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सदैव प्रासंगिक रहेंगे गांधी के संदेश एवं आदर्श

।।कुमार प्रशांत।। गांधीवादी विचारक देश के बापू महात्मा गांधी ने अपना पूरा जीवन देश की एकता के लिए समर्पित किया था. भारत में जब संविधान-सभा की स्थापना हुई, तो उसके लिए धर्मनिरपेक्ष जमीन तैयार करने में अगर किसी व्यक्ति की सबसे बड़ी भूमिका थी, तो वह गांधीजी ही थे. आज जब देश एक बार फिर […]

।।कुमार प्रशांत।।

गांधीवादी विचारक

देश के बापू महात्मा गांधी ने अपना पूरा जीवन देश की एकता के लिए समर्पित किया था. भारत में जब संविधान-सभा की स्थापना हुई, तो उसके लिए धर्मनिरपेक्ष जमीन तैयार करने में अगर किसी व्यक्ति की सबसे बड़ी भूमिका थी, तो वह गांधीजी ही थे. आज जब देश एक बार फिर जाति और धर्म के नाम पर बंट रहा है और हमारे नेता ही ध्रुवीकरण की आग फैलाते हुए आम आदमी को इसमें झोंक रहे हैं, गांधीजी का विचार ही है, जो आज भी हमें राह प्रदर्शित कर रहा है और देश में शांति और सौहार्द की मशाल जलाये दिखायी देता है. आज बापू हमारे बीच, भले सशरीर न मौजूद हों, लेकिन उनके विचार हमेशा जिंदा रहेंगे और देश की मानवता को मरने नहीं देंगे…

लगातार होती रहीं गांधी की हत्या की कोशिशें

तीस जनवरी, 1948 को जो हुआ, वह तो हत्या के नाटक का छठा अध्याय था. उससे पहले पांच बार हिंदुत्ववादियों ने महात्मा गांधी की हत्या का प्रयास किया था और हर बार विफल हुए थे. लेकिन उनकी जान जाने की संभावना या उनकी हत्या की कोशिश इन सबसे पहले भी हो चुकी थी.

हमलों की यह कहानी दक्षिण अफ्रीका से शुरू होती है. डरबन से प्रीटोरिया जाते हुए ट्रेन से उतार फेंकने की बहुचर्चित घटना और फिर चार्ल्सटाउन से जोहान्सबर्ग के बीच की घोड़ागाड़ी की यात्रा में हुई बेरहम पिटायी, दोनों में उनका उनका अपमान भर हुआ ऐसा नहीं, अंग-भंग भी हो सकता था और जान भी जा सकती थी. चार्ल्सटाउन से यात्रा के बारे में उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं अपनी जगह पर जिंदा नहीं पहुंचूंगा. लेकिन वे जिंदा पहुंचे और फिर बैरिस्टर गांधी के भीतर से कोई दूसरा गांधी कुलबुलाने लगा.

संघर्ष का यह गांधी-स्वरूप बनना शुरू ही इस बात से हुआ कि कालों को उंगलियों के निशान अनिवार्यत: देने का सरकारी आदेश निकला और बैरिस्टर गांधी ने उसके खिलाफ भारतीयों को संगठित किया. ‘निशान नहीं देंगे’ सत्याग्रह की यह पहली पाठशाला थी. आंदोलन तेज हुआ, तो दक्षिण अफ्रीका सरकार ने बात बिगड़ने से पहले संभालने की चालाकी की और एक समझौता हुआ. समझौते के तरह बैरिस्टर गांधी ने निशान देने की बात कबूल कर ली और सरकार ने उससे जुड़ी सजा व बंदिशें वापस ले लीं.

वर्ष 1897 में गांधी सपरिवार दक्षिण अफ्रीका लौटते हैं. डरबन के बंदरगाह पर जमा नौजवान गुस्से से पागल हुए जा रहे थे कि गांधी ने अपने देश व दुनिया में नेटाल के गोरों को बदनाम किया है और अब नेटाल को भारतीयों से भर देने की योजना के तहत जहाज भरकर भारतीयों को लेकर डरबन आ रहा है. जहाज डरबन बंदरगाह से दूर ही खड़ा कर दिया गया और यात्रियों के स्वास्थ्य की जांच की गयी कि कोई महामारी तो साथ नहीं ला रहा है. गांधीजी लिखते हैं कि यह जांच तो हमेशा की थी, लेकिन इसके पीछे जहाज के कप्तान को दिया जानेवाला संदेश भी था, जो बतला रहा था कि गांधी को उतरने देना खतरे से खाली नहीं है. उन्मत्त भीड़ उनका इंतजार कर रही है.

अंतत: दो सावधानी बरती गयी- कस्तूरबा और बच्चों को जहाज से उतारकर सीधा रुस्तम सेठ के घर पहुंचा दिया गया. अब बचे गांधीजी, तो उन्हें वहीं रोके रहने की बात हुई. फिर जहाज सेवा के वकील मिस्टर लाटन ने आग्रह किया कि मेरी जिम्मेदारी रहेगी, आप बंदरगाह की तरफ चलें. गांधीजी मिस्टर लाटन के साथ, उनकी योजना के मुताबिक उतरे और योजना के मुताबिक ही पैदल रुस्तमजी जी के घर की तरफ चलने को हुए ,तभी कुछ गोरे लड़कों ने उन्हें पहचान लिया और उन्होंने गांधी-गांधी का शोर मचाया. ‘भीड़ ने सबसे पहले मुझे मिस्टर लाटन से अलग किया और फिर सड़े अंडों तथा कंकड़ों की वर्षा शुरू हुई. किसी ने मेरी पगड़ी उछाल कर फेंक दी.

फिर लातें शुरू हुईं. मुझे गश आ गया. मैंने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया. तमाचे पड़ने लगे. पुलिस सुपरिटेंडेंट ने मुझे थाने में आश्रय लेने की सलाह दी. मैंने इनकार किया और कहा, जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शांत हो जायेंगे. मुझे उनकी न्यायबुद्धि पर विश्वास है.’ बाहर उन्मत्त भीड़ को बहलाने-बहकाने की कोशिश में लगे सुपरिटेंडेंट एलेक्जेंडर उनके साथ गाना गा रहे थे- चलो, हम गांधी को फांसी पर लटका दें/ इमली के उस पेड़ पर फांसी पर लटका दें, और इधर गांधीजी को हिंदुस्तानी सिपाही की वर्दी पहनाकर, छुपाते हुए वहां से ले जाया गया. जब वे रुस्तमजी के घर पहुंचे तब तक गोरों ने उस घर को घेर लिया. अंधेरा हो चला था. बाहर हजारों लोग तीखी आवाज में शोर कर रहे थे और ‘गांधी को हमें सौंप दो!’ की पुकार मचा रहे थे. हालात काबू से बाहर जाता देख सुपरिटेंडेंट ने गांधीजी को संदेश भेजा: ‘यदि आप अपने मित्र के मकान, माल-असबाब और अपने बाल-बच्चों को बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिए.’ ऐसा ही करना पड़ा अन्यथा सुदूर दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास करमचंद गांधी ‘मॉब लिंचिंग’ के शिकार पहले भारतीय होते.

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साल 1915 में दक्षिण अफ्रीका छोड़कर गांधी फिर वापस न जाने के लिए भारत आये. उस दिन से 1948 में मारे जाने तक सुनियोजित तरीके से उनकी हत्या की पांच बार कोशिशें हुईं.

एक-1934: पुणे नगरपालिका ने गांधीजी का सम्मान समारोह आयोजित किया था. समारोह-स्थल पर पहुंचते वक्त उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया. नगरपालिका के मुख्य अधिकारी और 2 सहित कुल 7 लोग गंभीर रूप से घायल हुए. हत्या की कोशिश विफल इसलिए हुई कि जिस गाड़ी पर बम डाला गया उसमें नहीं, गांधीजी उसके पीछे वाली गाड़ी में थे.

दो- 1944: आगाखान महल की जानलेवा कैद से छूटकर जब गांधीजी बाहर आये तो वे बहुत कमजोर भी थे और ब्लडप्रेशर की शिकायत भी थी. इसलिए उन्हें भीड़-भाड़ से दूर आराम के लिए पुणे के निकट पंचगनी ले जाया गया. उनके खिलाफ नारे-प्रदर्शन आदि आयोजित किये गये जाते रहे और एक दिन, 22 जुलाई को ऐसा भी हुआ कि एक युवक उनकी तरफ छुरा ले कर झपटा. भिसारे गुरुजी ने उसे बीच में ही दबोच लिया.गांधीजी ने युवक को अपने पास बुलाया और उनके कुछ दिन रहने का संदेश भिजवाया. लेकिन युवक तैयार नहीं हुआ. गांधीजी ने उसे आजाद करने का निर्देश दिया. उसका नाम था नाथूराम गोडसे.

तीन- 1944: पंचगनी की विफलता को सफलता में बदलने की कोशिश इस बार वर्धा में की गयी. तब गांधीजी मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता के लिए बंबई जाने तैयारी में थे. गांधीजी को जिन्ना से बातचीत नहीं करने देंगे, ऐसा प्रतिरोध खड़ा करने पुणे से एक टोली वर्धा लायी गयी.वह सेवाग्राम आश्रम के दरवाजे पर नारेबाजी करती और गांधीजी पर हमले का मौका ढूंढती थी. गांधीजी ने कहा कि वे बंबई जाने के लिए आश्रम से निकलेंगे और विरोध करनेवाली टोली के साथ तब तक पैदल चलते जायेंगे जब तक वे उन्हें मोटर में बैठने की इजाजत नहीं देंगे.लेकिन गांधीजी आश्रम से बाहर निकलें, इससे पहले ही पुलिस ने सबको गिरफ्तार कर लिया. उस हमलावर टोली के सदस्य के पास से एक बड़ा छुरा बरामद हुआ. पुलिस को यह खुफिया सूचना मिली थी कि आज कुछ अप्रिय घटनेवाला है. यह प्रमाण भी मिलता है कि तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माताओं में से एक माधवराव सदाशिव गोलवलकर वर्धा में ही थे.

चार- 1946: जून की 30 तारीख थी. गांधीजी एक रेलगाड़ी से मुंबई से निकल कर पुणे जा रहे थे. करजत स्टेशन के पास पहुंचते हुए रात हो आयी थी, लेकिन ड्राइवर ने देख लिया कि पटरी पर बड़े-बड़े पत्थर डाल दिये गये हैं.सावधान ड्राइवर इमरजेंसी ब्रेक से गाड़ी रोक ली. जो नुकसान होना था, इंजन को हुआ. गांधीजी फिर से बच गये. अपनी प्रार्थना सभा में वे बोले: ‘मैं सात बार इस प्रकार के प्रयासों से बच गया हूं. मैं इस प्रकार मरनेवाला नहीं हूं. मैं तो 125 साल जीनेवाला हूं.’ हत्या के लिए आमादा टोली के मराठी अखबार ‘अग्रणी’ ने लिखा, ‘परंतु आपको जीने कौन देगा?’ लेखक था- नाथूराम गोडसे!

पांच- 1948 : 20 जनवरी. बिड़ला भवन की प्रार्थना सभा में गांधीजी पर बम फेंका गया. निशाना चूक गया. उसने दीवार से गांधीजी की दूरी का अंदाजा गलत लगाया था. भागने की कोशिश में बमबाज पकड़ा गया. नाम था मदनलाल पाहवा. उसके दूसरे साथी पहले से भाग निकले, जिसमें नाथूराम गोडसे भी था.

छह- 1948: 10 दिन बाद, 30 जनवरी को हत्या की कोशिश सफल हुई. प्रार्थना-भाव में डूबे गांधीजी के सीने में नाथूराम गोडसे ने तीन गोलियां उतार दीं.हमें ध्यान देना चाहिए कि यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि उनकी हत्या की लगातार गंभीर कोशिशें हो रही हैं, गांधीजी ने कभी षड्यंत्रकारियों को पुलिस से पकड़वाने की या अदालत के रास्ते उन्हें सजा दिलवाने की सोची ही नहीं. वे अपने राम के हाथों में रहे, और अपने राम के पास ही चले गये.

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