढ़ सकता है.
उनके शब्द थे: ‘हम अफगानिस्तान की स्थिरता में भारत के अहम योगदान की सराहना करते हैं. मगर अमेरिका के साथ भारत अपने व्यापार से अरबों डॉलर कमाता है, सो हम यह चाहेंगे कि वह अफगानिस्तान में खासकर आर्थिक सहायता तथा विकास के क्षेत्र में हमारी मदद को आगे आये.’
भारत की हिचकिचाहट
ऐसी स्थिति में पूरी तरह भ्रमित भारत ने इस कथन की अनदेखी कर ऐसा दिखावा किया मानो कुछ हुआ ही न हो. भारत के इस नजरिये का जिक्र करते हुए पूर्व विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने पूछा भी कि ‘भारत तथा अमेरिका के लिए अफगानिस्तान चाहे कितना भी अहम हो, सबसे कम प्रासंगिक मुद्दा क्या पैसा ही है?’ अफगानिस्तान के संदर्भ में अपनी भौगोलिक बाधाओं की वजह से भारत सामरिक आपूर्तियों के मामले में तो मजबूर है, मगर वह आर्थिक योगदान तो कर ही सकता है.
भले ही अमेरिका को 12.5 अरब डॉलर के वार्षिक व्यय के रूप में इस संघर्ष की भारी कीमत चुकानी पड़ रही हो, पर उसने अफगानिस्तान में एक अनिश्चितकालीन लड़ाई जारी रखने की योजना बना रखी है, जिसमें भारत ने भी काफी दूर तक साथ चलने की वचनबद्धता व्यक्त की है.
इन सबके नतीजे में, भारत-अमेरिकी सामरिक साझीदारी को लेकर भारत में अभी संशय बरकरार है. अब तक भी भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य नहीं बन सका है. अमेरिका लगातार इस कोशिश में लगा है कि भारत अपने परमाण्विक शस्त्रागार में कमी लाये, जबकि उसने भारत को अपनी उन्नत रक्षा प्रौद्योगिकियों के स्थानांतरण रोक रखे हैं. रक्षा सहयोग के हर सोपान पर भारत करारों पर हस्ताक्षर करता नहीं जा सकता, क्योंकि उसे अपनी छवि की भी चिंता है.
इस बीच, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के तौर-तरीके को लेकर मतभेद की वजह से भी अड़चन आ पड़ी है. मसलन, इस हस्तांतरण के बाद भी, प्रशिक्षण, रखरखाव, तथा केंद्रीय रक्षा प्रौद्योगिकियों पर नियंत्रण के द्वारा अमेरिका अपना प्रभाव बरकरार रखना चाहता है, जबकि भारत का जोर सैन्य प्रौद्योगिकियों के पूर्ण हस्तांतरण पर रहता आया है.
(एशिया टाइम्स से साभार, अनुवाद: विजय नंदन)
उतार-चढ़ाव से भरे रहे हैं दोनों देशों के रिश्ते
– 1998 में एनडीए सरकार के गठन के कुछ समय बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा पोखरण में परमाणु परीक्षण किये जाने से बौखलाये अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगा दिये थे. इन प्रतिबंधों में भारत को मिलनेवाले सैन्य आर्थिक मदद, अमेरिकी बैंकों से राज्य संचालित भारतीय कंपनी और भारत सरकार को मिलनेवाले ऋण, अमेरिकी एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी और यूरेनियम निर्यात आदि शामिल था. परीक्षण के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा लाये गये प्रस्ताव के पक्ष में भी अमेरिका ने मत दिया था.
– 2002 में दोनों देशों के बीच पहली बार सैन्य खुफिया जानकारी को साझा करने के लिए जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इन्फॉर्मेशन एग्रीमेंट का साइन किया गया. भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग की दिशा में यह पहला कदम था.
– 2004 में साझा मूल्यों और भू-राजनैतिक हितों पर आधारित रणनीतिक भागीदारी की शुरुआत हुई.
– 2005 में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग के लिए 10 वर्षीय रक्षा फ्रेमवर्क समझौता हुआ. इस वर्ष हवाई सफर के माध्यम से व्यापार, पर्यटन और व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए दोनों देशों के बीच ओपेन स्काइज एग्रीमेंट हुआ.
– 2006 में यूएस कांग्रेस ने हेनरी जे हायडे यूएस-इंडिया पीसफुल एटॉमिक काे-ऑपरेशन एक्ट पारित किया, जिससे अमेरिका और भारत के बीच प्रत्यक्ष परमाणु नागरिक व्यापार को अनुमति मिल गयी.
– 10 अक्तूबर, 2008 को दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण परमाणु सहयोग के लिए द्विपक्षीय समझौता हुआ.
– 20 अगस्त, 2016 को जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इन्फॉर्मेशन एग्रीमेंट का दूसरा एग्रीमेंट लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमाेरैंडम ऑफ एग्रीमेंट साइन किया गया. इसके तहत दोनों देशों की सेना पुन: अापूर्ति या रख-रखाव के लिए एक-दूसरे के सैन्य अड्डे का इस्तेमाल कर सकती है.
क्यों महत्वपूर्ण है अफगानिस्तान में भारत की भूमिका
भारत-अफगानिस्तान के बीच सदियों से मधुर संबंध रहे हैं और यही कारण है कि कदम-कदम पर भारत अफगानिस्तान की मदद करता रहा है और आज भी वह उसके विकास के लिए प्रतिबद्ध है.
– वर्ष 2002 से अब तक अफगानिस्तान के विकास के लिए यहां अनेक परियोजनाओं के निर्माण हेतु भारत तीन अरब डॉलर की राशि व्यय कर चुका है.
– भारत अभी तक अफगानिस्तान को रूस निर्मित चार मिग-25 हेलिकॉप्टर दे चुका है.
– अफगान के थलसेना अधिकारियों और जवानों को पिछले चार सालों से भारत प्रशिक्षण दे रहा है. वर्तमान में 200 अफगानी सैन्य बल, जिनमें 130 कैडेट और 30 से 40 अधिकारी शामिल हैं, भारतीय सैन्य अकादमी में प्रशिक्षण ले रहे हैं.
अफगान पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण की योजना
अब भारत की योजना अफगान पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण देने की है. दिल्ली में सामरिक भागीदारी परिषद् की बैठक में भारत-अफगानिस्तान के बीच सुरक्षा सहयोग बढ़ाने संबंधी इस प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी. इससे पहले भारत ने पहली बार 2011 में पहली बार पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण लेने का प्रस्ताव अफगानिस्तान को दिया था. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम भी इस प्रस्ताव को समर्थन देने पर सहमत है.
इस संबंध में भारत में अफगानिस्तान के राजदूत का कहना है कि आतंक और नशे के खिलाफ लड़ाई में भारत का ज्ञान और अनुभव उसके बहुत काम आयेगा.
अफगानिस्तान के साथ भारत के दोस्ताना संबंधों को देखते हुए ही दक्षिण एशिया के इस देश के लिए अपनी नयी नीतियों की घोषणा करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि अफगानिस्तान में विकास परियोजनाओं के निर्माण में भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी.
हामिद करजई ने भारत को दी सलाह
अफगानिस्तान के विकास में भारत की भूमिका को अमेरिका द्वारा रेखांकित किया जाना अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई को नागवार गुजरा है. इस संबंध में उन्होंनेे कहा कि भारत को अमेरिकी दृष्टिकोण को परे रखकर दोनों देशों के साझा हितों के मद्देनजर स्वतंत्र दृष्टिकोण के साथ अफगानिस्तान की मदद करनी चाहिए.
करजई ने आगे कहा कि भारत अफगानिस्तान का दोस्त, सहयोगी और परंपरागत सांस्कृतिक दोस्त हैं. भारत ने इस देश में अपनी सेना तैनात करने से मना कर दिया है, लेकिन वह हमें विकास और चिकित्सीय सहायता देना जारी रखेगा.
बदली अमेरिकी नीति पर अफगानिस्तान का पक्ष
अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका की नयी नीति के बारे में अफगानिस्तान के प्रमुख कार्यकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला का कहना है कि अमेरिका की नीति भारत-अमेरिका-अफगानिस्तान के सुरक्षा और विकास कार्यक्रमों के बीच आपसी सहयोग का अवसर प्रदान करेगी.
संबंधों के विभिन्न आयाम
सेनाओं के बीच सुविधाओं के साझा इस्तेमाल को प्रभावी बनने के लिए ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ पर द्विपक्षीय हस्ताक्षर के साथ ही भारत-अमेरिका संबंध नये दौर में प्रवेश कर गया. हालांकि, वर्ष 2002 से ही दोनों देश रक्षा सहयोग पर आपसी भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं. वर्ष 2002 में भारत ने जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इन्फॉरमेशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया था, जो कि रक्षा सहयोगी देशों के साथ अमेरिका द्वारा किया जानेवाला एक महत्वपूर्ण एग्रीमेंट माना जाता है.
रक्षा सहयोग के लिए दो और समझौते!
अमेरिका अपने रक्षा सहयोगी देशों के साथ मुख्य रूप से चार अहम समझौतों पर हस्ताक्षर करता है. इनमें से भारत के साथ दो समझौते पर हस्ताक्षर हो चुके हैं, शेष अन्य दो समझौते कब होंगे, फिलहाल इसके लिए कोई सीमा तय नहीं की गयी है. संभव है कि निकट भविष्य में दोनों देश कम्युनिकेशन एंड इन्फॉरमेशन सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट और बेसिक एक्सचेंज एंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट फॉर जियोस्पेटियल इंटेलीजेंस समझौते पर सहमत होंगे.
सामरिक संतुलन पर अमेरिका का जोर
भले ही यह माना जा रहा हो कि अमेरिका-पाकिस्तान संबंध अब तक के सबसे नाजुक दौर में पहुंच चुका है, लेकिन यह पूरी सच्चाई नहीं है. पाकिस्तान की भू-राजनीतिक स्थिति की अहमियत अमेरिका भलीभांति जानता है.
इसलिए वह किसी भी प्रकार की परेशानी मोल नहीं लेना चाहता. यही वजह है कि अमेरिका का पहला लक्ष्य सामरिक संतुलन बनाने का है. ब्रिटिश थिंक टैंक रॉयल यूनाइटेड स्टडीज इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक, इस्लामाबाद की वाशिंगटन की जरूरत से अधिक वाशिंगटन को इस्लामाबाद की जरूरत है.
चीनी सक्रियता अमेरिका के लिए सिरदर्दी
पाकिस्तान और चीन के बीच बढ़ती सामरिक साझेदारी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को कमतर करेगी. पाकिस्तान को चीन द्वारा दी जानेवाली किसी भी प्रकार की सैन्य और आर्थिक मदद इस क्षेत्र में अमेरिका की भूमिका को सीमित कर सकती है. यही वजह है कि अमेरिका बार-बार पाकिस्तान की हरकतों के बावजूद दक्षिण एशिया में शांति बहाली के लिए पाकिस्तानी सहयोग की दुहाई देता रहा है.
ओबीओआर पर भारतीय पक्ष का समर्थन
चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीइसी) पर भारतीय विरोध का समर्थन करते हुए ट्रंप प्रशासन ने कहा कि किसी भी देश द्वारा विवादित क्षेत्र में दाखिल होने को सही नहीं ठहराया जा सकता. विवादित पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरनेवाले सीपीइसी पर विरोध दर्ज कराते हुए भारत ने गत मई माह में चीन द्वारा आयोजित बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया था. मैटिस ने कहा कि वैश्वीकृत दुनिया में तमाम प्रकार के बेल्ट और रोड्स हैं, लेकिन इसके लिए किसी देश को विवादित क्षेत्र में दाखिल होने की छूट नहीं दी जा सकती.
स्थिरता के लिए भारत महत्वपूर्ण : जेम्स मैटिस
अमेरिका के रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने कहा कि भारत-अमेरिका पारस्परिक संबंधों को मजबूत करने और व्यावहारिक वास्तविकताओं की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. दक्षिण एशियाई क्षेत्र की शांति में भारत की भूमिकाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि दोनों देश विभिन्न योजनाओं पर काम कर रहे हैं. हालिया दौरे पर उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात कर विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की थी.
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