जेल जाकर भी मनोरमा ने नहीं मानी हार
शारदीय नवरात्र के उपलक्ष्य में ‘शक्तिशालिनी ’ श्रृंखला की अंतिम कड़ी में आज पढ़ें बिहार के नवादा जिले की मनोरमा की संघर्ष यात्रा .
डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी
मनोरमा एक साधारण महिला जैसी ही हैं, लेकिन उनका हौसला जरूर बुलंद है. उन्हें देखकर यकीन करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, लेकिन उनके पिछले सात सालों के संघर्ष गाथा को जानने के बाद यह संदेह भी दूर होता है. क्योंकि मनोरमा ने भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़कर अपना हक हासिल किया. यही नहीं, उन्होंने तत्कालीन एसडीओ पर 25 हजार रुपये का आर्थिक जुर्माना, एसपी को जवाब -तलब और दरोगा को निलंबित भी करवाया.
हालांकि इस लड़ाई में जेल भी जाना पड़ा. अब वह आरोपियों को सजा दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही है. जिस मनोरमा की हम यहां चर्चा कर रहे हैं , वह बिहार के नवादा जिले के सदर प्रखंड के भदौनी पंचायत के खरीदीविगहा गांव में रहती हैं. पति गणोश चौहान मिस्त्री का काम करते हैं.
2007 में जब आंगनबाड़ी सेविका की बहाली निकली थी, तो वह अपने पोषक क्षेत्र की अकेली महिला थीं, जो प्रथम श्रेणी से मैट्रिक उत्तीर्ण हुईं, लेकिन सुष्मिता नाम की महिला की इस पद पर बहाली हुई. यहीं से शुरू होती मनोरमा की संघर्ष यात्रा. आरटीआइ के जरिये जब उसने बहाली से संबंधित सभी कागजात निकाले तो पता चला कि एक ही महिला के दो नाम हैं-नीलम और सुष्मिता.
दरअसल, 1993 में उस महिला ने नीलम नाम से मैट्रिक की परीक्षा दी और 1995 में सुष्मिता नाम से. उसने 1993 के सर्टिफिकेट पर जन वितरण प्रणाली दुकान का लाइसेंस ले रखी थी, जबकि 1995 के सर्टिफिकेट पर सेविका के रूप में बहाल हुई थी. वस्तुत: इस सर्टिफिकेट पर उसकी गोतनी कांति देवी की बहाली हुई थी.
मनोरमा को इसकी सूचना के लिए पंचायत से राज्य स्तर पर फरियाद करना पड़ा. स्थानीय स्तर पर कोई सूचना नहीं देना चाहता था. लिहाजा, राज्य सूचना आयुक्त ने तत्कालीन एसडीओ हाशिम खां के खिलाफ 25 हजार रुपये का जुर्माना ठोका. साथ ही कागजात उपलब्ध कराये जाने का आदेश दिया. सारी बातें साफ होने के बाद भी संबंधित विभाग मनोरमा की बहाली में आनाकानी कर रहा था.
तब उन्होंने पटना हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. अधिकारियों को जब कार्रवाई की भनक लगी, तो जिला प्रोग्राम पदाधिकारी ने सुष्मिता की बहाली को अविलंब रद्द कर दिया और प्राथमिकी दर्ज की. यही नहीं, आठ अगस्त 2009 को मनोरमा को बहाल कर दिया गया. स्वतंत्रता दिवस पर उसी मुखिया ने उसके हाथों झंडोतोलन करवाया, जिसने शुरू में सेविका से वंचित कर दिया था.
बात यहीं नहीं रुकी. बकौल मनोरमा विरोधियों ने मारपीट की. पति जब शिकायत दर्ज करवाने थाने पहुंचे, तो उनको ही गिरफ्तार कर लिया. सुष्मिता (कथित नाम) ने मनोरमा के साथ उसके पति के खिलाफ नगर थाना में दलित अत्याचार व सरकारी काम में बाधा पहुंचाने की प्राथमिकी दर्ज करवायी. उसके बाद मनोरमा को भी कोर्ट में सरेंडर करना पड़ा. उसे 15 दिनों तक जेल में रहना पड़ा. मनोरमा ने इसकी शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से की और कहा कि जब सुष्मिता नाम ही फर्जी है, तो उसकी शिकायत कैसे सही हो सकती है?
आयोग ने इसे गंभीरता से लेते हुए तत्कालीन एसपी गंधेश्वर प्रसाद सिन्हा से जवाब -तलब किया. मामले के अनुसंधानकर्ता एसआइ नागेंद्र गोप को निलंबित कर दिया गया. लेकिन मनोरमा यही नहीं रुकीं, अब वह उन आरोपियों को सजा दिलाने के लिए कोर्ट में कानूनी लड़ रही हैं, जिसके कारण उन्हें नौकरी से वंचित होना पड़ा था. मनोरमा कहती हैं कि अब मेरा एकमात्र लक्ष्य फर्जी सर्टिफिकेट वाली महिलाओं और उन अधिकारियों को सजा दिलाना है, जो उन्हें संरक्षण दे रहे थे.
(लेखक इंडिया टुडे से जुड़े हैं. फेसबुक से साभार)