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होली के दिन दिल मिल जाते हैं
IIज्योत्सना मिश्राII docjyotsna1@gmail.com होली एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें परंपरागत रूप से स्त्रियों को रास-रंग की उन्मुक्तता और खुलेपन की छूट मिलती रही है. हमारे लोकगीत भी इस बात की पुष्टि करते हैं. इस दौरान स्त्रियां मन की तमाम ग्रंथियों को दरकिनार कर खुशियों का आस्वादन करती हैं. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी खुद को कभी […]
IIज्योत्सना मिश्राII
docjyotsna1@gmail.com
होली एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें परंपरागत रूप से स्त्रियों को रास-रंग की उन्मुक्तता और खुलेपन की छूट मिलती रही है. हमारे लोकगीत भी इस बात की पुष्टि करते हैं. इस दौरान स्त्रियां मन की तमाम ग्रंथियों को दरकिनार कर खुशियों का आस्वादन करती हैं. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी खुद को कभी यूं खुला छोड़ देना मन की ग्रंथियों के लिए उपचार की तरह है. होली की ये बेबाकी और गर्मजोश बाकी बचे साल को प्राणवायु दे जाता है.
एक बार फिर फागुन लौट आया है. पलाश की मद्धम आंच में सुलगता, आम्र मंजरियों की गंध से महकता वसंत अपने चरम पर है. महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत का वर्णन करते हुए लिखा है-
वृक्ष फूलों से लद गये हैं,
जल में कमल खिल गये हैं,
स्त्रियों के मन में काम जाग उठा है,
पवन सुगंध से भर गया है.
संध्यायें सुखद होने लगी हैं,
दिन अच्छे लगने लगे हैं,
प्रिये वसंत ऋतु में प्रत्येक वस्तु
पहले से अधिक सुंदर हो गयी है.
वसंत ने बावलियों के जल को,
मणियों से निर्मित मेखलाओं को,
चंद्रमा की चांदनी को,
प्रमदाओं को आम के वृक्षों को
सौभाग्य प्रदान कर दिया है….
इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने एक ही स्वर में पवन कमल जल चांदनी आम्र मंजरियों जैसे प्राकृतिक आलंबनों के साथ ही प्रमदा या स्त्री को रखा है, मानो वे कवि के रसिक मन की अतृप्त कामनाओं का बिंब मात्र हो! पर क्या सचमुच स्त्री एक बिंब, एक उपमान अथवा एक उद्दीपन भर है वसंत का या वह उस भोग, आनन्द और उत्सव को मनाने का भी अधिकार रखती है?
महिलाओं की प्रत्यक्ष भागीदारिता का पर्व
लगभग सभी पर्वों पर व्रत, पूजा व तपस्या की जिम्मेदारी स्त्री ही उठाती है, पर होली शायद अकेला ऐसा त्योहार है जिसमें वह उत्सव की भागीदार भी होती है.
होली एक तरफ तो नवान्न पर्व (नये अन्न का पर्व) होता है, वहीं दूसरी ओर घर की अन्नपूर्णा और उसकी रसोई से भी जुड़ा है. कई दिनों पहले से ही गृहिणी के हाथों से बरसते अमृत की खुशबू घर के बाहर तक छलकने लगती है. कहीं गलचौर के बीच पापड़-बड़ियां सूख रहे होते हैं, तो कहीं बतकुच्चन के साथ शकरपारे, कचौड़ी, मठरियां और गुझिया छन रही होती हैं.
भारत, खासकर उत्तर भारत की महिलाओं के अंदर का कलाकार इन दिनों पूरे शबाब पर होता है. पाक कला ही नहीं, घर की सफाई, लिपाई, पुताई से लेकर रंगोली, भीत्ति चित्रों तक की सजावट तक में महिलाओं की रचनात्मकता का पुट अपने बेहतरीन स्वरूप में शामिल होता है. गांव के साथ-साथ शहरों में भी काफी पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं. उपले-कंडे बनाने और सुखाने का काम होने लगता है. फाल्गुन माह की पूर्णमासी को फिर पुनर्जीवित होती थी होलिका और प्रह्लाद की कहानी.
नमन है होलिका मइया!
होलिका, एक स्त्री होने के साथ ही एक बुआ भी थी. वह अपने प्रिय भतीजे को गोद में लेकर जलती अग्नि कुंड पर बैठी थी. यह उस भतीजे की मृत्यु का उद्यम है, जिसके लिए बुआ राष्ट्रहित में कारण बनने के लिए कर्तव्यनिष्ठता से तत्पर है. जरा सोचते हैं इस स्त्री के विषय में… कितनी समर्थ, कितनी मजबूत होगी वह स्त्री, जिसे उसका सम्राट भाई अपने ही बेटे का वध करने के लिए या यूं कहें अपने ही बेटे से हार कर मदद के लिये पुकारता है.
उसे अग्नि का भय नहीं था या उसने अग्नि को वश में कर रखा था या इस सामर्थ्य को उसकी तपस्या का फल कहें, तो भी नमन है. अगर यह सोचें कि उसने अग्नि से बचाव की कोई तकनीक विकसित की हुई थी, तब भी वह आदर की पात्र हैं. अंतत: होलिका भस्म हाे गयी. प्रह्लाद की भक्ति और विश्वास ने उसे बचा लिया, पर क्या सचमुच होलिका हार गयी? किंवदंती तो यह भी है कि बुआ की ममता भतीजे के लिए अपार थी.
कहीं ऐसा तो नहीं कि एक नागरिक के रूप में अपने सामर्थ्य को राजहित में प्रयोग करने की कर्तव्यनिष्ठा ने एक बुआ को भतीजे की मृत्यु का आवाह्रन करने पर विवश कर दिया, किंतु उन्हीं पलो में ममता जीत गयी और अभय का दुशाला होलिका के कंधों से प्रह्लाद के सिर पर उठ गया?
फागुन में बाबा देवर लागे!
सुना तो होगा ही कि ‘फागुन में बाबा देवर लागे… !!’
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये, तो भी खुद को कभी यूं खुला छोड़ देना मन की ग्रंथियों के लिये उपचार की तरह होता है, इसलिए इन दिनों स्त्री उन्मुक्त हो उठती है.
रंगीन रसपूर्ण हो जाती है. रंगती है स्वयं को और इसी बहाने समूची सृष्टि को. ईश्वर भी कहां बचते हैं नारी के अपरिमित रंगों से भरी पिचकारी से. कृष्ण तो सखा हैं ही.. इन दिनों शिव आदि अन्य देवता भी रंग को प्रसाद समझ कर स्वीकार करते हैं. होली की ये बेबाकी और गर्मजोशी… रंगों का यह उत्सव प्राणवायु दे जाता है बाकी बचे साल को. होली के मनोविज्ञान की बात करते हुए धर्मवीर भारती जी के कालजयी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की दो स्त्री चरित्र सुधा और बिनती याद आ रही हैं.
सुधा अपने भावों को मन की तलहटी में छिपा कर रखती है. उनसे घबराती नहीं, पर उसके पास अभिव्यक्ति की सुविधा नहीं है. वहीं बिनती बेबाक है. उसके लिये अपनी भावनाएं और जरूरतें उतनी ही सहज हैं, जितने कि उसके जन्म परिवार से जुड़े संस्कार. होली काफी कुछ बिनती के चरित्र जैसा ही है. सहज… स्वीकार्य… फिर भी संस्कारित!
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