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जलवायु परिवर्तन से भारत की जीडीपी को नुकसान, जानें

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को मानवता के सामने खड़े सबसे बड़े और विनाशकारी संकट के रूप में देखा जा रहा है. पोलैंड में जलवायु परिवर्तन को लेकर हुआ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन समाप्त हो गया है. इस सम्मेलन में भारत सहित लगभग 200 देशों ने भागीदारी की और सभी देशों के प्रतिनिधियों व सिविल सोसाइटी ने […]

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को मानवता के सामने खड़े सबसे बड़े और विनाशकारी संकट के रूप में देखा जा रहा है. पोलैंड में जलवायु परिवर्तन को लेकर हुआ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन समाप्त हो गया है. इस सम्मेलन में भारत सहित लगभग 200 देशों ने भागीदारी की और सभी देशों के प्रतिनिधियों व सिविल सोसाइटी ने जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी चिंताएं भी जाहिर कीं. कातोवित्से शहर में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, इसमें छाये मुद्दों और बहसों पर आधारित है आज का इन दिनों…
तरुण गोपालकृष्णन
कार्यक्रम अधिकारी, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंट
अंतिम अवसर गंवाना आत्महत्या होगी
जलवायु परिवर्तन संबंधी वार्ता में वित्त का प्रश्न हमेशा ही एक बड़ी बाधा बना रहा है. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क सम्मेलन के शासी निकाय (सीओपी) की वार्षिक बैठकों के अंतर्गत आम सहमति से पारित किये जाने वाले निर्णयों में वित्त के मुद्दे का स्थान प्रायः अंतिम रहता आया है.
पेरिस सम्मेलन के ही दौरान विकसित देशों ने वर्ष 2020 तक विकासशील देशों को प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर के नये एवं अतिरिक्त वित्त प्रदान करने पर सहमति प्रकट की थी. पेरिस सम्मेलन ने जलवायु परिवर्तन की आपदा के न्यूनीकरण तथा परिवर्तित घटकों के अनुकूलन के बीच एक संतुलन स्थापित करने का आह्वान भी किया था.
पोलैंड के कातोवित्से शहर में हुए सीओपी की 24वीं बैठक (सीओपी24) ने इस हेतु एक अवसर प्रदान किया, जिसमें जलवायु परिवर्तन की दिशा में हुई अद्यतन प्रगति की समीक्षा कर भविष्य के लिए नये लक्ष्य तय किये जा सकते थे.
पिछले ही सप्ताह वित्त संबंधी स्थायी समिति ने सीओपी24 के वार्ताकारों के लिए एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें यह बताया गया कि विकसित देश वर्ष 2016 के दौरान जलवायु निधिकरण की दिशा में सिर्फ 55 अरब डॉलर की राशि ही इकट्ठी कर सके थे. यह राशि न केवल लक्ष्य से दूर थी, बल्कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन की दिशा में इस राशि का मात्र एक चौथाई ही दिया गया.
कातोवित्से में इस सप्ताह ‘दीर्घकालीन जलवायु वित्त’ पर सहमति का एक मसौदा तैयार हुआ. इस मसौदे में वर्ष 2020 के बाद के जलवायु वित्त को लेकर सिद्धांततः तय किये गये नये लक्ष्य का उल्लेख किया जा सकता था.
चूंकि विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन संबंधी कार्रवाइयों की लागत 100 अरब डॉलर से काफी अधिक होगी (अकेले इस परिवर्तन के प्रति अनुकूलन संबंधी कार्यों में ही 140-300 अरब डॉलर प्रतिवर्ष की लागत आनेवाली है). अतः सीओपी24 द्वारा तय किये गये नये लक्ष्य के उल्लेखनीय रूप से अधिक होने की संभावना व्यक्त की जा रही थी, पर इसके विपरीत, निराशाजनक रूप से इस मसौदे में किसी नये लक्ष्य का कोई उल्लेख नहीं है. इस मसौदे ने खुद को 100 अरब डॉलर के पिछले लक्ष्य पर हुई प्रगति तक ही सीमित रखा तथा विकसित देशों से भी उसी लक्ष्य को हासिल करने का आह्वान किया.
समाधान के तौर पर इस मसौदे में दीर्घावधि निधीकरण पर सिर्फ अधिक तकनीकी कार्यशालाओं और मंत्री-स्तरीय विमर्श के निर्णय की जानकारी दी गयी.
इसमें यह भी नहीं स्वीकार किया गया कि इसी प्रकार पिछले प्रयास भी ज्यादा फलप्रद नहीं हो सके थे. जलवायु वित्त आकृष्ट करने हेतु यह मसौदा विकासशील देशों द्वारा अपने ‘घरेलू क्षमतावर्द्धक माहौल’ एवं ‘नीतिगत ढांचे’ को मजबूत किये जाने की जरूरत का जिक्र भी करता है. सच तो यह है कि इस मसौदे द्वारा इस दिशा में पहली समस्या के रूप में विकसित देशों की बजटीय प्रक्रियाओं का उल्लेख किया जाना चाहिए था.
विकसित देशों के राजनीतिज्ञ एवं नौकरशाह अपने घरेलू हितभागियों को यह यकीन दिलाने में असफल रहे हैं कि उन देशों द्वारा पेरिस में किये गये संकल्प की पूर्ति हेतु अपने बजट में जलवायु वित्त का अलग से प्रावधान करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा न किया जाना ही वह वजह है, जिससे अभी हाल में संपन्न एक ऐसी ही बैठक में ऐसे निधिकरण के लिए करदाताओं द्वारा व्यक्त की जा रही चिंता का जिक्र बार-बार किया जा रहा था. ओबामा प्रशासन द्वारा 3 अरब डॉलर के जलवायु वित्त का वादा ट्रंप प्रशासन ने कुछ इन्हीं वजहों से बगैर सोच-विचार के ही तोड़ डाला.
यदि वार्ताकार इस वित्त की राशि में बढ़ोतरी की ओर कोई अप्रत्यक्ष रास्ता ही अपनाना चाहते हैं, तो विकासशील देशों द्वारा जलवायु वित्त आकृष्ट करने हेतु दी गयी उपर्युक्त सलाहें दरअसल विकसित देशों को देनी चाहिए थीं. इसके साथ ही दीर्घावधि के लिए एक नया वित्तीय लक्ष्य भी बताना चाहिए था.
इनके अतिरिक्त वित्त से संबद्ध कुछ अन्य मुद्दे भी थे, जिनके संबंध में यह मसौदा मौन ही है, जैसे पहले से मौजूद विकास निधि को जलवायु वित्त का नया नाम दे देना या वित्त के अनुदान और ऋण जैसे विभिन्न साधनों में विभेद न करना, आदि. कातोवित्से में पिछले सप्ताह चल रही वार्ताएं मुख्यतः तकनीकी क्षेत्र विशेषज्ञों द्वारा सचालित की जा रही थीं. वित्त एवं उस जैसे अन्य कठिन मुद्दों पर मंत्री-स्तरीय वार्ताएं इस सम्मेलन के अंतिम दौर में हुईं. फिर भी, यह देखना दिलचस्प ही होगा कि सियासी शख्सियतों की मौजूदगी समाधान को लगातार नकारते इस मुद्दे के उलझे धागे किस तरह सुलझा पाती है.
जैसा संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने वार्ताकारों को इस वार्ता की अहमियत का ध्यान दिलाते हुए बीते दिनों कहा, ‘इस अवसर को व्यर्थ गंवाना बेरोक बढ़ते जाते जलवायु बदलाव को थामने के अंतिम अवसर को कमजोर करने के समान है. यह न केवल अनैतिक, बल्कि आत्महत्या करने जैसा कदम होगा.’ इस कथन का ध्यानरखना जरूरी है.साभार : डाउनटूअर्थ(अनुवाद: विजय नंदन) कातोवित्से शहर बना पर्यावरण पर बहस का गवाह अक्तूबर में आयी थी आईपीसीसी की रिपोर्ट?
संयुक्त राष्ट्र के अंतरशासकीय समूह (आईपीसीसी) ने अक्तूबर की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि औसत वैश्विक तापमान साल 2030 तक 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है. यह दुनिया के लिए खतरे की घंटी है.
आईपीसीसी के अनुसार, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वर्तमान रफ्तार अगर जारी रही, तो साल 2030 और 2050 के बीच धरती के तापमान में 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी देखने को मिलेगी. ग्लोबल वार्मिंग की मार ने धरती के तापमान को लगातार बढ़ाया है. रिपोर्ट में यह भी आशंका जतायी गयी है कि आने वाले समय में कोलकाता और कराची जैसे शहर भयानक लू के शिकार हो सकते हैं.
पाकिस्तान और भारत के तापमान में सालाना दो डिग्री सेल्सियस की खतरनाक वृद्धि दर्ज की जा सकती है. भारत के अलावा, दक्षिण एशिया के पाकिस्तान और चीन के अलावा उपसहारा क्षेत्र के अफ्रीकी देश, मध्य पूर्व और पूर्वी एशियाई देशों के शहरों पर भी ग्लोबल वार्मिंग का व्यापक असर दिखायी देगा और ग्लोबल वार्मिंग के क्षेत्रीय आधार पर इन शहरों में हर साल 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान बढ़ने की आशंका है. साल 2050 तक करोड़ों-अरबों लोग भीषण गर्मी व लू से प्रभावित होंगे.
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत जैसे देश की प्रति व्यक्ति विकास दर के आधार पर सकल घरेलू उत्पाद में उल्लेखनीय गिरावट भी दर्ज की जा सकती है. आईपीसीसी की रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर जलवायु संबंधी अन्य परिवर्तनों के प्रति सतर्कता बरतने की बात कही गयी है और कहा गया है कि अगर जरूरी कदम नहीं उठाये गये तो वैश्विक समाज और वैश्विक अर्थव्यवस्था, दोनों में व्यापक बदलाव के लिए मजबूर होना होगा.
ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र तटीय इलाकों में जलस्तर बढ़ने के कारण खतरा पैदा होगा और तटीय इलाकों की लगभग पांच करोड़ आबादी प्रभावित होगी. चीन, बांग्लादेश, मिस्र, भारत, इंडोनेशिया, जापान, फिलीपीन, अमेरिका और वियतनाम के तटीय क्षेत्र इससे प्रभावित होंगे. ग्लोबल वार्मिंग के कारण गरीबी, अकाल का खतरा, व्यापक जल-संकट और फसलों में भारीकमी का सामना भी दुनिया करेगी.
पेरिस जलवायु समझौते के प्रमुख लक्ष्य
दिसंबर 2015 में जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस में हुए सम्मेलन में यूं तो कई लक्ष्य निर्धारित किये गये थे, लेकिन इसके प्रमुख लक्ष्य थे :
वैश्विक औसत तापमान में हाे रही वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए लंबी अवधि का लक्ष्य निर्धारित करना.तापमान वृद्धि को 1.5 °िडग्री तक सीमित रखना, ताकि जलवायु परिवर्तन के जोखिम और प्रभाव को कम किया जा सके.जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की क्षमता का विकास करना.
समझौते से क्यों अलग हुए ट्रंप
पेरिस जलवायु समझौते के तहत सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी लानी थी. इसके लिए समझौते में विकसित व विकासशील देशों के लिए अलग-अलग प्रावधान किये गये थे. विकासशील देशों के कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए आर्थिक सहायता व कई तरह की छूट का प्रावधान किया गया था, जिससे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप नाराज हो गये. असल में ट्रंप भारत व चीन को दिये छूटों से नाखुश थे और इस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया.
भारत मुख्य साझीदार
इस समझौते में भारत मुख्य साझीदार के तौर पर शामिल हुआ था. जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद के साथ अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत की. इस गठबंधन में 121 देश शामिल हैं.
जलवायु सम्मेलन में भारत का पक्ष
पोलैंड के कैटोविस में 2 से 14 दिसंबर तक हुए जलवायु सम्मेलन में भारत ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पेरिस समझौता गैर-विचारणीय था और समान व आम लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों व संबंधित क्षमताओं (इक्विटी एंड कॉमन बट डिफरेंशिएटेड रिस्पॉन्सबिलिटीज एंड रेस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज(सीबीडीआर-आरएस)) जैसे मूलभूत सिद्धांतो से कोई समझौता नहीं हो सकता था. इस सम्मेलन के मंत्री स्तरीय सत्र में भारतीय पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि हम सभी इस बात पर सहमत हैं कि पेरिस जलवायु समझौता गैर-विचारणीय है, इसलिए विकसित व विकासशील देशों के बीच के नाजुक संतुलन को बनाये रखा जाना चाहिए व सीबीडीआर-आरएस जैसे सिद्धांत को इसमें शामिल किया जाना चाहिए.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें गरीब, वंचित और कमजोर वर्गों के साथ खड़ा होना चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे. उन्होंने यह भी कहा कि यह समय समानता और जलवायु न्याय के सिद्धांतों को आधार मानते हुए एकमत होने और एक-दूसरे का समर्थन करने का है ताकि कोई भी पीछे न छूटे.
असम व मिजोरम सर्वाधिक संवेदनशील
पोलैंड जलवायु सम्मेलन में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा 12 हिमालयी राज्यों पर किये गये अध्ययन की एक रिपोर्ट भी पेश की गयी, जिसमें असम व मिजोरम को जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील राज्य माना गया. इस रिपोर्ट में कहा गया कि अपनी भौगोलिक स्थिति और बदहाल आर्थिक व सामाजिक स्थितियों के कारण असम जलवायु परिवर्तन को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील है.
इसी तरह लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र के ढलवां होने के कारण मिजोरम में भी जलवायु परिवर्तन के असर ज्यादा होने की संभावना है. संवेदनशील राज्यों की सूची में जम्मू-कश्मीर को तीसरे स्थान पर रखा गया है. रिपोर्ट पेश करनेवाली टीम में आईआईएससी, बैंगलोर, आईआईटी, मंडी व आईआईटी, गुवाहाटी के वैज्ञानिक शामिल थे.
वैश्विक तापन का प्रभाव भारत होगा सर्वाधिक प्रभावितों में एक
आईपीसीसी यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट की मानें तो वैश्विक तापन बढ़ने से सर्वाधिक प्रभाव होनेवाले देशों में भारत भी एक होगा. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत जैसे कृषि अर्थव्यवस्था वाले देशों को वैश्विक तापन के दुष्प्रभाव की वजह से गर्म हवा, बाढ़ व सूखा का सामना करने के साथ ही पानी और खाद्यान्नों की कमी से भी जूझना पड़ेगा, जिससे गरीबी बढ़ेगी और भोजन व जीवन के लिए असुरक्षा उत्पन्न हो जायेगी.
अरब सागर के नजदीक उत्तरी हिंद महासागरीय इलाकों में बाढ़ और श्रेणी 4 और 5 के उष्णकटिबंधीय चक्रवात के साथ ही भारी बारिश होने का उच्च खतरा उत्पन्न होगा.
गर्मी की अवधि बढ़ जायेगी, कोलकाता को गर्म हवा के झोंकों का सामना करना पड़ सकता है.समुद्र का स्तर ऊपर उठने से तटीय इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ेेगा और तटीय पारिस्थितिक तंत्र के नुकसान से वहां रहनेवालों के जीवन को उच्च खतरा पैदा हो सकता है.
गंगा-ब्रह्मपुत्र और महानदी के मुहाने के आसपास रहनेवाले लोगों के जीवन पर खतरा मंडरा सकता है.आर्थिक विकास पर खासा प्रभाव पड़ने की संभावना है.
मक्का, चावल, गेहूं और दूसरे अनाजों की पैदावार कम होने से खाद्य पदार्थों की उपलब्धता प्रभावित होने के साथ ही चावल और गेहूं की पोषक गुणवत्ता में भी कमी आने की संभावना है.
तापमान बढ़ने व खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता प्रभावित होने से पशुधन पर बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ने, बीमारियां फैलने और पानी के स्रोतों में कमी आने की संभावना भी इस रिपोर्ट में जतायी गयी है.मलेरिया और डेंगू जैसे कीट जनित रोग बढ़ सकते हैं.
जलवायु परिवर्तन से भारत की जीडीपी को नुकसान
वैश्विक तापन में वृद्धि को अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम नहीं िकया गया, तो पूरी दुनिया को इस वृद्धि के दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ेगा. जहां तक भारत की बात है, तो जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिमों के कारण प्रतिवर्ष उसकी जीडीपी को 1.5 प्रतिशत का नुकसान उठाना पड़ रहा है. वैश्विक तापन में मौजूदा एक डिग्री सेल्सियल के इजाफे से हमारे कृषि क्षेत्र के पैदावार में 4 से 5 फीसदी की कमी दर्ज की जा चुकी है. अगर तापमान को 1.5 डिग्री से अधिक बढ़ने दिया गया तो भारत निर्जन और गरीब भी हो जायेगा.

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