यूरोपीय चुनाव परिणाम ने महादेश की राजनीति में चल रही खींचतान को फिर से रेखांकित किया है. भले ही यूरोपीय संघ के पक्ष में अब भी बड़ा बहुमत है, लेकिन धुर-दक्षिणपंथ ने भी अपनी ताकत बढ़ायी है. ग्रीन पार्टियों की बड़ी सफलता यह इंगित करती है कि पर्यावरण और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा यूरोपीय जनमानस की प्रमुख चिंताओं में है.
चूंकि सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राइट खेमे बहुमत नहीं जुटा सके हैं, तो महत्वपूर्ण मुद्दों पर ग्रीन समूह और पॉपुलिस्टों को साधने की कवायद करनी पड़ेगी.इटली, ब्रिटेन और फ्रांस में उग्र-राष्ट्रवादी और यूरोपीय संघ के विरोधी पहले स्थान पर आये हैं. हंगरी और पोलैंड में भी उन्हें उल्लेखनीय सफलता मिली है. ये परिणाम यूरोप की राजनीति के साथ वैश्विक परिदृश्य को भी प्रभावित करेंगे.
जनादेश के मुख्य बिंदु
बीते 26 मई को यूरोपीय संघ की संसद के लिए चुनाव हुए जिसमें परंपरागत मध्यमार्गी गठबंधन को पहले के मुकाबले कम सीटें प्राप्त हुई हैं.
सेंटर-लेफ्ट, सेंटर-राइट गठबंधन ने खोया बहुमत
सेंटर-राइट ग्रुप, यूरोपीयन पीपुल्स पार्टी और सेंटर-लेफ्ट प्रोग्रेसिव अलायंस ऑफ सोशलिस्ट व डेमोक्रेट्स ने यूरोपीय संघ संसदीय चुनाव में अपना बहुमत खो दिया है. इस गठबंधन को चुनाव में 43 प्रतिशत सीटें मिली हैं, जबकि इससे पहले उनके पास 54 प्रतिशत सीटें थीं. दो ब्लॉक में ही इस गठबंधन को 70 सीटों का नुकसान हुआ है.
धुर-दक्षिणपंथी खेमे को बढ़त
पॉपुलिस्ट व यूरोस्केप्टिक पार्टियों को इस चुनाव में बढ़त हासिल हुई है, लेकिन यह बढ़त छोटी है और यूरोप के भविष्य में बदलाव लाने में सक्षम नहीं है. फ्रांस में मरीन लेपेन की नेशनल रैली’ पार्टी ने एक प्रतिशत से भी कम अंतर से राष्ट्रपति इमैनुएल मैकरां की गठबंधन पार्टी पर जीत दर्ज की. ले पेन की पार्टी को 23 प्रतिशत मत मिले. इटली के उप प्रधानमंत्री मैट्टियो साल्विनी की लीग पार्टी ने 34 प्रतिशत मत प्राप्त कर बड़ी जीत हासिल की.
इटली की लीग पार्टी ही नहीं, फ्रांस की नेशनल रैली व ब्रिटिश लीडर नाइजल फराज की ब्रेक्जिट पार्टी मत प्राप्त करने में अपने-अपने देश में शीर्ष पर रहीं. हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान की नेशनलिस्ट फिडेज पार्टी ने 52 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त किया. ऑस्ट्रिया में कंजर्वेटिव चांसलर सेबेस्टियन कुर्ज की ऑस्ट्रेलियन पीपुल्स पार्टी ने जीत हासिल की, लेकिन विश्वास मत हार जाने के कारण 27 मई को कुर्ज को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
ग्रीन पार्टियों की बड़ी जीत
पर्यावरण के मुद्दों पर काम करनेवाले दलों की गठबंधन, ग्रीन पार्टी ने यूरोपीय संसद में 2014 के मुकाबले 17 अधिक सीटें जीतीं. ग्रीन खेमे को इस बार 69 सीटें मिलीं, जबकि 2014 में इसे 52 सीटेंं प्राप्त हुई थीं. इस जीत के साथ ग्रीन पार्टियां ईयू की चौथी सबसे बड़ी ब्लॉक बन गयीं.
इस समूह की अब तक की यह सबसे बड़ी जीत है. जर्मनी में ग्रीन खेमे को 21 प्रतिशत मत मिले और वह दूसर स्थान पर रही. वर्ष 2014 की तुलना में चांसलर मर्केल की पार्टी को छह प्रतिशत का नुकसान हुआ, जबकि ग्रीन खेमे के मत प्रतिशत में लगभग 10 प्रतिशत का इजाफा हुआ. फ्रांस, नीदरलैंड, आयरलैंड, फीनलैंड, डेनमार्क और बेल्जियम में भी ग्रीन खेमे के मत प्रतिशत में वृद्धि हुई है.
थेरेसा मे की पार्टी का प्रदर्शन रहा बेहद खराब
ब्रेक्जिट के कारण अपने देश के लोगों का भरोसा खो चुकीं ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे की कंजर्वेटिव पार्टी का इस चुनाव में प्रदर्शन बहुत खराब रहा और वह पांचवें स्थान पर रही. नाइजल फराज की ब्रेक्जिट पार्टी ने 30 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त किया, जबकि कंजर्वेटिव पार्टी को महज 8.7 प्रतिशत मत ही मिले. वर्ष 1830 के बाद से कंजर्वेटिव पार्टी का यह सबसे खराब प्रदर्शन है. लेबर पार्टी के मत प्रतिशत में 2014 की तुलना में 10 प्रतिशत प्वाइंट की कमी आयी.
क्या है यूरोपीय संसद
यूरोपीय संघ में कार्यकारी और विधायी शक्तियां रखनेवाले तीन राजनीतिक संस्थाएं हैं. सदस्य देशों की सरकारों का प्रतिनिधित्व काउंसिल करती है. नागरिकों का प्रतिनिधित्व संसद के जिम्मे है तथा कमीशन यूरोपीय हितों की पैरोकार है.
किसी विधेयक का प्रस्ताव रखने का विशेषाधिकार यूरोपीय कमीशन के पास है. संसद अन्य संसदों की तरह बजट पर भी निर्णय नहीं ले सकती है. लेकिन यूरोपीय संघ के सभी कानूनों को संसद के बहुमत की मंजूरी के बाद ही सभी 28 सदस्य देशों में लागू किया जा सकता है.
स्थापना के समय संसद के अधिकार सीमित थे, पर संघ के विस्तार के बाद इस संस्था को काउंसिल के साथ विधायी शक्तियां मिलीं. वर्तमान में संसद में 751 सीटें हैं, पर ब्रिटेन के संघ से बाहर निकल जाने के बाद यह संख्या घटकर 705 हो जायेगी. देशों की जनसंख्या के अनुपात से यूरोपीय संसद में उनका प्रतिनिधित्व निर्धारित होता है.
सर्वाधिक आबादी का देश होने के नाते जर्मनी के खाते में 96 सीटें हैं, जबकि माल्टा और लक्जमबर्ग के छह-छह सांसद होते हैं.
हर देश में समानुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार पार्टियों को मिले वोटों के आधार पर सीटों का बंटवारा होता है. यूरोपीय संसद में जगह पाने के लिए किसी पार्टी को अपने देश में कम-से-कम पांच प्रतिशत मत हासिल करना होता है.
यूरोपीय संसद में अभी आठ समूह हैं जिनमें विभिन्न देशों की पार्टियां वैचारिक निकटता के अनुसार शामिल होती हैं. एक राजनीतिक समूह के गठन के लिए सात अलग-अलग देशों के कम-से-कम 25 सांसदों की जरूरत होती है.
जर्मनीः मर्केल युग का अंत
बीता रविवार जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) के लिए बेहद ही खराब रहा. इन चुनावों में जर्मनी की सबसे पुरानी लोकतांत्रिक पार्टी यूरोपीय स्तर पर 16 फीसदी से कम पर आ गयी. वहीं जर्मन राज्य ब्रेमेन में रविवार को स्थानीय चुनाव भी एसपीडी के पक्ष में नहीं रहे. पिछले 73 सालों से ब्रेमेन में एसपीडी की सत्ता थी, लेकिन इन चुनावों में पहली बार सीडीयू ने जीत हासिल की.
पार्टी को मिले इस दोहरे झटके के गंभीर परिणाम होंगे. ये नतीजे साबित करते हैं कि पार्टी अब अपने आखिरी पड़ाव पर है. साथ ही भविष्य में किसी भी संभावना के लिए पार्टी के सामने पुनर्मूल्यांकन ही इकलौता विकल्प है. ब्रसेल्स में अगले कुछ दिनों तक ये बहस चलती रहेगी कि किस पार्टी को कौन से पद संभालने हैं. वहीं जर्मनी में बहस और भी मौलिक होगी. यह सवाल पूछा जा सकता है कि सत्ताधारी गठबंधन कब तक स्वयं को और देश को परेशान करता रहेगा?
इन नतीजों के बाद पूरी संभावना है कि 14 साल तक चले मर्केल युग का एसपीडी द्वारा अंत कर दिया जाये, जिसके बाद इस साल के अंत तक देश में चुनाव हो जाएगा. वह ऐसा चुनाव होगा जिसमें तमाम तरह के सवाल उठेंगे. सारी अनिश्चितताओं के बीच यही निश्चित है कि अब अंगेला मर्केल फिर से चुनावों में नहीं खड़ी होनेवाली है.
– इनेस पोल, वरिष्ठ पत्रकार, डीडब्ल्यू में प्रकाशित लेख का अंश
डटी हुई हैं मध्यमार्गी पार्टियां
यूरोप एक जटिल जगह है, जो 28 घरेलू राजनीतिक दृश्यों का मिश्रण है, और हमें अति-सरलीकरण की चाह से बचना चाहिए. यह सकून की बात हो सकती है कि जर्मनी और स्पेन की धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों का प्रदर्शन इस खेमे की अन्य पार्टियों से कमतर रहा है और उन्हें हालिया राष्ट्रीय चुनावों से कम वोट मिले हैं. लेकिन फ्रांस से ऐसा भरोसा नहीं मिला है और राष्ट्रपति मैकरां को यूरोपीय संघ से जुड़ी अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.
इसी तरह हजारों घावों से सामाजिक लोकतंत्र की समाप्ति की बातें जर्मनी की एसपीडी या फ्रांसीसी सोशलिस्टों के लिए सही हो सकती हैं, पर नीदरलैंड और स्पेन में स्थिति बिल्कुल उलट है.
स्पेन के युवा समाजवादी प्रधानमंत्री ने न्यूनतम मजदूरी तथा लैंगिक समानता बढ़ाने के उपाय निकाले हैं. हंगरी के विक्टर ओरबान, अपनी जीत का दावा कर सकते हैं (याद रहे, वे अपने देश में मीडिया के अधिकांश भाग को नियंत्रित करते हैं), लेकिन मध्य यूरोप के दक्षिणपंथी पॉपुलिज्म के एकछत्र केंद्र बनने की जल्दबाजी में की गयी बातों को इन नतीजों से झटका लगा है.
पोलैंड के यूरोप-समर्थक विपक्ष को अब लग रहा है कि इस साल के आम चुनाव में उसके पास मजबूत चुनौती देने का मौका है. इसी बीच स्लोवाक और रोमानियाई लोगों (खासकर यूरोपीय संघ के देशों में रह रहे नागरिक) ने उस भ्रष्ट सत्ता तंत्र पर ठोस हमला बोला है, जो उनकी राष्ट्रीय सरकारों के बड़े हिस्से को नियंत्रित करता है.
यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि यूरोप का धुर-दक्षिणपंथ यूरोपीय संसद में एक गुट में संगठित होने में कितना सफल होगा. लेकिन इन नतीजों में प्रगतिशीलों के लिए आशान्वित होने के अनेक कारक हैं, जिनकी कम ही उम्मीद जतायी जा रही थी- जैसे, दक्षिणपंथी पॉपुलिज्म की स्याह ताकतों के खिलाफ बड़ी संख्या में नागरिकों की लामबंदी. यूरोपीय नागरिक की नजर में गुस्से में छोड़ देने के बजाय कुछ मूलभूत मूल्य और उपलब्धियां को सहेजना जरूरी लगा है. शायद यूरोप के राजनीतिक परिवेश में सामान्य समझ और उदारता हमारी आशंकाओं से कहीं अधिक है. मध्यमार्गी शक्तियां डटी हुई हैं.
– नताली नौगायरेदे, द गार्डियन में छपे लेख का हिस्सा
फ्रांसः मैकरां को झटका, पर खतरा नहीं
चुनाव नतीजे इंगित कर रहे हैं कि 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में मैकरां और लेपेन फिर आमने सामने होंगे और जीत निश्चित रूप से मैकरां की होगी. फ्रांस की अर्थव्यवस्था में ठोस सुधार हो रहा है. बेरोजगारी दर (8.4 प्रतिशत) 10 साल के सबसे निचले स्तर पर है. विदेशी निवेश में भी अच्छी बढ़त है. लेपेन का आर्थिक कार्यक्रम अस्पष्ट और विरोधाभासी है.
देश के 60 प्रतिशत से अधिक लोग उन्हें खतरनाक और उनकी पार्टी को संस्थागत रूप से नस्लभेदी मानते हैं. यूरोपीय चुनाव में 23-24 प्रतिशत मत हासिल करना सम्मानजनक है, पर इससे यह भी इंगित होता है कि राष्ट्रपति मैकरां की खामियों के बावजूद वे अपना जनाधार बढ़ाने में असफल रही हैं.
इस चुनाव में मैकरां के लिए असली चेतावनी ग्रीन खेमे के असाधारण नतीजे हैं, जबकि इसके नेता यानिक जादो ने का प्रचार अभियान बहुत ही सामान्य रहा था. ग्रीन की इस बढ़त से इंगित होता है कि बड़े और सम्मानजनक बदलावों की वह चाहत अभी बरकरार है, जिसने 2017 में मैकरां को सत्ता दिलायी थी. लेकिन फ्रांसीसी मतदाताओं के बड़े हिस्से, ज्यादातर युवाओं, का यह मानना है कि मैकरां ही वह व्यक्ति हैं, जो उनकी आकांक्षा के अनुरूप नये तरह की राजनीति के वाहक बन सकते हैं.
तो, वर्ष 2022 के राष्ट्रपति के चुनाव के दूसरे दौर में कौन मैकरां को चुनौती दे सकता है- ग्रीन या लेपेन? ऐसा संभव नहीं दिखता. लेकिन ब्रिटेन और अन्य देशों की तरह फ्रांस की राजनीति भी ऐसे उथल-पुथल से गुजर रही है कि कोई भविष्यवाणी करना असंभव है. पर, एक भविष्यवाणी तो की ही जा सकती है. मरीन लेपेन कभी भी फ्रांस की राष्ट्रपति नहीं बनेंगी.
खतरा मरीन के बाद आयेगा, अगर कोई अधिक विश्वसनीय फ्रांसीसी पॉपुलिस्ट नेता उभरता है- कोई फ्रांसीसी मैत्तिओ साल्विनी, न कि कोई फ्रांसीसी डोनाल्ड ट्रंप.
– फ्रांस के अखबार ‘द लोकल’ के विश्लेषण का एक भाग
चुनाव नतीजे इंगित कर रहे हैं कि 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में मैकरां और लेपेन फिर आमने सामने होंगे और जीत निश्चित रूप से मैकरां की होगी. फ्रांस की अर्थव्यवस्था में ठोस सुधार हो रहा है. बेरोजगारी दर (8.4 प्रतिशत) 10 साल के सबसे निचले स्तर पर है. विदेशी निवेश में भी अच्छी बढ़त है. लेपेन का आर्थिक कार्यक्रम अस्पष्ट और विरोधाभासी है.
देश के 60 प्रतिशत से अधिक लोग उन्हें खतरनाक और उनकी पार्टी को संस्थागत रूप से नस्लभेदी मानते हैं. यूरोपीय चुनाव में 23-24 प्रतिशत मत हासिल करना सम्मानजनक है, पर इससे यह भी इंगित होता है कि राष्ट्रपति मैकरां की खामियों के बावजूद वे अपना जनाधार बढ़ाने में असफल रही हैं.
इस चुनाव में मैकरां के लिए असली चेतावनी ग्रीन खेमे के असाधारण नतीजे हैं, जबकि इसके नेता यानिक जादो ने का प्रचार अभियान बहुत ही सामान्य रहा था. ग्रीन की इस बढ़त से इंगित होता है कि बड़े और सम्मानजनक बदलावों की वह चाहत अभी बरकरार है, जिसने 2017 में मैकरां को सत्ता दिलायी थी. लेकिन फ्रांसीसी मतदाताओं के बड़े हिस्से, ज्यादातर युवाओं, का यह मानना है कि मैकरां ही वह व्यक्ति हैं, जो उनकी आकांक्षा के अनुरूप नये तरह की राजनीति के वाहक बन सकते हैं.
तो, वर्ष 2022 के राष्ट्रपति के चुनाव के दूसरे दौर में कौन मैकरां को चुनौती दे सकता है- ग्रीन या लेपेन? ऐसा संभव नहीं दिखता. लेकिन ब्रिटेन और अन्य देशों की तरह फ्रांस की राजनीति भी ऐसे उथल-पुथल से गुजर रही है कि कोई भविष्यवाणी करना असंभव है. पर, एक भविष्यवाणी तो की ही जा सकती है. मरीन लेपेन कभी भी फ्रांस की राष्ट्रपति नहीं बनेंगी.
खतरा मरीन के बाद आयेगा, अगर कोई अधिक विश्वसनीय फ्रांसीसी पॉपुलिस्ट नेता उभरता है- कोई फ्रांसीसी मैत्तिओ साल्विनी, न कि कोई फ्रांसीसी डोनाल्ड ट्रंप.