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उत्तर भारत में घातक वायु प्रदूषण, जहरीली हवा के खतरों के प्रति लापरवाही, प्रदूषण के अजगर को छोड़ चूहे मार रही सरकारें

दुनिया के सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण से प्रभावित 15 शहरों में 14 भारत में हैं. वर्ष 2010 में सबसे अधिक जहरीली हवा में सांस ले रहे शहरों में सिर्फ दिल्ली और आगरा का नाम ही था. प्रदूषित हवा से पैदा होनेवाले रोग सालाना 11 लाख मौतों के कारण हैं. ऐसे में आर्थिक वृद्धि तथा पर्यावरण […]

दुनिया के सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण से प्रभावित 15 शहरों में 14 भारत में हैं. वर्ष 2010 में सबसे अधिक जहरीली हवा में सांस ले रहे शहरों में सिर्फ दिल्ली और आगरा का नाम ही था. प्रदूषित हवा से पैदा होनेवाले रोग सालाना 11 लाख मौतों के कारण हैं.
ऐसे में आर्थिक वृद्धि तथा पर्यावरण के बीच संतुलन साधते हुए ठोस उपायों की दरकार है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट की मूल बातों के साथ वायु प्रदूषण के विभिन्न पहलुओं पर आधारित इन-दिनों की प्रस्तुति…
दुनू रॉय
निदेशक, हजार्ड्स सेंटर, दिल्ली
प्रदूषण के अजगर को छोड़ चूहे मार रही सरकारें
देश के गंगा घाटी क्षेत्र में आज सर्वाधिक प्रदूषण है. पंजाब से लेकर बंगाल तक फैले गंगातटीय शहरों में ज्यादा प्रदूषण देखने को मिलता है.
इसकी वजह यह है कि यह घाटी सबसे निचली जगह है. एक तरफ ऊंचा हिमालय है, तो दूसरी तरफ पठार है और बीच में यह घाटी है. यहां से प्रदूषण तभी खत्म हो सकता है, जब हवा इसे कहीं और ले जाये. लेकिन, हवा बरसात के मौसम में आती है और वह भी केवल एक दिशा में आती है, जिसके चलते बंगाल के प्रदूषण को धक्का देकर पाकिस्तान तक पहुंचा देती है. जब दूसरी तरफ से हवा चलती है, तो पंजाब से उस प्रदूषण को बंगाल तक पहुंचा देती है. कुल मिलाकर, इस प्रदूषण को यहीं घुमड़ते रहना है. इसका सीधा अर्थ है कि हमें ऐसे प्रयास करने की जरूरत है, ताकि अब प्रदूषण इससे ज्यादा न बढ़ने पाये.
बड़ी वजहों की अनदेखी
दुनियाभर में प्रदूषण की बड़ी वजहों को नजरअंदाज किया जाता है और गाहे-ब-गाहे आनेवाली वजहों पर शोर मचाया जाता है. तकरीबन सभी देशों की सरकारें इसी ढोंग को रचती हैं, ताकि असली और बड़ी वजहों पर लोगों का ध्यान ही न जाये. पूरी दुनिया में प्रदूषण का कारण बड़े और छोटे के बीच सरकारों की विभाजनकारी मानसिकता है. बड़ी कंपनियां चाहे जितना प्रदूषण पैदा कर लें, सरकारें उन पर लगाम नहीं लगा पाती हैं. लेकिन, वहीं छोटे लोगों से जरा सा भी प्रदूषण पैदा हो जाये, तो उन पर फौरन लगाम लगा दी जाती है. लगाम जरूरी है, लेकिन छोटे-बड़े सब पर. प्रदूषण एक अजगर की तरह है, लेकिन सरकारें चूहे मारने का इंतजाम करती रहती हैं, ताकि लोगों को लगे कि सरकार कुछ कर रही है.
इस अजगर के तीन मुख्य स्रोत हैं- परिवहन, निर्माण और ऊर्जा के लिए ईंधनों (कोयला, तेल, लकड़ी) का जलना. विडंबना है कि इन्हें ही विकास का पहिया मान लिया गया है. सरकारी नीतियां इन्हीं के ईद-गिर्द घूमती हैं और सरकारें ग्रोथ का रोना रोती रहती हैं. उनके इस रोने में पर्यावरण की भारी अनदेखी होती है. विकास की जरूरत तो है, लेकिन पर्यावरण की अनदेखी करके ऐसा करना हमारी पीढ़ियों तक के लिए घातक साबित होनेवाला है.
प्रदूषण का द्योतक
पहले यह समझते हैं कि प्रदूषण लगातार बढ़ क्यों रहा है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है, तभी मुमकिन है कि इसे कम करने के उपाय खोजे जा सकते हैं. आप गौर कीजिए, हमारे लिए विकास का द्योतक क्या है, जिसे सरकारें चिल्ला-चिल्लाकर कहती हैं? विकास का द्योतक है
उत्पादन. आप अक्सर देखते हैं कि सरकारों का पूरा जोर जीडीपी बढ़ाने पर होता है.
जीडीपी की दर तभी बढ़ेगी, जब उत्पादन ज्यादा होगा. और यह मान लिया गया है कि जितना ज्यादा उत्पादन होगा, उतना ही ज्यादा हम विकसित होंगे. और प्रदूषण का अध्ययन बताता है कि हम जितना ही उत्पादन करेंगे, प्रदूषण भी उतना ही बढ़ेगा. यानी विकास का द्योतक और प्रदूषण का द्योतक, ये दोनों एक साथ चलते हैं.
उत्पादन, ऊर्जा और प्रदूषण
हम अपनी विकास दर को जितनी तेजी से बढ़ाते जायेंगे, उतनी ही तेजी से प्रदूषण बढ़ता जायेगा, क्योंकि हमारे पास अभी इसका ठोस प्रबंधन नहीं है कि ज्यादा उत्पादन के साथ न्यूनतम प्रदूषण कैसे पैदा हो. दरअसल, जब हम ज्यादा उत्पादन करते हैं, तो ज्यादा ऊर्जा खपत होती है. वह ऊर्जा केवल वस्तुओं के उत्पादन के लिए ही नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर देशभर में उसे फैलाने के लिए भी जरूरी होती है. कच्चे माल की ढुलाई और फिर उत्पादन के बाद वस्तुओं के वितरण से खूब सारा धुआं और प्रदूषण उत्पन्न होता है. कचरा तो उत्पन्न हो ही रहा है.
हर शहर में छोटे-बड़े कचरे के पहाड़ देखने को मिल जाते हैं, जहां से तमाम तरह के हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होना स्वाभाविक है. यह पूरी प्रक्रिया विकास के द्योतक के साथ-साथ प्रदूषण का द्योतक भी बनती है. इसका सीधा अर्थ है कि अगर हम वस्तुओं के उत्पादन में स्थानीयता और विकेंद्रीयकरण की नीति अपनाएं, तो धूल-धुएं का प्रदूषण एक हद तक कम किया जा सकता है.
ऊर्जा के स्रोत प्रदूषणकारक
ऊर्जा का उत्पादन दो तरीके से होता है. एक तो कोयला जलाकर बिजली पैदा की जाये और दूसरा तेल जलाकर आवागमन को सुनिश्चित किया जाये. इन दोनों के जलने में ऊर्जा का उत्पादन तो होता है, साथ ही प्रदूषण का भी उत्पादन होता रहता है. पहले कोयला जलाते थे, अब गैस जलाते हैं. कोयला, तेल और गैस, ये तीनों ऊर्जा के नॉन-रिन्यूएबल (क्षय, नश्वर) स्रोत हैं, यानी ये दोबारा पैदा नहीं होंगे. ये तीनों भयानक प्रदूषणकारक भी हैं. जबकि रिन्यूएबल एनर्जी (अक्षय ऊर्जा), जैसे- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जलविद्युत ऊर्जा, बायोमास और जैव ईंधन आदि ऐसे ऊर्जा स्रोत हैं, जिनका क्षय नहीं होता और न ये प्रदूषणकारक ही हैं.
कोयला पैदा करने के लिए हमारी पृथ्वी ने 40 करोड़ साल लगाये, लेकिन हम इसे चार सौ साल में ही जलाकर खत्म कर देंगे. जाहिर है, निश्चित रूप से ऊर्जा पैदा करने के हमारे तरीके ठीक नहीं हैं और इसलिए हम प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हैं. और यह प्रदूषण अगर गंगा घाटी में होगा, तो उसके निकलने के रास्ते हैं ही नहीं.
अमेरिका से सीखें
सड़कों पर जितनी बड़ी संख्या में गाड़ियां दौड़ेंगी, उतनी ही बड़ी मात्रा में प्रदूषण को बढ़ावा देंगी. यह प्रदूषण दिखाई नहीं देगा. गाड़ियां बढ़ने से तेल की खपत भी बढ़ जायेगी.
गाड़ियों का धुआं पेड़-पौधों के कार्बनडाइऑक्साइड को सोखने की क्षमता को कम करता है, जिससे पेड़ों से ऑक्सीजन उत्सर्जन क्षमता भी प्रभावित होती है. गाड़ियों के धुएं के साथ ही सड़क पर घिसनेवाली पहियों से भी धूल के कण उत्पन्न होते हैं, जो हमारी सांसों के लिए बहुत घातक है. इसलिए दुनियाभर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बात होती है. दुनिया का विकसित देश अमेरिका के न्यूयाॅर्क शहर की मुख्य सड़क पर गाड़ियों के चलने पर प्रतिबंध है.
वहां लोग पैदल चलते हैं. क्या हमारे देश में ऐसा नहीं हो सकता? लेकिन हमारी सरकारों में इच्छाशक्ति ही नहीं है और न ही उनके पास कोई दूरदर्शिता है. सरकारें अगर जनहित चाहती हैं, तो उन्हें कंपनियों के हाथ में नहीं बिकना चाहिए और अमेरिका से सीख लेकर प्रदूषण कम करने की नीतियां बनानी चाहिए. निर्माण कार्य में इस्तेमाल होनेवाली चीजों और ट्रकों के चलने से बहुत धूल कणों का उत्पादन होता है, जो प्रदूषण के स्तर को बढ़ा देता है. प्रदूषण से लोग बीमार होते जा रहे हैं और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ रही है.
प्रदूषण खत्म करने के उपाय!
हालांकि, हमारे पास प्रदूषण खत्म करने का कोई ठोस तकनीकी उपाय नहीं है. और कोई तकनीक है भी, तो उसके उपयोग के लिए हमारे अंदर न तो जागरूकता है और न ही कोई इच्छाशक्ति ही है. चूंकि उस तकनीक को राष्ट्र स्तर पर काम करना है, इसलिए सबसे पहले इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होगी.
सरकार चाहे, तो इसका हल निकाल सकती है और प्रदूषण को खत्म तो नहीं, लेकिन कुछ हद तक जरूर कम कर सकती है. लेकिन, विकास को ही समृद्धि का पैमाना माननेवाली सरकारों के बस की बात नहीं कि वे सख्त कदम उठायेंगी. जबकि, अगर सरकारें पर्यावरण को ध्यान में रखकर विकास की नीतियां बनाएं, तो संभव है कि प्रदूषण कम हो सकता है.
दूसरी बात यह है कि मीडिया को एक महती जिम्मेदारी निभानी चाहिए. सरकारें जो करती हैं, वह तो करती ही हैं. लेकिन, मीडिया को चाहिए कि पर्यावरण संबंधी कार्यक्रमों और समय-समय पर आनेवाली अच्छी रिपोर्टों को छापकर- दिखाकर आम जनता को जागरूक करे, ताकि वे पर्यावरण की अनदेखी पर सरकार से सवाल कर सके और सरकार पर दबाव बना सके कि सरकार प्रदूषण कम करने की नीतियां बनाये.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
उत्तर भारत की दमघोंटू हवा
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से साफ जाहिर है कि राजस्थान और कश्मीर घाटी के साथ गंगा के मैदानी इलाकों की हवा दुनिया में सबसे खराब है.
दिल्ली, आगरा और कानपुर तो पहले से ही वायु प्रदूषण की जद में हैं, पर बनारस, मुजफ्फरपुर, गया और श्रीनगर जैसे शहरों में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कारखानों और वाहनों की भरमार नहीं है. लेकिन बीते एक दशक से गंगा के मैदानी हिस्सों की हवा में सूक्ष्म कणों का घनत्व लगातार बढ़ता जा रहा है. विशेषज्ञों की राय है कि हिमालय और विंध्य के बीच बसा यह क्षेत्र एक व्यापक घाटी की तरह है, जहां प्रदूषण के तत्व बाहर नहीं निकल पा रहे हैं.
मुंबई या चेन्नई जैसे इलाकों के उलट यहां सामुद्रिक तट नहीं हैं, जो प्रदूषण को बाहर कर सकें. एक तथ्य यह भी है कि इस इलाके में आबादी बहुत है. करीब 60 करोड़ लोगों को ऊर्जा के लिए ईंधन के बहुत इस्तेमाल की जरूरत पड़ती है. इस खपत से हवा में प्रदूषण फैलानेवाले तत्व और सूक्ष्म कण बढ़ते जा रहे हैं. इन इलाकों में कचरा प्रबंधन की स्थिति बेहद खराब है. लोगों को खाना पकाने के लिए चूल्हों पर निर्भर रहना पड़ता है. अध्ययन बताते हैं कि चूल्हे बाहरी प्रदूषण में 25 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेदार है. लेकिन इतनेभर से यह साबित नहीं हो जाता है कि गया या मुजफ्फरपुर में इतना प्रदूषण क्यों है. जानकारों की मानें, तो ऐसे शहर, यहां तक कि कानपुर या दिल्ली भी, अपने प्रदूषण के लिए जिम्मेदार तत्वों में से आधे का भी उत्पादन नहीं करते हैं.
इन इलाकों में साल के ज्यादा भाग में हवा का बहाव उत्तर-पश्चिम से पूर्व की तरफ होता है. जाड़े के मौसम में यह अधिक होता है. इससे अन्य इलाकों का प्रदूषण भी वहां जमा होता रहता है. कानपुर, गया और मुजफ्फरपुर में अधिकांश नुकसानदेह तत्व बाहर से आये हैं. जैसे-जैसे हवा पश्चिम से पूर्व की ओर जाती है, ऐसे तत्वों का संघनन बढ़ता जाता है, और फिर फैक्टरियों और वाहनों का धुआं भी खतरनाक सूक्ष्म कणों में बदलता जाता है.
एक कारण इन क्षेत्रों में ऊमस का अधिक होना भी है. इन समस्याओं से पार पाना कोई असंभव काम नहीं है. कैलिफोर्निया जैसे दुनिया के अनेक हिस्सों की भौगोलिक बनावट ऐसी ही है. उन क्षेत्रों में प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए किये गये उपायों से सीख लेकर उत्तर भारत को भी बेहतर बनाया जा सकता है.
ज्यादा प्रदूषित बड़े शहरों में दिल्ली अव्वल
वैश्विक स्तर पर 10 बड़े शहरों के हवा में मौजूद पार्टिकुलेट मैटर10 के स्तर की अगर बात करें, तो दिल्ली पहले व मुंबई चौथे स्थान पर है. इन दोनों शहरों में पीएम10 का स्तर क्रमश: 292 और 104 पाया गया है, जो मानक से कहीं ज्यादा है. विशेषज्ञों की मानें तो पीएम10 की प्रति क्यूबिक मीटर हवा में उपस्थिति 100 से ज्यादा होना प्रदूषण की निशानी मानी जाती है. दुनिया के कुछ प्रमुख शहरों में प्रदूषण के पीएम10 की दशा इस प्रकार रही है :
शहर पीएम10 का स्तर
दिल्ली 292
काहिरा (मिस्र) 284
ढाका 147
मुंबई 104
बीजिंग 92
शंघाई 59
इस्तांबुल 53
मेक्सिको सिटी 39
साओ पाउलो 28
ब्यूनस आयर्स 27
विश्व के 15 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर
(वर्ष 2016 का वैश्विक औसत)
स्थान पीएम 2.5 का स्तर
1. कानपुर 173
2. फरीदाबाद 172
3. वाराणसी 151
4. गया 149
5. पटना 144
6. दिल्ली 143
7. लखनऊ 138
8. आगरा 131
9. मुजफ्फरपुर 120
10. श्रीनगर 113
11. गुड़गांव 113
12. जयपुर 105
13. पटियाला 101
14. जोधपुर 98
15. अली सुबह अल-सलेम (कुवैत) 94
स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन
भारत में वर्ष 2015 में पीएम 2.5 से जुड़े मृत्यु के कारण और इनकी संख्या
घरेलू बायोमास को जलाना : 268
एंथ्रोपोजेनिक डस्ट : 100
पावरप्लांट काेयला : 83
औद्योगिक कोयला : 82
खुले में चीजों को जलाना : 66
ईंट का उत्पादन : 24
यातायात : 23
डीजल : 20
(नोट : मृत्यु की संख्या हजार के आंकड़ों में है.)
प्रदूषण के आर्थिक नुकसान चिंताजनक
वायु प्रदूषण का बुरा असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है. आंकड़ों के अनुसार, करीब 14 लाख लोगों की मौत जहरीली हवा में सांस लेने से हुई बीमारियों के कारण हो चुकी है.
विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 2013 में राहत पर कुल घरेलू उत्पादन का 7.69 फीसदी हिस्सा बर्बाद हुआ था. यह आंकड़ा अब करीब 10 फीसदी के स्तर पर पहुंचता जा रहा है. यह नुकसान चीन और भारत में सर्वाधिक है. रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर भारत और पूर्वी चीन में इसके कारण फैक्टरियों और वाहनों के अलावा घरेलू ईंधन, कोयले से चलनेवाले विद्युत संयंत्र, खर-पतवार जलाना आदि हैं.
आनेवाले समय में भारत में स्थिति और विकट होने की आशंका है. ऊर्जा मांग में भारत का हिस्सा 2014 में छह फीसदी था, जो 2040 में करीब 11 फीसदी हो जायेगा. हालांकि रसोई गैस, सौर और विद्युत ऊर्जा पर ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन कोयला और तेल पर निर्भरता से जल्दी छुटकारा मुमकिन नहीं है.
वर्ष 2017 और 2018 में वायु गुणवत्ता सुधार का सरकार का दावा
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में वर्ष 2016 तक वायु प्रदूषण की समस्या को रेखांकित किया गया है. इस ‍रिपोर्ट में संकेत दिया गया है कि 143 सूक्ष्म ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर के कारण वार्षिक औसत सूक्ष्म कण (पीएम) के 2.5 संकेंद्रन के साथ दिल्ली 2016 में सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में छठे स्थान पर है.
सरकार का दावा है कि उसने वायु प्रदूषण से निबटने की दिशा में गंभीर प्रयास किये हैं. पीएम 2.5 के लिए वर्ष 2017 का डाटा प्रदर्शित करता है कि 2016 में इसमें सुधार दर्ज किया गया है और अभी तक 2018 में, 2017 की तुलना में इसमें सुधार प्रदर्शित हुआ है.
सरकार ने बीएस-4 से बीएस-6 में छलांग लगाने समेत कई निर्भीक कदम उठाये हैं. वायु प्रदूषण के संदर्भ में, कांटीन्युअस एंबिएंट एयर क्वॉलिटी मॉनीटरिंग स्टेशनों (सीएएक्यूएमएस) पर आधारित सीपीसीबी डाटा से संकेत मिलता है कि वर्ष 2016 की तुलना में 2017 और अभी तक 2018 में भी वायु प्रदूषण में सुधार देखा गया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी इस मामले में कई कदम उठाये हैं.
खतरनाक स्तर पर वायु प्रदूषण
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वैश्विक वायु प्रदूषण पर हाल ही में जारी रिपोर्ट भारत को चिंतित होने की वजह देती है. यह रिपोर्ट वर्ष 2016 तक के अध्ययन पर आधारित है. इसमें दुनिया के 108 देशों के 4,300 शहरों के आंकड़े लिये गये हैं.
इस रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के 15 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में 14 भारत के हैं. इन शहर की हवा में पार्टिकुलेट मैटर2.5 (पीएम2.5) कंसनट्रेशन यानी सल्फेट, नाइट्रेट व ब्लैक कार्बन जैसे वायु प्रदूषकों की संख्या मानक से कहीं ज्यादा पायी गयी है. इस सूची में 15वें स्थान पर कुवैत का शहर अली सुबहअल-सलेम है.
प्रदूषण में शीर्ष पर कानपुर
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जो 15 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची जारी की गयी है, उनमें कानपुर शीर्ष पर है. यहां प्रति क्यूबिक मीटर 173 माइक्रोग्राम पीएम 2.5 कंसंट्रेशन दर्ज हुआ है.

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