फैजान मुस्तफा, वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के चार वरीय जजों द्वारा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) द्वारा इस सर्वोच्च अदालत की कार्यप्रणाली के संचालन पर सवाल खड़े करने से देश की न्यायपालिका के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है. यहां यह ज्ञातव्य है कि सीजेआई के अलावा इन्हीं चार वरीय जजों को मिलाकर सुप्रीम कोर्ट का वह कॉलेजियम गठित होता है, जो देश के हाइकोर्टों तथा सुप्रीम कोर्ट में जजों की बहाली और उनके तबादले किया करता है. इस घटना से अब इस कॉलेजियम की फूट ही सामने आ गयी है, जिसके नतीजतन देश की वरीय अदालतों में जजों की नियुक्तियां तथा उनके तबादले खटाई में पड़ जाने की आशंका हो चली है.
पर ऐसा भी नहीं है कि यह सुप्रीम कोर्ट को लेकर उठा एकमात्र संकट है. इस अदालत ने इससे पहले भी कई संकट झेले हैं. यह एक अलग बात है कि पहले के ये संकट अदालत बनाम सरकार के स्वरूप में थे. 1967 के गोलकनाथ मामले में इस अदालत ने पांच जजों के विरुद्ध छह जजों के बहुमत से अपनी सर्वोच्च सत्ता पर जोर देते हुए देश की संसद द्वारा संविधान तथा नागरिकों के मौलिक अधिकारों में कोई संशोधन कर पाने की शक्ति को सीमित करते हुए यह फैसला दिया था कि संसद संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ में कोई फेरबदल नहीं कर सकती.
मगर इस बार का यह संकट जजों और सीजेआई के बीच का है, जिससे स्वयं सुप्रीम कोर्ट के भीतर ही मतभेद का धुआं उठता दिखा. इसमें कोई शक नहीं कि इस घटना ने देश की इस सर्वोच्च अदालत में जनता के विश्वास की चूलें हिला दी हैं, जिसे एक बार फिर से स्थापित होने में काफी वक्त लगेगा. चार जजों ने जो कुछ किया, यह देश के न्यायिक इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है, जिसके समर्थन तथा विरोध में दमदार दलीलें दी जा रही हैं.
बातों-बातों में दिये कई संकेत
हालांकि इन चारों को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इस कॉन्फ्रेंस में ज्यादा कुछ साफ नहीं कर कई बातें संकेतों में कहीं और इसे न्यायिक इतिहास की एक ‘असाधारण’ घटना स्वीकार किया. उन्होंने आगे यह कहा कि हम परिस्थितियों के दबाव से जनता के सामने आने को बाध्य हुए, ताकि ‘राष्ट्र का ऋण’ चुका सकें, क्योंकि इस सर्वोच्च न्यायपालिका की विश्वसनीयता दांव पर लगी है. उन्होंने बार-बार यह कहा कि हम इसका ‘राजनीतीकरण’ करना नहीं चाहते और हम सीजेआई के विरुद्ध कोई कार्रवाई भी नहीं चाहते. उन्होंने सिर्फ अपनी बातों के संबंध में सीजेआई को हाल ही लिखे सात पन्नों का एक पत्र सार्वजनिक किया.
अलबत्ता, उन्होंने इतना जरूर कहा कि सुप्रीम कोर्ट के प्रशासन को लेकर सब कुछ सही नहीं है. ‘हमने इस संबंध में सीजेआई को अपनी चिंताओं से अवगत करा दिया और अपने अधिकार के सारे उपाय आजमा लिये, ताकि वे इन शिकायतों को संबोधित कर सकें. मगर हमारी कोशिशें नाकाम रहीं, जिसके परिणामस्वरूप हम अनिच्छापूर्वक अपनी पीड़ा एवं निराशाएं अंतिम संप्रभु, जनता से साझा करने को बाध्य हुए.’
अदालत की आजादी से ही जीवित रहेगा लोकतंत्र
आगे उन्होंने यह भी कहा कि हम इस बात को लेकर निश्चित हैं कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता तथा निष्ठा सुरक्षित नहीं रहती, लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता, क्योंकि एक स्वतंत्र न्यायपालिका ही सफल लोकतंत्र की निशानी है. उन्होंने अपनी शिकायतों को लेकर जनता के सामने आने के इस अजीबो-गरीब कृत्य का बचाव करते हुए यह भी कहा कि हमने ऐसा इसलिए किया कि ‘बुद्धिमान लोगों’ की भावी पीढ़ियां हम पर यह आरोप न लगा सकें कि हमने मौके के अनुरूप कुछ न किया. उन्होंने यह दावा भी किया कि ‘हमने अपनी आत्माएं नहीं बेची हैं.’
बगैर किसी तफसील में गये उन्होंने बार-बार एक ‘खास मामले’ और उस ‘खास तौर-तरीके’ की चर्चा की, जिससे उसका निबटारा किया गया. दरअसल, शुक्रवार से ही सुप्रीम कोर्ट को सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के विवादास्पद मामले की सुनवाई करनी थी, जिसे किसी वरीय जजों की उपेक्षा कर अपेक्षाकृत कनीय जज को सौंप दिया गया था. ऐसा लगता है कि ये चारों जज उसी मामले का हवाला दे रहे थे. शुक्रवार सुबह इन वरीय जजों ने इस मामले को लेकर सीजेआई से मुलाकात भी की थी, जिसका अपेक्षित परिणाम न मिलने पर निराशा अथवा एक फौरी प्रतिक्रिया के तहत उन्होंने अदालत के एक कामकाजी दिन अपने नियमित न्यायिक कार्यों को छोड़कर यह कदम उठा लिया. इस घटना के बाद, इसी दिन इस मामले की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने जस्टिस लोया की पोस्टमोर्टम रिपोर्ट की मांग कर एक तरह से इस विवाद पर एक उचित कार्रवाई ही की.
स्थापित परंपराओं के हनन का आरोप
चारों जजों ने सीजेआइ को भेजे अपने पत्र में विभिन्न मामले की सुनवाई के लिए जजों की नामावली तय करने के सीजेआई के अधिकार को स्वीकार करते हुए यह कहा कि इस हेतु कुछ स्थापित परंपराएं हैं, कुछ संवेदनशील मामलों की हालिया सुनवाई में जिनका अनुपालन नहीं किया गया है. उन्होंने आगे लिखा कि सीजेआई के इस अधिकार का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें अपने सहकर्मी जजों पर कोई वरीय सत्तात्मक अधिकार प्राप्त है. सीजेआई समान सहकर्मियों में सिर्फ अव्वल हैं, इससे ज्यादा या इससे कम कुछ भी नहीं. पर इस पत्र का सबसे अधिक घातक बयान यह है कि ‘ऐसे उदाहरण हैं, जब राष्ट्र तथा इस संस्थान के लिए दूरगामी नतीजोंवाले मामले सीजेआई द्वारा अतार्किक रूप से ‘उनकी पसंदीदा’ पीठों को सौंपे गये हैं.
इसी तरह, जजों की नियुक्ति हेतु प्रक्रिया प्रपत्र को अंतिम रूप दिये जाने के संबंध में हो रहे विलंब पर दो जजों की पीठ द्वारा दिये गये आदेश का हवाला देते हुए चारों जजों ने कहा कि इस मामले को उसी संविधान पीठ को सौंपा जाना चाहिए था, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के मामले की सुनवाई की थी. ये चारों जज इस मामले पर सरकार की चुप्पी को इस प्रपत्र की स्वीकृति का सूचक मानकर एक दिलचस्प निष्कर्ष तक पहुंच गये, जाहिर है जिससे सरकार की सहमति कतई नहीं होगी.
इन जजों को यह महसूस करना चाहिए था कि उनके द्वारा छेड़ा यह विवाद न्यायिक नियुक्तियों में सरकार को और अधिक हस्तक्षेप के मौके देगा और यह भी संभव है कि वह एनजेएसी के एक नये संस्करण के साथ सामने आये. केवल वक्त ही यह बतायेगा कि यह कदम उठाकर इन जजों ने न्यायपालिका का भला किया है या बुरा.
(अनुवाद: विजय नंदन)