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बाहा बोंगा : प्रकृति से संसर्ग का पर्व

II चंद्रमोहन किस्कू II अध्यक्ष, जवान ओनोलिया (प्रगतिशील संताली लेखकों का अंतराष्ट्रीय संगठन) संतालों के दैनंदिन जीवनयात्रा के साथ प्रकृति का रिश्ता बहुत ही गहरा है, अपनी प्रियतमा की जैसी ही. संतालों के लिए नदी-नाला, पहाड़-पर्वत एक पूरी जीवन शैली है. जब जंगल के पेड़ों से पुराने पत्ते गिरकर नये पत्ते आते हैं, तब इनके […]

II चंद्रमोहन किस्कू II
अध्यक्ष, जवान ओनोलिया (प्रगतिशील संताली लेखकों का अंतराष्ट्रीय संगठन)
संतालों के दैनंदिन जीवनयात्रा के साथ प्रकृति का रिश्ता बहुत ही गहरा है, अपनी प्रियतमा की जैसी ही. संतालों के लिए नदी-नाला, पहाड़-पर्वत एक पूरी जीवन शैली है. जब जंगल के पेड़ों से पुराने पत्ते गिरकर नये पत्ते आते हैं, तब इनके नये साल आते है.
लताओं और पत्तियों के बीच रंगों और सुवास से समृद्ध पुष्प आवरण मानव ह्रदय में नयी आशा और ऊर्जा का सृजन करता है और तब ही संताल परंपरा के अनुसार नये साल का शुभागमन होता है.
संताल प्रकृति पर नजर बनाये रखते हैं, प्रकृति के बदलाव को देखकर ही वे पर्व मनाते हैं. सोहराय के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पर्व बाहा पर्व ही है. बाहा शब्द का शाब्दिक अर्थ पुष्प है, इस हिसाब से बाहा पोरोब या बोंगा पुष्प का उत्सव ही हुआ. पीओ बोडिंग साहब के अनुसार यह पर्व फाल्गुन महीने में ,जब चंद्रमा अपने चतुर्थांश में होता है, मनाया जाता है.
जब सखुआ में फूल खिलने लगता है, महुआ का फूल भी सुगंध बिखेरता है, तब मनाया जाता है बाहा बोंगा. सखुआ और महुआ के फूलों का बाहा बोंगा में विशेष पूजा सामग्री के रूप में उपयोग होता है. संतालों के पुरखों में लिखने-पढ़ने का प्रचलन नहीं था, उनके पास लिखने को कोई लिपि नहीं थी, इसलिए वे अपनी पौराणिक घटनाओं को कहानी और गीतों के माध्यम से अपनी भावी पीढ़ी को अग्रसारित करते थे. बाहा बोंगा के समय गाये जानेवाले गीत बाहा सेरेंग से यह प्रमाणित हो जाता है. इन गीतों के रचनाकार कौन हैं यह सटीक रूप से बोलना कठिन है, पर रचनाकार कोई भी हो, उन्होंने इन गीतों में अपनी हृदय की भावनाओं को उजागर किया है:
पीपल की ऊंची डालों पर
गाती हुई तुत पंक्षी,
वट की झुकी टहनियों पर
कठफोड़वा विश्राम कर रही है
काल के परिवर्तन के साथ
हे गोसाईं ,तुत गा रही है
काल के परिवर्तन के साथ
गुतरुद विश्राम ली है
प्रकृति के अवश्यंभावी परिवर्तन में
हे गोंसाई, तुत ने किया स्वागत
प्रकृति के इस अवश्यंभावी बदलाव में
हे गोसाईं गुतरुद ने लिया है विश्राम
बाहा पर्व में हर्ष-आनंद तो होता ही है, इस अवसर पर आपसी बैर और दुश्मनी भी भुलाने की परंपरा है. हिंदू समुदाय के लोग जिस तरह आपस में रंग लगाकर अपनी दुश्मनी को भूलकर एक नए मधुर रिश्ते की शुरुआत करते हैं. ठीक वैसी ही संताल मनमुटाव को मिटाकर प्यार भरे रिश्ते का आरंभ करते हैं. गांवों में इस अवसर पर अपने प्रियजन और कुटुंबों को आमंत्रित करते हैं. पानी का यह खेल ज्यादातर जीजा-साली, जीजा-साला, देवर-भाभी, ननद-भाभी वाले रिश्तों में बहुत ज्यादा होता है. दौड़ा-दौड़ाकर अपने प्रिय के लोगों पर पानी डाला जात है. अपने से बड़े रिश्तों पर पानी डाला जाता है, पर वह कुछ शिष्टचार के साथ. इस खेल से संबंधित यह गीत उल्लेखनीय है:-
आज मैं लोटे से पानी डालूंगा
आज मैं कटोरे से पानी डालूंगा
लोटे का पानी माथे में डालूंगा
कटोरे का पानी शरीर में डालूंगा
आज मैं माथे पर कुंए का पानी डालूंगा
आज मैं तुम्हे चुंए के पानी से धो डालूंगा
कुंए का पानी से मन का मैल साफ होगा
चूंए के पानी से ह्रदय का मैल साफ होगा .
बाहा पर्व प्रकृति के साथ सत्संग का त्यौहार है. इसमें सोहराय की मस्ती नहीं है. इस अवसर पर मुर्गे की बलि चढ़ती है.उत्सव के एक दिन पहले गांव के युवाओं द्वारा जाहेर थान की सफाई की जाती है. एक जाहेर ऐरा, मोड़े को और मारंग बुरु के लिए और दूसरा गोंसाई एेरा के लिए. उसके बाद स्नान करते हैं और विभिन्न पूजा के सामान पर तेल लेपन करते है जैसे – सूप, टोकरी, तीर-धनुष, गड़ासे, सीरम झाड़ू, कलाई पर पहना जानेवाला कड़ा , गले का हार, एक घंटी एवं सिंगा.
पूजा के प्रथम दिन तीन देवों का आविर्भाव तीन अलग-अलग व्यक्तियों में होता है. जाहेर एरा एक देवी है, फिर भी किसी पुरुष पर ही आविर्भाव होती हैं और अपना सामान टोकरी और झाड़ू ग्रहण करती हैं .
मोड़े को तीर और धनुष ग्रहण करते हैं और मरांग बुरु गड़ासे पकड़कर जाहेर थान की और प्रस्थान करते हैं. जाहेरथान में जाहेर ऐरा झाड़ू बुहारती है और नाइके इन देवताओं को अपने साथ लाये सामग्री रखने को कहते हैं. इसके बाद देवताओं से नाइके वार्तालाप करते हैं. अंत में नायके द्वारा बोंगाओं का स्नान कराया जाता है.
पूजा के दूसरे दिन प्रायः गांव के लोग जाहेर थान को जाते है. जिन लोगों पर बोंगा का आविर्भाव हुआ है वे अपने सामान के साथ रहते है. एक साल वृक्ष का चुनाव कर मोड़े को द्वारा तीर चलाया जाता है.
मरांग बुरु उस पर चढ़ कर साल के फूल से लदी टहनी तोड़ते हैं और जाहेर एरा द्वारा वह फूल अपनी टोकरी में एकत्र करते हैं. यही फूल नाइके गांव के लोगों को भेंटस्वरूप प्रदान करते हैं. औरतें इसे अपने जूड़े में सजाती हैं और पुरुष अपने कान को सजाते हैं. नाइके द्वारा मुर्गे की बलि दी जाती है और उसे पकाकर प्रसादस्वरूप नाइके और उनके पुरुष सहयोगी खाते हैं.
पूजा की समाप्ति पर नाइके बोंगाओं के पैर धोते हैं. पैर धोने का यह काम चलते रहता है नाइके के घर तक. गांव के प्रत्येक घर के छटका में लोटा में पानी और तेल सजाया रहता है. नाइके और बोंगाओं के आगमन पर उनके पैर धोया जाता है और अवशिष्ट जल लोगों में डाला जाता है. संतालों के जीवन में बाहा बोंगा और बाहा अर्थात पुष्प का बहुत महत्व है.

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