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मानव इतिहास का नया मोड़, गांधी के अंतिम दिन

हरिवंश उपसभापति, राज्यसभा महापुरुषों के अंतिम दिनों या जीवन के आखिरी दौर के तथ्य जानने की दशकों पुरानी चाह रही है. 1985 में गांधी के अंतिम दिनों पर पढ़ा. निष्कर्ष था कि गांधी अपवाद नहीं. जो भी इतिहास के बड़े नायक रहे, जिन्होंने समाज, पीढ़ी और मुल्क की नयी तवारीख ( इतिहास) लिखी, वे खुद […]

हरिवंश
उपसभापति, राज्यसभा
महापुरुषों के अंतिम दिनों या जीवन के आखिरी दौर के तथ्य जानने की दशकों पुरानी चाह रही है. 1985 में गांधी के अंतिम दिनों पर पढ़ा. निष्कर्ष था कि गांधी अपवाद नहीं. जो भी इतिहास के बड़े नायक रहे, जिन्होंने समाज, पीढ़ी और मुल्क की नयी तवारीख ( इतिहास) लिखी, वे खुद अंत आते-आते लगभग असहाय स्थिति में थे. अंतिम दिनों में अप्रभावी हो जाने का एहसास महज भारतीय महापुरुषों के साथ ही नहीं हुआ, बल्कि दुनिया के समाज नायकों व चर्चित लोगों के जीवन में भी घटित हुआ है.
कृष्ण को भले इतिहास का हिस्सा नहीं मानें, लेकिन भारतीय जनमानस में पीढ़ियों से रचे-बसे वह महानायक हैं. हमारी स्मृति में ‘भगवान’ के रूप में दर्ज. वह भी जीवन के अंत में निरुपाय होते हैं. यही राम के साथ होता है. मान भी लें कि ‘राम’ या ‘कृष्ण’ किंवदंती हैं, पर सिकंदर, नेपोलियन, लेनिन, स्टालिन, माओ, टॉलस्टॉय जैसे अनेक इतिहास पुरुषों के जीवन का अंतिम पड़ाव कैसा रहा है? यह जानना भी दिलचस्प है.
सेंट हेलेना द्वीप पर बंदी हुए ‘प्रतापी’ नेपोलियन को समझ में आया कि ‘मैं’ नहीं, समय बलवान होता है. यही बात तो महाभारत का सत्व है कि ‘काल की गति’ ही सर्वोच्च है. वही अर्जुन, वही गांडीव, पर भील असहाय अर्जुन से द्वारिका की औरतें छीन ले जाते हैं. ज्ञात मानव इतिहास की दो धाराएं रही हैं. एक मैकियावेली की पुस्तक ‘द प्रिंस’ की. छल, छद्म, षड्यंत्र- किसी रास्ते मंजिल यानी ध्येय तक पहुंचना. पश्चिम की पूरी राजनीति का दर्शन मैकियावेली का ‘द प्रिंस’ ग्रंथ है. इसके ठीक मुकाबले गांधी ने कहा- नहीं, असल मामला साधन और साध्य का है.
पवित्र मकसद कभी नापाक षडयंत्रों, कुचक्रों और कुटिलताओं से हासिल नहीं हो सकते. हिंसा या हिंसक रास्ते कभी अहिंसक या शांतिपूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सकते. आज फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति या चीन की खूनी क्रांति या ‘द प्रिंस’ के विचारों पर आधारित पश्चिम की पूरी राजनीति (लोकतांत्रिक मुल्कों समेत) के हालात प्रमाण हैं कि गांधी सही थे.
असल बदलाव, मन, विचार, चरित्र, संस्कार, मानस निजी दृष्टिकोण का बदलना है. इंसान के बदले बगैर न समाज बदलेगा, न राजनीति और न देश. मानव इतिहास को नया मोड़ देनेवाले ‘गांधी का अंतिम दौर’ खुद उनके ‘सपनों के देश’ में कैसा रहा? गांधी के 150वें जयंती वर्ष पर यह जानना रोचक होगा. इस आलेख का एक हिस्सा आनंद बाजार समूह की हिंदी पत्रिका ‘रविवार’ (वर्ष 1985) में छपा था. यह उसी का विस्तार है.
पहली कड़ी
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 150वें जयंती वर्ष पर उनके जीवन, दर्शन, विचारों और संदेशों को लोगों तक पहुंचाने की हमने शृंखला आरंभ की है. इसके तहत हम हर दिन अखबार के पहले पन्ने पर उनके विचारों को छाप रहे हैं. इसी कड़ी में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश का विशेष आलेख हम प्रकाशित कर रहे हैं, जो वैश्विक संदर्भ में बतौर महापुरुष, महात्मा गांधी की प्रासंगिकता के विविध आयामों पर केंद्रित है.
जीवन के अंतिम दिनों में गांधी अंदर से टूट चुके थे.
125 वर्ष जीने की उनकी इच्छा मर गयी थी. जिस वैकल्पिक समाज के लिए वह आजीवन लड़ते रहे, वही समाज उनके आसपास छिन्न-भिन्न था. उनकी आस्था डिग गयी थी. उन्होंने कहा भी,’ सत्य और अहिंसा में आस्था के कारण ही मैं पिछले 50 वर्षों से जीवित हूं, लेकिन अब मेरी यह आस्था डिग गयी है.’ बंटवारे का दर्द, सांप्रदायिक फसाद, राजनीति में बढ़ता भ्रष्टाचार और विश्वस्त सहयोगियों द्वारा उपेक्षा के कारण गांधी का अंतर्मन बड़ा पीड़ित था.
वह बार-बार कहा करते थे, भारत विभाजन के पूर्व मेरे शरीर के दो टुकड़े करने पड़ेंगे, लेकिन स्वाधीनता आंदोलन में, जो उनके शरीर के हिस्से की तरह थे, वे नेता पहले ही उनसे अलग हो चुके थे. गांधी का शरीर कई टुकड़ों में बंट चुका था. वह निराश थे, फिर भी अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर उम्मीदों की नयी रोशनी तलाशने में लगे थे. उनके अंदर नयी राह बनाने की छटपटाहट थी.
इसकी झलक दिसंबर, 1947 में हिंदुस्तानी तालीम संघ की बैठक में डॉ जाकिर हुसैन से गांधीजी के संवाद में दिखती है. डॉ जाकिर हुसैन ने गांधीजी के सामने सवाल रखा- ‘विभिन्न संस्थाएं कुछ विशेष कार्य करने के लिए तदर्थ समितियों के रूप में अलग-अलग बनायी गयी थीं. अब यदि उन्हें मिलाकर एक संस्था बना दिया गया, तो उस संस्था को सत्ता की राजनीति से दूर रखना असंभव होगा?’ गांधीजी का जवाब था- ‘यदि संयुक्त रचनात्मक कार्यकर्ता संघ सत्ता की राजनीति में पड़ने की कोशिश करेगा, तो उसका सर्वनाश हो जायेगा.
अन्यथा क्या मैं स्वयं सत्ता की राजनीति में घुसकर सरकार को अपने तरीके से चलाने का प्रयास न करता? आज जो सत्ता की बागडोर संभाले हैं, वे आसानी से अलग हो जाते और मुझे अपनी जगह दे देते, लेकिन जब तक सत्ता उनके अधिकार में है, वे अपने ही विवेक के अनुसार कार्य कर सकते हैं. मैं सत्ता अपने हाथ में लेना नहीं चाहता. हम सत्ता से परे रहकर और मतदाताओं की शुद्ध नि:स्वार्थ सेवा करके उनका मार्गदर्शन करते हुए उन पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं.
ऐसा करके हम उससे कहीं अधिक सच्ची सत्ता प्राप्त कर सकेंगे, जो हमें सरकार में शामिल होने पर प्राप्त होगी. मगर एक वक्त ऐसा आ सकता है जब लोग यह महसूस करें और कहें कि वे चाहते हैं कि कोई और नहीं बल्कि हम ही सत्ता संभालें. तब इस सवाल पर विचार किया जा सकेगा. बहुत संभव है कि मैं तब तक जीवित ही न रहूं, लेकिन जब ऐसा समय आयेगा, तब संघों में से कोई ऐसा व्यक्ति जरूर आयेगा, जो शासन की बागडोर संभालेगा. उस समय तक भारत एक आदर्श राज्य बन जायेगा.’
(साभार : गांधी मार्ग पत्रिका, नवंबर-दिसंबर, 2017)
गांधीजी ने बिना लाग-लपेट अपनी बात को बहुत साफ-साफ रखा था. डॉ जाकिर हुसैन ने अगला सवाल रखा- ‘क्या हमें एक आदर्श राज्य का शुभारंभ करने और उसे चलाने के लिए आदर्श पुरुषों की आवश्यकता नहीं होगी?’
गांधीजी ने जवाब दिया,’हम स्वयं सरकार में शामिल हुए बिना भी अपनी पसंद के लोगों को सरकार में भेज सकते हैं. आज कांग्रेस में हर आदमी सत्ता के पीछे भाग रहा है. यह बहुत बड़े खतरे का संकेत है. हमें सत्ता-लिप्सुओं की भागदौड़ में शामिल नहीं होना चाहिए.’
(साभार : गांधी मार्ग पत्रिका, नवंबर-दिसंबर, 2017)
यह संवाद लंबा है, लेकिन इन दो सवालों से ही गांधी की पीड़ा और छटपटाहट साफ दिखती है, पर मन में कोई अंतर्द्वंद्व नहीं दिखता. यह पीड़ा सिर्फ इसी संवाद में नहीं दिखती, बल्कि आखिरी दिनों में गांधी की यह पीड़ा अलग-अलग तरीके से बार-बार दिखती थी.
आजादी नहीं मिली थी, महज अंतरिम सरकार बनी थी, पर गांधी सत्ता में बैठे लोगों का आचरण देखकर देश के भविष्य के प्रति चिंतित हो गये.
कहा- ‘हिंदुस्तान की आज की हालत देखकर मुझे उस मुर्गी की मिसाल याद आती है, जो सोने की अंडे देती थी. मुर्गी वाले ने सारे अंडे एक साथ निकालने के लिए उस मुर्गी को मार डाला. आज जो हमारे हाथ में हुकूमत आयी है, वह उसी किस्म की मुर्गी है. हम अब यह उम्मीद करें कि उस मुर्गी के सोने के सब अंडे आज ही निकालकर खा जाएं, तो निश्चय ही वह मुर्गी मरेगी ही, उसके साथ हम भी मरनेवाले हैं.’
(साभार : ‘प्रार्थना प्रवचन’- महात्मा गांधी, राजकमल प्रकाशन)
गांधी जिस मुल्क को एक नयी राह ले जाना चाहते थे, उसकी स्थिति देख कर, चुप नहीं रह सके. उन्होंने कहा- ‘हमारा इतना अधिक अधःपतन हो रहा है. मुझे आज ही इस संस्था कांग्रेस के बुरे दिनों की आगाही हो रही है. सब तरह की पहुंच रखनेवाले और केंद्र में बैठे जैसों के लड़के भी किस तरह पैसा कमाया जाये, इसके लिए धमाचौकड़ी मचाते हैं. सिर्फ कांग्रेस संस्था और खादी की बदौलत मनमाने ढंग से चारों ओर से अंधाधुंध कमाई करते रहें, तो यह सब कहां जाकर रुकेगा? मैं तो यह सब जानकर स्तब्ध हो गया हूं.’
हालात देख कर एक दिन यह भी कहा- ‘मैं सबसे कहूंगा कि हम हिंदुस्तान के बनें, हिंदुस्तान हमारा न बने. हिंदुस्तान एक-एक का बने, तो हिंदुस्तान कहां जाये?’
गांधी ऐसी बातें बार-बार कह रहे थे. अद्भुत जीवटता थी उनमें. उनकी बातों से लगता था कि वह निराशा के गर्त में जा रहे हैं, लेकिन वह किसी हताश-निराश व्यक्ति की तरह चुप नहीं बैठे. अपनी बात कहना और गीता के भाव के तहत अनासक्त कर्मयोगी की उनकी भूमिका बनी रही. उन दिनों गांधी को देख कर शाही वंश के माउंटबेटन का दर्प भी पिघल गया. जब माउंटबेटन दिल्ली पधारे, गांधी बिहार के गांवों में हिंसा-पाशविकता से अकेले जूझ रहे थे. माउंटबेटन ने अपना व्यक्तिगत विमान उन्हें लाने के लिए बिहार भेजने की पेशकश की, लेकिन गांधी सामान्य संदर्भ में महान नहीं थे.
महानता को उन्होंने एक नया आयाम दिया. वह दिल्ली आये, पर वाइसराय के विमान से नहीं, रेल के तीसरे दरजे में. जब गांधी के अदने सेवक सत्ता की दुनिया में रम गये थे, उन दिनों गांधी अकेले गरमी-लू के थपेड़ों से झुलसते, देश के उन्मादग्रस्त जगहों में बर्बरता और आक्रोश से जूझ रहे थे.
माउंटबेटन से मिलने जब गांधी पहुंचे, तो वह बहुत उदास-खिन्न थे. बातचीत में गांधी ने कहा कि अपरिग्रह उनका ध्येय है. गीता, खाने के बरतन, तीन मशहूर बंदर और अंगरसोल घड़ी, यही उनकी कुल संपत्ति थी. पटना से दिल्ली आते हुए तीसरी श्रेणी में किसी ने गांधी की घड़ी चुरा ली थी. माउंटबेटन को लगा कि गांधी घड़ी जाने से चिंतित नहीं हैं, बल्कि अपनी आस्था, अपने जीवन के आदर्शों की हत्या होते देख वह टूट रहे थे. जिस मुल्क में नयी रोशनी लाने के लिए वह आधी शताब्दी से भी अधिक सक्रिय रहे, वहां लोग अभी चोरी भी न छोड़ सके थे. मांउटबेटन को लगा कि घड़ी की बात कहते समय उनकी आंखों से पीड़ा बह निकलेगी, लेकिन गांधी की आस्थाओं पर तो चौतरफा प्रहार हो रहा था.
दिल्ली की भंगी कॉलोनी में मई, 1947 में गांधी कांग्रेस महारथियों की बंटवारे संबंधी दलीलें सुन रहे थे. अपनी इसी झोपड़ी में महज 15 दिनों पूर्व उन्होंने बंटवारे के खिलाफ अपने इन्हीं सहयोगियों को समझाया-बुझाया था. उन्होंने कहा कि बंटवारा शल्य चिकित्सा नहीं है. इससे इस उपमहाद्वीप में मानव संहार का खतरा है. मित्र-पड़ोसी आपस में एक-दूसरे के जानलेवा शत्रु बन जायेंगे. खून की नदियां बहेंगी. आनेवाली पीढ़ियां शताब्दियों तक बंटवारे के इस नासूर को झेलती रहेंगी.
गांधी की ये आशंकाएं भविष्य में शब्दश: सच हुईं, लेकिन एक मई 1947 की शाम ही आगत भविष्य की पीड़ा से गांधी विचलित थे. उस रात वह सो नहीं सके. अपने एक मित्र से उन्होंने कहा भी, ये (नेता) मुझे महात्मा कहते हैं, लेकिन भंगी के साथ जो सलूक होना चाहिए, वैसा सलूक भी मुझसे नहीं करते. बहुत पीड़ित होकर उस शाम उन्होंने कांग्रेसी नेताओं के सामने आर्तनाद किया था, ‘अंगरेजों से कहो कि हमें अव्यवस्था, अराजकता और भगवान के भरोसे छोड़ कर चले जाएं. हम खुद इस आग के दरिया से गुजरने के बाद पाक हो जायेंगे.’
गांधी की यह आवाज अकेले में प्रलाप कर रहे, असाध्य कष्ट से छटपटाते एक व्यक्ति की पीड़ा थी. गांधी के सहयोगी नेता थके योद्धा थे. उन्हें सत्ता मोह खींच रहा था. भारत-विभाजन का मन बना लेने और ब्रिटेन में गद्दीनशीन हुक्मरानों से इजाजत ले लेने के बाद भी माउंटबेटन अपनी योजना की सफलता के बारे में आशंकित थे.
हालांकि उस समय के देश के कई चोटी के नेता और गांधी के खासमखास पहले ही माउंटबेटन योजना को स्वीकृति दे चुके थे. माउंटबेटन ने उन दिनों को याद करते हुए बाद में कहा भी कि मुझे अजीब लगता था. कांग्रेस के चोटी के नेता और गांधी के करीबी, सभी उनके खिलाफ और मेरे साथ थे. ये सब मिल कर गांधी को मेरे माध्यम से चुनौती देने के लिए मुझे उकसा रहे थे.
जिस दिन माउंटबेटन लंदन से भारत-विभाजन का मसविदा स्वीकार करा कर दिल्ली लौट रहे थे, उसी शाम गांधी ने अपनी प्रार्थना सभा में कहा कि पूरे राष्ट्र को जलने दो, लेकिन हम देश नहीं बंटने देंगे. गांधी ने अपने एक नौजवान सहयोगी से कहा कि आज सभी लोग मेरी तसवीरों और मूर्तियों को माला पहनाने के लिए उतावले हैं, लेकिन मुझे कोई छूता नहीं. उनका इशारा देश के बड़े नेताओं की ओर था. उन्हीं दिनों एक रात गांधी आत्मप्रलाप कर रहे थे, जिसे बगल में लेटी मन्नु ने सुना- ‘आज मैं अकेला हो गया हूं.
यहां तक कि नेहरू और पटेल भी यह मानते हैं कि मैं गलत हूं और उन्हें यकीन है कि बंटवारे के बाद शांति कायम होगी. काश, मैं आज इतना बूढ़ा न होता… शायद वे सभी सही हैं, मैं अकेले, अंधेरे में छलांग लगा रहा हूं.’ फिर कुछ देर अंधेरे में करवटें बदलने के बाद गांधी बुदबुदाये, शायद यह सब देखने के लिए मैं जीवित न बचूं, लेकिन क्या मुझे जिन विपत्तियों की आशंका है, उनसे भारत और उसकी स्वतंत्रता को छिन्न-भिन्न होने दूं? आने वाली पीढ़ियां कम-से- कम यह जान सकें कि यह सब कुछ सोच कर किस पीड़ा से मैं गुजरा.
अगले दिन शाम में घूम कर लौटने के बाद गांधी अपने पैर धो रहे थे, तो उन्हें भारत-विभाजन के अंतिम निर्णय की सूचना मिली. तीन जून, 1947 को भारत-पाक के भावी भाग्य निर्माताओं ने ऑल इंडिया रेडियो से विभाजन की खबर देशवासियों को दी. चार जून की शाम माउंटबेटन को सूचना मिली कि गांधी कांग्रेसी नेताओं से नाता तोड़ने और विभाजन को नकारने की घोषणा अपनी प्रार्थना सभा में करने वाले हैं. तत्काल माउंटबेटन ने गांधी के पास संदेशवाहक भेजा. गांधी-माउंटबेटन की मुलाकात हुई.
माउंटबेटन ने गांधी को देखते ही भांप लिया कि गांधी उस चिड़िया की तरह फड़फड़ा रहे हैं, जिसके पंख नोच लिये गये हों. वह बार-बार पीड़ा से अपने हाथ ऊपर-नीचे उठाते रहे और कहते रहे कि यह अति भयानक है. माउंटबेटन को लगा कि गांधी ऐसी स्थिति में कुछ भी कर सकते हैं और जब गांधी विभाजन के खिलाफ हो जायेंगे, तो फिर क्या होगा? माउंटबेटन को सूझ नहीं रहा था कि गांधी से बातचीत की शुरुआत कहां से की जाये. तब माउंटबेटन ने उन्हें उनके अभिन्न शिष्यों द्वारा योजना को स्वीकार करने की बात उठायी. गांधी ने सब सुन कर चुप्पी साध ली. आधे घंटे तक माउंटबेटन की दलीलें सुनने के बाद वह चुपचाप लौट आये. टीकाकारों ने लिखा है कि अपनी संपूर्ण योग्यता और राजनयिक क्षमता का प्रदर्शन माउंटबेटन ने उसी आधे घंटे में किया था.
जून में ही मुल्क में सूखा पड़ा. गांधी ने अपना खाना कम कर दिया. जीवित रहने के लिए जो मात्रा आवश्यक थी, गांधी उतनी ही लेते. गांधी ने कहा कि सभी मंत्री खादी पहनें और साधारण घरों में रहें. नौकर न रखें, उनके पास वाहन न हो, वे जातिवाद के विरोधी हों, कम-से-कम एक घंटा खेत में काम करें और अन्न और सब्जी उगाएं, ताकि खाद्य संकट को हल किया जा सके. मंत्रियों के पास विदेशी फर्नीचर, टेबल, कुर्सियां न हों और न बॉडीगार्ड हों. गांधी की कल्पना यहां तक थी कि आजाद भारत का कोई भी मंत्री अपना पाखाना खुद साफ करने में हिचकेगा नहीं, लेकिन इस उपमहाद्वीप में एक नयी आग सुलग रही थी.
जुलाई, 1947 में ही सांप्रदायिक हिंसा फूट पड़ी. पश्चिमी पंजाब से आनेवाले शरणार्थियों का सैलाब भारत की ओर उमड़ चुका था. पहले खेप में आये 32 हजार शरणार्थियों के कैंप में गांधी पंडित नेहरू के साथ गये. गांधी जब उन लोगों के बीच पहुंचे, तो बिलखते, क्रोध से फुफकारते, घृणा से भरे शरणार्थियों की सूनी निगाहें गांधी की सूखी काया पर अटक गयीं.
अशक्त और घायल शरणार्थियों के घाव अभी सूखे नहीं थे. मरे या भूले स्वजनों की याद में बिलखते लोगों की भीड़ में भविष्य की एक झलक देख कर नेहरूजी सहम गये. गांधी दिन भर शरणार्थियों की सेवा करते रहे. शौच-सफाई और छोटी-छोटी समस्याओं के बारे में उन्हें बताते रहे.
शाम में दिल्ली के लिए 77 वर्षीय गांधी नेहरूजी के साथ रवाना हुए. कार की पीछली सीट पर बैठे गांधी सो गये.
नेहरूजी कभी गांधी के सौम्य चेहरे को निहारते, कभी अपना सिर थाम लेते. आसमान में टकटकी लगाये वह कहीं खो गये. गोधूलि में गांधी की नींद खुली. उन्होंने गाड़ी रुकवायी, उतरे और प्रार्थना के लिए सड़क के किनारे बैठ गये. गीता के कुछ अंश पढ़े और भगवान से दुआ मांगी कि उनके सपनों के भारत में आगे ऐसा कुछ भी न हो, जो वह देख कर लौट रहे थे. इस सुनसान जगह पर गहराते अंधेरे में गांधी का प्रलाप सुन रहे थे पंडित नेहरू. टूटे और निराश गांधी की लड़खड़ाती आवाज में प्रार्थना सुन कर पंडित नेहरू ने अपनी डबडबायी आंखें मूंद लीं.
गांधी ने तय कर लिया था कि 15 अगस्त के दिन वह नोआखाली के भयभीत व सहमे लोगों के बीच रहेंगे. प्रार्थना करेंगे और चरखा कातेंगे, लेकिन परायी पीर की आग में झुलसने वाले गांधी कलकत्ता से अलग कैसे रह सकते थे? भारत को स्वाधीनता मिलने के 36 घंटे पूर्व महात्मा गांधी कलकत्ता पहुंचे. अंगरेजों से लड़ने नहीं, अपने ही देश में फैलती घृणा और आपसी वैमनस्यता से जूझने.
स्वाधीनता मिलने के 36 घंटे पूर्व भी
परायी पीर के गांधी
उन्हीं दिनों राज्य सत्ता जब उन्मत्त हिंसा से हार गयी, तो गांधी के सामने उसे नत होना पड़ा. कलकत्ता में जो हिंसा का तांडव शुरू हुआ, उसे माउंटबेटन और देश की सरकार नहीं रोक सकी. अंतत: माउंटबेटन ने गुहार लगायी, ‘गांधीजी, आप कलकत्ता जाइए, हमारी पूरी ताकत लग चुकी है, लेकिन हम असफल रहे, अब आप ही बचा सकते हैं.’
माउंटबेटन के अनुरोध के बावजूद गांधी कलकत्ता जाना नहीं चाहते थे. उन्होंने तय कर लिया था कि 15 अगस्त के दिन वह नोआखाली के भयभीत व सहमे लोगों के बीच रहेंगे. प्रार्थना करेंगे और चरखा कातेंगे, लेकिन परायी पीर की आग में झुलसने वाले गांधी कलकत्ता से अलग कैसे रह सकते थे? भारत को स्वाधीनता मिलने के 36 घंटे पूर्व महात्मा गांधी कलकत्ता पहुंचे. यह उनके जीवन का सबसे कठिन और दुखद संघर्ष था. वह कलकत्ता अंगरेजों से लड़ने नहीं, अपने ही देश में फैलती घृणा और आपसी वैमनस्यता से जूझने पहुंचे थे. बेलियाघाटा के गंदे इलाके में स्थित हैदरी हाउस में वह ठहरे. उस टूटे-फूटे घर में कोई इंतजाम नहीं था.
गंदगी, कीचड़ और बदबूदार इलाके में स्थित ‘हैदरी हाउस’ के आसपास इतनी मात्रा में ब्लिचिंग पाउडर छिड़का गया कि सांस लेने में दिक्कत हो रही थी. ‘हैदरी हाउस’ में जब गांधी आये, तो उनके इंतजार में वह भीड़ थी, जिसका मन उन्हें बदलना था. मुस्लिम लीग के आह्वान पर सीधी कार्रवाई के दिन जिन लोगों ने अपने आत्मीय लोगों को घुट-घुट कर मरते देखा था, महिलाओं-बच्चों के साथ हुई बर्बरता के जो साक्षी थे, वे गांधी के इंतजार में ‘हैदरी हाउस’ के बाहर खड़े थे. जैसे ही गांधीजी वहां पहुंचे, उन पर पत्थर और बोतलों की बौछार हुई. पत्थरों की बौछार के बीच गांधी अकेले इस बेचैन, व्यथित और आत्मनियंत्रण खो चुकी भीड़ के बीच पहुंच गये. जो लोग पत्थर और शीशे फेंक रहे थे, वे जड़ और स्तब्ध होकर गांधी को निहारने लगे. गांधी ने कहा, ‘मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हूं. मुझे अब बहुत दूर नहीं जाना है. अगर आप फिर अपने होश-हवास खो बैठते हैं, तो यह देखने के लिए मैं जिंदा नहीं रहूंगा.’
गांधीजी ने इन लोगों के प्रतिनिधियों को बातचीत करने के लिए बुलाया, फिर अपने साथियों के साथ टुटहे ‘हैदरी हाउस’ में चले गये. तब तक सुहारावर्दी आ पहुंचे. उन्हें देख कर बिखरती भीड़ पागल हो गयी. ‘हैदरी हाउस’ के चारों ओर पत्थरों की बौछारें होने लगी. पूरे घर के शीशे चकनाचूर हो गये. गांधीजी शांत बैठकर खतों के जवाब लिखते रहे. सुहरावर्दी को लेकर गुस्सा इसलिए था कि साल भर पहले ढेरों हिंदुओं का घर उजाड़ते हुए मौत की नींद सुलाये जाने का तोहमत उन पर था.
सुहरावर्दी की पहचान हिंदुओं से नफरकर्ता के रूप में ही थी, लेकिन वही सुहरावर्दी उस दिन गांधी के पास अपने तमाम अपराध कुबूल करने आये थे. अमन का पैगाम लेकर. गांधी अपने काम में लगे रहे. भारत की आजादी के चंद घंटों पहले ही उस निहत्थे बूढ़े पर जानलेवा हमला हुआ था, जिसने हिंदुस्तान के इतिहास को एक नया मोड़ दिया.
कलकत्ता श्मशान हो चुका था. लोग खुद अपने साये से भयभीत थे. अपनी सांस की आवाज सुनकर लोगों की धड़कनें तेज हो जाती थीं. कलकत्ता में चंगेज खां, नादिरशाह मुहल्ले-मुहल्ले पैदा हो गये थे. वहां जो भयानक दंगे हुए, उनमें छह हजार लोग मारे गये. इसकी प्रतिक्रिया नोआखाली और बिहार में हुई. गांधी ने कहा, मेरे सपनों का बिहार मर गया. 14 अगस्त की शाम कलकत्ता में उनकी प्रार्थना सभा में दस हजार लोगों की भीड़ आयी. उस दिन गांधी पूरे दिन हिंदुओं को अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे. उस शाम उन्होंने कहा- ‘आज आधी रात से भारत आजाद हो जायेगा. अंगरेजों से हमें मुक्ति मिल गयी, लेकिन देश की एकता खत्म हो गयी. इसलिए खुशी के साथ-साथ यह दुख का अवसर भी है. इस अवसर पर जो दुखी लोग है, मैं उनमें से एक हूं.’ उन्होंने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि 15 अगस्त के दिन भारत की मुक्ति के लिए उपवास करें, चरखा कातें.
भारत के इतिहास में वह चिर प्रतीक्षित घड़ी भी आयी, जिसका सदियों से इंतजार था. आधी रात को जब दुनिया सो रही थी, भारत जग रहा था. हजारों साल के बाद एक नये भारत का उदय हो रहा था. इतिहास में ऐसे क्षण बमुश्किल ही आते हैं. पूरी रात जश्न. नेताओं के उत्साह-उमंग की कोई सीमा नहीं थी. देश के सुदूर गांवों में भी लोग थिरक रहे थे, लेकिन जो सेनापति इस देश को उस मुकाम तक पूरी तन्मयता-लगन और अनोखे रास्ते से ले गया था, वह 151 बेलियाघाटा रोड में उस ऐतिहासिक रात सो रहा था या जग रहा था, नहीं पता ? पर वहां न पटाखे थे, न दिवाली थी, न थिरकती-उल्लास से भरी भीड़ थी. हैदरी हाउस के उस सुनसान घर में, उस गेट पर टिमटिमाती रोशनी में कुछ हिंदू-मुसलमान स्वयंसेवक साथ मिल कर पहरा जरूर दे रहे थे. गांधी के सहयोगी नीचे के एक कमरे में सो रहे थे. गांधी के पास गीता, नकली दांत और चश्मा, यही कुल संपत्ति थी. इतिहास में ऐसी मिसाल कठिन है. जिस क्षण के लिए गांधी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. वह क्षण आया और गांधी मूक दर्शक बन गये. अकेले हो गये. उनकी उस क्षण की पीड़ा और दर्द के बारे में शायद बहुत ही कम लिखा गया है. हां, जो गांधी के कंधों पर उछल कर शिखर पर पहुंच गये, वे भी इस ऐतिहासिक अवसर पर गांधी को भूल गये.
गांधीजी ने 15 अगस्त, 1947 को बयान दिया- ‘मैं इतना जरूर मानता हूं कि 15 अगस्त किसी तरह उत्सव मनाने का दिन नहीं है, यह दिन प्रार्थना और अंतर्विचार का है. या तो 15 अगस्त को सब भाई-भाई मिलकर खुशी मनाएं या बिल्कुल नहीं. आजादी की खुशी मनाने का दिन तब ही हो सकता है, जब हम (हिंदू-मुसलमान, हिंदुस्तान-पाकिस्तान) सच्चे दिल से दोस्त बनें, लेकिन यह तो मेरा विचार है और इस विचार में मुझे कोई साथ देनेवाला नहीं है.’
कलकत्ता में गांधी के आने के बाद एक भी वारदात नहीं हुई, उनकी सभाओं में लाखों लोग जुटते. जो हिंदू-मुसलमान चंद दिनों पूर्व तक एक-दूसरे के खून के प्यासे थे, वे गलबहियां डाले, गांधी के मकसद को साकार करने में लग गये. अंतत: सरकार में शामिल नेताओं ने नहीं, लार्ड माउंटबेटन ने गांधी को लिखा, ‘जिस पंजाब में हमारी 55 हजार फौज तैनात है, वहां रोज सैंकड़ों हत्याएं, अमानुषिक काम हो रहे हैं, लेकिन बंगाल में सिर्फ आप हैं और कुछ नहीं हो रहा. अंतिम वाइसराय के रूप में आपकी उपलब्धियों के सामने मैं नतमस्तक हूं.’
पर देश के अन्य जगहों पर तो नफरत, द्वेष और उन्माद की आंधी चल रही थी. हिंसा की वह लहर कलकत्ता भी पहुंची. यहां भी छिटपुट वारदातें हुईं. गांधी जहां ठहरे थे, वहां झड़पें हुईं, उन पर हमला भी हुआ. गांधीजी ने तब अपना अंतिम अस्त्र छोड़ा. वह आमरण अनशन पर बैठे. अपने सहयोगियों को उन्होंने बताया, या तो कलकत्ता में सच्ची शांति होगी या मैं मरूंगा.
उसी समय से लोग गांधी के जीवन के लिए बेचैन हो उठे. उपवास के तीसरे दिन कलकत्ता के 23 भयंकर अपराधियों ने गांधी के सामने आत्मसमर्पण किया. साथ में अपने हथियारों का जखीरा भी लाये. उनकी आवाज भर्रा रही थी. उन्होंने अपनी गलती कबूल की और गांधी से उपवास तोड़ने का आग्रह किया. इसके बाद तो अपराधियों का तांता लग गया. सबने अपना अपराध कबूल किया और गांधी से कहा, आप जो भी दंड देंगे, हमें स्वीकार्य है, पर आप उपवास तोड़ें. हैदरी हाउस में अपराधियों ने जो अस्त्र-शस्त्र छोड़े थे, उन्हें ट्रकों से हटाया गया. राजगोपालाचारी की लिखित सूचना प्रसारित हुई कि कलकत्ता में अब एक भी घटना नहीं हो रही है. गांधी ने अपना उपवास तोड़ा.
राजगोपालाचारी तब कलकत्ता के गवर्नर थे, उन्होंने लिखा कि गांधीजी की अनगिनत उपलब्धियां हैं, लेकिन कलकत्ता में अमानवीय हरकतों पर उनकी विजय बेमिसाल है. स्वतंत्रता की उपलब्धि से भी बढ़कर, लेकिन दिल्ली में हैवानियत, पाशविकता और क्रूरता का बोलबाला था. चार सितंबर, 1947 को वीपी मेनन ने माउंटबेटन को शिमला से दिल्ली लौटने के लिए फोन किया. मेनन ने कहा कि आप 24 घंटे के अंदर दिल्ली नहीं आयेंगे, तो फिर आने का कोई तुक नहीं, क्योंकि मुल्क हमेशा-हमेशा के लिए मिट जायेगा. प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री बेहद चिंतित हैं, स्थिति काबू से बाहर है.
माउंटबेटन लौट आये. नेहरू-पटेल ने उन्हें फिर से देश संभालने की गुजारिश की. माउंटबेटन स्तब्ध थे. उन्होंने कहा भी कि आप लोग क्या करने जा रहे हैं, अपनी आजादी को फिर हमें सौंप रहे हैं, लेकिन नेहरू-पटेल ने देश बचाने के नाम पर विनती की, इमरजेंसी कमेटी बनी. माउंटबेटन ने अपनी इच्छा से उसमें लोगों को रखा. शर्त रखी कि मेरा निर्णय अंतिम होगा. दोनों नेताओं ने सभी शर्तें मान लीं और देश के शासक एक बार फिर माउंटबेटन हो गये. यह राज और रहस्य बहुत कम लोगों को पता है.
लेकिन दिल्ली और देश की जनता माउंटबेटन की प्रतीक्षा में नहीं थी. उसे तो गांधी का इंतजार था. गांधी दिल्ली आये. वह रोजाना हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों की बस्तियों व शरणार्थी कैंपों में जाते. हर समुदाय का उग्र तबका उन पर अपने गुस्से का इजहार करता, पर गांधी अलग मिट्टी के बने थे. फिर भी शरणार्थियों के बीच जाते. काम करते. ठहरते-समझाते और उन्हें एक कर लौटते. एक शाम वह अकेले अचानक पानीपत पहुंच गये. वहां पाकिस्तान से भारी तादाद में आये शरणार्थी स्थानीय मुसलमानों पर हमला करने के लिए समूह में आगे बढ़ रहे थे. विक्षिप्त उन्मत्त भीड़ से निहत्थे और अकेले गांधी का साबका हो गया.
गांधी को देखकर भीड़ स्तब्ध! वह निहत्थे, उस भीड़ के सामने थे. गांधी ने ही मौन तोड़ा. हथियारों को फेंकने और मुसलमानों से गले मिलने के लिए कहा. भीड़ से आवाजें आयीं, क्या आपके लड़के की हत्या हुई है? आपकी पत्नी-बच्ची से किसी ने बलात्कार किया है? उस उग्र और हिंसक भीड़ के सामने निहत्थे गांधी ने कहा- ‘ हां, हिंदू-मुसलमान-सिख-ईसाई सभी को मैं समान मानता हूं. इनमें से किसी एक समुदाय के एक व्यक्ति की मां-बहन-भाई के साथ जो अत्याचार होता है, मैं समझता हूं कि वह मेरी मां-बहन-भाई के साथ हो रहा है.’ गांधी के आने की खबर पानीपत में आग की तरह फैली. अपने घरों में दुबके, डरे मुसलमान बच्चे-औरतें-बूढ़े और नौजवान निकल आये. जहां चंद क्षणों में खून की नदी बहनेवाली थी, वहां गांधी ने संध्या सभा की.
हिंदू-सिख-मुसलमान गले मिले, लेकिन देश में जो कुछ हो रहा था, उससे मुसलमान आतंकित थे. दो माह बाद पानीपत के हजारों मुसलमान पाकिस्तान चले गये, तो गांधी ने लिखा, ‘मुसलमान पानीपत की चौथी लड़ाई हार गये हैं और मैं भी.’
वर्षों खुद को तपाकर गांधीजी अपने अंदर यह साहस विकसित कर सके थे कि वह उन्मादियों या हिंसक भीड़ के बीच बेधड़क अकेले जाते. आंख से आंख मिलाकर बात करते. एक इंसान के तौर पर उन्हें डर भी लगता होगा, तो कभी उन्होंने इसे जाहिर नहीं होने दिया. याद कीजिए गांधी पर बनी रिचर्ड एटनबरो की कालजयी फिल्म ‘गांधी ‘. उस फिल्म में एक दृश्य है. दक्षिण अफ्रीका में एक दिन गांधी एक श्वेत पत्रकार के साथ रास्ते में चलते हुए बात करते हैं. गांधी जब पत्रकार के साथ निकलते हैं, तो पहले से ही कुछ श्वेत युवा गांधी को रोकने के लिए एक जगह जमा हो जाते हैं.
गांधी जिस श्वेत पत्रकार के साथ बातचीत करते हुए जा रहे होते हैं, वह पत्रकार अपनी ही कम्युनिटी के उन युवाओं को इकट्ठा देख डर जाता है. पत्रकार गांधी को रास्ता बदलने के लिए कहता है. गांधी बातचीत जारी रखते हैं. पत्रकार के आग्रह को ठुकरा देते हैं. वह जिस रास्ते पर, जितनी तन्मयता से जा रहे होते हैं, उसी तन्मयता से आगे बढ़ते हैं. गांधी उन युवाओं के पास पहुंचते हैं. उनकी आंखों में आंख मिलाते हुए तनकर खड़े हो जाते हैं. यह फिल्म का दृश्य नहीं, गांधी के जीवन का एक जीवंत पन्ना है. अहिंसा का शौर्य, आत्मबल और नैतिक ऊर्जा. मनुष्य मात्र की गरिमा को एक नयी ऊंचाई देने वाले गांधी किसी से आंख मिलाते थे, तो उसमें क्रूरता या हिंसा का भाव नहीं होता था. एक निश्चयात्मक आग्रह या नैतिक ताकत या आभा होती थी. वही उनकी ताकत थी, वही साहस भी.
कुछ ऐसा ही एक प्रसंग नेल्सन मंडेला की आपबीती ‘लांग वाक टू फ्रीडम’ में है. टाइम पत्रिका के संपादक रिचर्ड स्टेंगल मंडेला से जुड़ा एक प्रसंग बताते हैं. एक बार मंडेला के साथ वे नेटाल जा रहे थे. छह सीटोंवाले हवाई जहाज से यह यात्रा हो रही थी. जहाज में बैठते ही मंडेला अखबार पढ़ने लगे. अखबार पढ़ना उनका प्रिय शगल था. जहाज उड़ रहा था, तभी जहाज के पंखे में लगे प्रोपेलर ने काम करना बंद कर दिया. मंडेला ने स्टेंगल से कहा कि यह बात पायलट को जाकर बता दे. मंडेला ने बहुत ही आराम से, संयत भाव में यह बात कही. स्टेंगल की हालत खराब थी. डर से बेहाल थे. घबराये हुए स्टेंगल तुरंत पायलट को बताने गये. उधर से लौटे, पाया कि मंडेला उसी तरह अखबारों में खोये हैं.
स्टेंगल ने बताया कि पायलट ने कहा है कि आपातकाल लैंडिंग के लिए पासवाले एयरपोर्ट से संपर्क किया जा रहा है. मंडेला ने स्टेंगल की बात सुनी. फिर अखबार में रम गये. जहाज एयरपोर्ट पर उतरा. स्टेंगल ने मंडेला से पूछा कि आपको डर नहीं लगा? मंडेला ने कहा, अंदर-ही-अंदर कांप रहा था, लेकिन मैं जाहिर कर देता तो तुम, पायलट और दूसरे सभी लोग घबरा जाते.’
स्टेंगल अपने संस्मरण में लिखते हैं कि उस दिन मुझे समझ में आया कि साहस क्या चीज होती है. स्टेंगल ने आगे लिखा है- संभव है कि मंडेला में यह गुण जन्मजात हो और बहुत हद तक संभव है कि उन्होंने अपने गुरु महात्मा गांधी से यह सीखा हो.’ स्टेंगल ने जिस प्रसंग को लिखा है या कि रिचर्ड अपनी फिल्म में जिस दृश्य को दिखाते हैं और दोनों जिस तरह से उसे गांधी के साहस से कनेक्ट करते हैं, वैसे जीवंत प्रसंग गांधी के जीवन में कई बार मिलते हैं. नोआखाली में, हरियाणा में, पंजाब में, बिहार में, कोलकाता में. और भी कई जगह, कई मौकों पर.
स्टेंगल ने मंडेला पर गांधी का प्रभाव दिखाया है. यह बात दुनिया भी जानती है कि मंडेला गांधी को अपना गुरु मानते थे. उनके जीवन पर गांधी का गहरा प्रभाव था, लेकिन गांधी पर किनका
प्रभाव था ? (जारी…)

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