शिवानंद तिवारी
मेरी राजनीतिक दीक्षा लोहिया के स्कूल में हुई थी. लोहिया और जेपी ( लोकनायक जयप्रकाश नारायण ) के बीच पहले पता नहीं क्या घटित हुआ था, जिसकी वजह से लोहियावादियों के मन में जेपी के प्रति एक पूर्वाग्रह रहता था. इसको मैंने 74 आंदोलन के दरम्यान एक प्रकरण में महसूस किया था. उस पर आगे कभी लिखूंगा. आज उस पर ध्यान जाता है, तो पाता हूं कि मेरे मन में भी पता नहीं कब और कैसे वह पूर्वाग्रह दाखिल हो गया था.
74 आंदोलन के दरम्यान बहुत करीब से जेपी को देखने, और आज इतने दिनों बाद फिर से उस संपूर्ण काल खंड में उनको स्मरण कर रहा हूं, तो उनके व्यक्तित्व का जो सबसे विशिष्ट गुण मुङो याद आ रहा है, वह है उनकी मानवीय संवेदना. उस लंबे अरसे में जेपी, जयप्रकाश नारायण से लोकनायक बने, लेकिन कहीं भी किसी भी मौके पर अहम का एक कतरा भी उनमे मुङो दिखाई नहीं दिया. भीतर से वे बहुत बड़े थे. इतने बड़े कि साधारण-से-साधारण आदमी भी उनके संपर्क में आने के बाद अपने को बड़ा समझने लगता था. ऐसा मैंने स्वयं महसूस भी किया है और प्रत्यक्ष इसका दर्शन भी किया है.
अपनी स्मरण शक्ति को लेकर मुङो हमेशा कोफ्त रहा है. इसलिए यह याद नहीं है कि कब की बात है. जेपी शेखोदेवरा अपने आश्रम जा रहे थे. शेखोदेवरा नवादा जिले में है. मैं वहीं था. मुझसे भी उन्होंने पूछा, चल ब? जेपी की आदत थी. भोजपुरी बोलने वाले से हमेशा भोजपुरी में ही बतियाते थे. तत्काल मैंने हामी भरी और उनके पीछेवाली गाड़ी में सवार हो गया. नवादा जिले में जहां मुख्य सड़क से शेखोदेवरा के लिए सड़क फूटती है, वहां से जिले के कलक्टर और एसपी भी साथ हो गये. जेपी के दो सेवक थे. एक बहादुर (माफी चाहता हूं. नाम याद नहीं आ रहा है) और दूसरा गुलाब. गाड़ी जैसे आश्रम में जेपी की कुटिया के पास रुकी, बहादुर ने जेपी की गाड़ी का दरवाजा खोला. बहादुर को वैसे पोशाक में मैंने कभी देखा नहीं था. बंद गले का कोट, सर पर शोला हैट ! गाड़ी से जेपी के उतरते ही बहादुर ने फौजी सलामी दागा. जेपी एक क्षण ठहर गये और ऊपर से नीचे तक उन्होंने बहादुर को देखा. मेरी नजर उनके चेहरे पर थी. बहादुर को उस रूप में देख कर उनके अंदर की खुशी और आनंद का जो भाव उनके चेहरे पर दिखाई दिया, वह दर्शनीय था. बहादुर का भी गदगद भाव चेहरे से टपक रहा था. पता चला कि बहादुर ने जेपी का पोशाक पहन लिया था.
शेखोदेवरा का वह आश्रम नवादा जिले के अत्यंत पिछड़े इलाके में बनाया गया था. उस इलाके में अक्सरहां अकाल पड़ता था. आश्रम एक पहाड़ी की तलहटी में बनाया गया था. उन पहाड़ियों के नीचे चेक डैम बना कर सिंचाई का इंतजाम किया गया था.
छोटी-सी कुटिया में जेपी का निवास था. उसके पीछे खुले में बैठने-बतियाने की जगह थी. जेपी कलक्टर और एसपी के साथ उधर बढ़ गये. मैं संकोच में उधर नहीं जा कर चेक डैम की बढ़ गया. जगह इतनी खुली थी कि जेपी की नजर मुझ पर चली गयी. वे समझ गये कि संकोच में उनके साथ कुटिया में अंदर नहीं आया हूं. उन्होंने मेरा नाम लेकर आवाज दी और अपने पास बुलाया. पहुंचने पर बगल की कुरसी पर बैठाया. दोनों पदाधिकारयों से यह कर परिचय कराया कि एक युवा नेता के रूप में शिवानंद का परिचय पर्याप्त है. फिर मेरे पिताजी का नाम लेकर बताया कि ये रामानंद तिवारी जी के पुत्र हैं. परिचय देने में उन्होंने यह ध्यान रखा कि पिताजी के अतिरिक्त युवा नेता के रूप में मेरा अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है. अपनी ही नजरों में जेपी ने मुङो बड़ा बना दिया.
रात वहीं रुकना हुआ. वहां अन्य लोगों के साथ आचार्य राममूर्ति जी भी थे. गपशप के बाद भोजन हुआ. भोजन में जेपी साथ नहीं थे.उनकी कुटिया और खपड़ा-नरिया से छाया हुआ वह हॉल, जहां हमलोगों ठहरे थे, के बीच कुछ दूरी थी. खाने के बाद मैं लेट गया. नींद आ ही रही थी कि हाथ में टार्च लिये जेपी आ गये. सब इंतजाम ठीक है, यह देखने के बाद लौटे.
एक दूसरी घटना सहार के इलाके की है. सहार भोजपुर जिले का नक्सलग्रस्त इलाका था. बिहार में नक्सल आंदोलन की शुरु आत सहार से हुई थी. उन दिनों उस इलाके में नक्सलवाले काफी सक्रि य थे. एक दिन जेपी ने मुङो बुलाया. मुझसे पूछा कि क्या सहार के इलाके में मैं उनकी सभा करा सकता हूं. यह बात 75 के मई महीने के अंत की है. मैं तैयार हो गया.
आरा में आंदोलन के साथियों की अच्छी टीम थी. मैं आरा गया. साथियों के साथ बैठक की. कैसे तैयारी करनी है, इसकी योजना बनी. हमलोग सहार के इलाके में टोली बना कर निकल गये. अन्य गांवों के साथ-साथ उन गांवों का विशेष रूप से दौरा किया, जहां हिंसा की घटनाएं हुई थीं. उस इलाके में भय और दहशत का माहौल था. लोग अंधेरा होने के बाद अपने घरों से बाहर नहीं निकलते थे. नारायणपुर, जो आरा संदेश सड़क पर चट्टी नुमा गांव था, ठहरने की जगह मिल गयी थी. हमलोग उस इलाके के वातावरण से बेखबर थे. देर अंधेरा होने पर अपने स्थान पर ठहरने के स्थान पर लौटते थे. दिन भर गांव-गांव घूम कर लोगों से बात कर रिपोर्ट तैयार करते थे. देर शाम तक हमलोगों के घूमने का एक तत्काल फायदा तो यह हुआ कि भय का माहौल वहां थोड़ा छंटा.
सहार के इलाके में जेपी की दो सभाएं करायी गयी. पहली सभा तराड़ी में और दूसरी सभा अगले दिन नारायणपुर में. उस सभा को देखने प्रभाष (जोशी) जी, अजीत भट्टाचार्य जी और सुमन दुबे भी आये हुए थे. नारायणपुर की सभा में जेपी का भाषण मुङो थोड़ा नरम लग रहा था.
मुङो लगा रहा था कि जेपी को थोड़ा सख्त बोलना चाहिए. विशेष रूप से भूमिधरों को. अपने स्वभाव से बेचैन मैंने एक पुरजे पर लिखा कि आपको थोड़ा सख्त भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. पुरजा मैंने जेपी को बढ़ा दिया. जेपी रुक कर उसको पढ़ने लगे और उनके चेहरे का रंग बदलने लगा. खतरा मैं भांप गया.
तेजी से घूमा और तेजी से मंच के नीचे भागा. कानों में माइक से जेपी की तेज आवाज सुनाई दी – क्या समझते हो, मैं तुम्हारी भाषा में बात करूंगा? अब तक मैं ही जीप में जेपी को घूमा रहा था. इसके बाद उनके सामने जाने की मेरी हिम्मत कहां थी! मैंने दूसरे से अनुरोध किया कि वे अपनी गाड़ी से जेपी को आरा ले चलें. अगले दिन जेपी को आरा से शाम में जबलपूर जाना था. मैं उनके सामने जाने से बच रहा था. वे समझ गये थे. प्लेटफॉर्म पर उनके लिए दो कुरसियां लगायी गयी थीं. एक पर बैठे थे और दूसरी पर जिनसे बात करनी होती थी, वे बैठते थे. मैं अलग खड़ा था. कुछ देर बाद उन्होंने मुङो आवाज दी. बगल में बैठने का इशारा किया और पूछा कि इस प्रोग्राम का फॉलोअप कैसे होगा?मैं समझ गया कि मुङो सहज करने के लिए यह सब पूछा जा रहा है.
जेपी के सामने मेरी क्या हैसियत थी. गलती मेरी थी. उनको मैं सिखाने गया था कि उनको कैसे बोलना चाहिए और वे डांटने के बाद मुङो पुचकार रहे थे. व्यक्ति के रूप में जेपी अंदर से बहुत बड़े थे. अंत में लोहिया ने इसको समझ लिया था. इसीलिए गांधी मैदान की अपनी अंतिम सभा में उन्होंने कहा था कि इस देश को हिलाने की क्षमता केवल एक आदमी में है और वह है जेपी.