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एक साल : कुछ नयी पहल, तो कुछ नये सवाल

अच्छे दिनों का वादा लेकर आयी मोदी सरकार के एक साल के कामकाज की खूबियों और खामियों का हिसाब जनता से लेकर जाने-माने विद्वान तक कर रहे हैं. पक्ष और विपक्ष में तर्को और आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं. सामाजिक पहलकदमियों और विदेश नीति के मोरचे पर सक्रियता उपलब्धियों के खाते […]

अच्छे दिनों का वादा लेकर आयी मोदी सरकार के एक साल के कामकाज की खूबियों और खामियों का हिसाब जनता से लेकर जाने-माने विद्वान तक कर रहे हैं. पक्ष और विपक्ष में तर्को और आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं.
सामाजिक पहलकदमियों और विदेश नीति के मोरचे पर सक्रियता उपलब्धियों के खाते में हैं, तो आर्थिक सुधारों की धीमी गति ने आलोचनाओं को अवसर दिया है. रक्षा, बीमा और बैंकिंग में नीतिगत शिथिलता दूर हुई है, पर कृषि क्षेत्र में संकट और भूमि अधिग्रहण विधेयक से चिंताएं भी गहन हुई हैं. किस हद तक उम्मीदें पूरी हो सकीं हैं या भरोसे को झटका लगा है- इन सवालों पर विभिन्न विद्वानों की टिप्पणियों पर एक नजर..
सरकारी गतिविधियों को तर्कसंगत बनाना होगा
कभी-कभी चुटकुले सच्चाई को किसी विश्लेषण की तुलना में बेहतरी से बयान कर देते हैं. मौजूदा सरकार के बारे में इन दिनों एक ऐसा ही चुटकुला प्रचलन में है : यूपीए और एनडीए में क्या अंतर है? यूपीए में एक सरकार थी, पर कोई प्रधानमंत्री नहीं था, जबकि एनडीए में हमारे पास प्रधानमंत्री है, पर कोई सरकार नहीं.
ऐसा प्रतीत होता था कि इस सरकार की विशेषता कार्यान्वयन की होगी. रेलवे जैसे कुछ मंत्रलयों में संभावनाओं की नयी ऊर्जा दिख रही है. ऊर्जा मंत्रलय ने कम-से-कम कोल इंडिया में उत्पादन के स्तर पर बेहतरी दिखायी है.
लेकिन विकास में गति के लिए आवश्यक सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी के मामले में क्षमता का प्रदर्शन अभी बाकी है. जैसा कि फाइनेंसियल एक्सप्रेस ने रिपोर्ट दिया है, बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए सार्वजनिक निविदाओं में कमी आयी है. सरकार के पास ठप्प पड़ी परियोजनाओं को शुरू करने की अभी भी कोई भरोसेमंद योजना नहीं है, इनमें से अधिकतर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण में समस्या के कारण नहीं रुकी पड़ी हैं.
सरकार की सबसे बड़ी और अनुचित असफलताएं स्वास्थ्य और शिक्षा से संबंधित हैं. हालांकि, इन क्षेत्रों में परेशानियां पहले से ही चली आ रही थीं. लेकिन ये ऐसे दो क्षेत्र हैं, जिनमें गंभीर समस्याओं के समाधान के लिए किसी कार्य-योजना का कोई संकेत तक नहीं है. इनमें आवश्यकता की तुलना में वित्तीय आवंटन बहुत कम है. नियामक कार्य-योजनाएं पूरी तरह से दिशाहीन हैं, और चलताऊ तथा अनिश्चय भरा रवैया इन क्षेत्रों का भविष्य निराशाजनक बना रहा है.
ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री ऊंची उड़ान भरना चाहते हैं. लेकिन यह सवाल सामने है कि क्या उनका साथ देने के लिए सरकार के पास इंजन शक्ति है. चूंकि बाहरी कारणों से अर्थव्यवस्था गतिशील है, इस सरकार की कमजोरियां कुछ समय के लिए ढंकी-छुपी रहेंगी. लेकिन इससे पहले कि हवाएं इसके तड़तड़ाते ईंजन को रास्ते से भटका दें, सरकार को अपनी गतिविधियों को तर्कसंगत बनाना होगा.
प्रताप भानु मेहता, वरिष्ठ स्तंभकार (द फाइनांसियल एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख का अंश)
प्रधानमंत्री ने भारत की छवि को नये तरीके से गढ़ा है
नरेंद्र मोदी ने लुक ईस्ट और एक्ट ईस्ट नीति से भारत की छवि को नये तरीके से गढ़ा है. मोदी ने जापान, वियतनाम, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और मंगोलिया के साथ आर्थिक और सुरक्षा संबंधों को मजबूत बनाने पर जोर दिया है. उन्होंने विस्तारित पड़ोस की अवधारणा को भी समुद्री क्षेत्र में शामिल किया है, जैसा कि दूर की समुद्री यात्रओं में फिजी से सेशल्स और दक्षिण प्रशांत से हिंद महासागर में. भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक रिश्तों को पड़ोसी देशों तक बेहतर तरीके से पहुंचाने के लिए मोदी की कूटनीति में विशेष रणनीति देखने को मिली है. हालांकि, वाजपेयी के समय से ही यह काम शुरू हो गया था, लेकिन मोदी ने इसे नये आयाम पर पहुंचाया है. सामान्य रूप से विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार पर जोर दिया गया है.
मोदी के प्रयास से भारतीय विदेश नीति को एक नयी पहचान मिली है. अगर भारत खुद को इस साल कूटनीतिक राष्ट्र की होड़ में शामिल करता है, तो मोदी भारत को अग्रणी देश के रूप में विकसित करने में सफल होंगे. भारत दशकों से चीन के साथ संतुलन बनाकर चलने की कोशिश कर रहा है. मोदी भारत को विकसित राष्ट्र बताने की कोशिश कर रहे हैं, जो यह दिखाता है कि भारत निर्माण और अंतरराष्ट्रीय जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है.
-सी राजा मोहन, विदेश मामलों के जानकार, (‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख का अंश)
पिछले एक साल में भ्रष्टाचार में आयी कमी
पिछले एक साल के दौरान भ्रष्टाचार का कोई भी मामला सामने नहीं आया है. हमारे पास एक बेहतर प्रणाली विकसित हुई है, जिससे पारदर्शी तरीके से प्राकृतिक संसाधनों जैसे- कोयला, स्पैक्ट्रम की फोन पर नीलामी करते देखा गया. काम करने की प्रक्रिया बेहतर हुई है. इसलिए ध्यान देने वाली बड़ी बात यह है कि भ्रष्टाचार और याराना पूंजीवाद खत्म हो गया है. कोयला एक प्रमुख मुद्दा था, क्योंकि इसकी कमी से ऊर्जा क्षेत्र बिल्कुल असमर्थ हो गया था.
हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने भी आवंटन को रद्द कर इसमें अहम भूमिका निभायी. पर्यावरण के कारणों से जो परियोजना लटकी हुई थी या उसमें विलंब हो रहा था, उसे अब हरी झंडी मिलना शुरू हो गया है. बुनियादी परियोजनाओं पर विकास का काम पहले की तुलना में बेहतर हुई है.
-आर सी भार्गव, चेयरमैन, मारुति सुजूकी. ( ईटी नाउ से बातचीत में )
विद्वानों की अनदेखी का साल
करीब सालभर पहले जब स्मृति ईरानी को केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया गया था, तो मैं उन लोगों में नहीं था जो उनकी नियुक्ति पर नाक-भौं सिकोड़ रहे थे. मैंने यूपीए सरकार के ऐसे विदेशी डिग्रीधारी मानव संसाधन मंत्रियों को देखा था, जिनकी अपने विभागीय दायित्वों में रुचि नाम-मात्र के लिए थी. उनकी तुलना में स्मृति ईरानी कहीं अधिक ऊर्जावान और सक्रिय दिखती थीं.
उनसे यह उम्मीद बंधती थी कि वे वांछित अकादमिक शिक्षा की कमी अपने उत्साह और सक्रियता से कर सकेंगी. परंतु क्या उनसे वे उम्मीदें आज भी रखी जा सकती हैं? दुर्भाग्य से, बतौर मंत्री स्मृति ईरानी अनेक कारणों से विवादों से घिरी रही हैं. उनके स्वभाव में रूखापन भी चर्चा का विषय रहा है, और मंत्रलय के अधिकारी अपने तबादले की कोशिश करते दिखे. पर सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात विभिन्न प्रतिष्ठित विद्वानों की अनदेखी रही है, जिनमें भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) के निदेशक भी शामिल हैं.
उनके द्वारा की गयी कुछ नियुक्तियों में बौद्धिक समुदाय के प्रति उनकी अरुचि को भी देखा जा सकता है. ऐतिहासिक शोध की एक प्रतिष्ठित संस्था पर जो व्यक्ति नियुक्त हुआ, इतिहासकारों के लिए भी उसका नाम अपरिचित था. ऐसा होता भी क्यों नहीं, उन्होंने अपने अकादमिक जीवन में एक भी अच्छा शोधपत्र प्रकाशित नहीं कराया था!
परंपरागत रूप से विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति या तो संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति (जैसे राष्ट्रपति या राज्यपाल) होते हैं, या फिर प्रतिष्ठित विद्वान. उदाहरण के रूप में, सम्मानित समाज वैज्ञानिक आंद्रे बेते अपनी अकादमिक योग्यता के कारण ही शिलांग की नॉर्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के चांसलर रहे हैं.
हैदराबाद के मौलाना आजाद उर्दू यूनिवर्सिटी की पिछली चांसलर डॉ सय्यदा हामीद थीं, जो प्रतिष्ठित विद्वान हैं और उन्होंने मौलाना आजाद की जीवनी भी लिखी है. लेकिन इस सरकार ने उन्हें पद से हटाकर एक ऐसे व्यक्ति को चांसलर नियुक्त किया है, जिन्हें आम तौर पर कीमती कारों के व्यवसायी के रूप में जाना जाता है. उनकी नियुक्ति पर एक वरिष्ठ विद्वान की टिप्पणी थी कि शायद प्रतिष्ठित संस्थानों की कुर्सी हासिल करने के लिए आज विद्वत्ता से अधिक राजनीतिक प्रभाव का होना आवश्यक हो गया है.
– रामचंद्र गुहा, इतिहासकार (द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख का अंश)
लोग अधिक की आस लगाये बैठे हैं
अगर ईमानदारी से कहूं तो नरेंद्र मोदी ने पिछले 12 महीने में प्रधानमंत्री कार्यालय को ऊर्जा और गतिशीलता से सराबोर कर दिया है, जिसकी झलक उनके पहले के प्रधानमंत्री के काल में नहीं थी. शायद कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि मोदी सरकार के तमाम कार्यक्रम, जैसे- स्वच्छ भारत अभियान, जन-धन योजना और अटल पेंशन योजना यूपीए शासनकाल के दौरान उठाये गये कदमों का कॉपी पेस्ट है, लेकिन सच्चाई यह है कि मोदी ने अपनी क्षमताओं से इसका पूरा क्रेडिट ले लिया है. यूपीए-2 के दौरान अक्सर इस तरह के जोश की कमी देखी जाती थी.
जहां तक विदेश नीति की बात है, तो जो लोग यह सोचते थे कि राष्ट्रीय फलक पर नरेंद्र मोदी के पास अनुभव की कमी है, उन्हें मुंहकी खानी पड़ी है. चाहे नेपाल के भूंकप के दौरान या अमेरिकी राष्ट्रपति का ध्यान आकर्षित की बात हो या फिर फ्रांस के साथ एयरक्राफ्ट डील की बात हो, प्रधानमंत्री कार्यालय ने बहुत सक्रिय भूमिका निभायी है. हालांकि, यह सच है कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल का आकलन हमेशा आर्थिक आधार पर होगा. 2014 के आम चुनाव के दौरान उनके द्वारा अच्छे दिनों के वादे से लोगों में यह उम्मीद जगी थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था में नाटकीय बदलाव आयेगा. यहां मोदी सरकार अपनी वाक्पटुता से काम चला रही है.
ऐसा कोई जादुई मर्ज नहीं है, जिससे जॉब भी क्रिएट हो और अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ हो जाये. सुधार की ऊंची उड़ान के लिए मोदी सरकार को संसदीय और वैचारिक गतिरोध से भी गुजरना पड़ेगा. मोदी लगातार यह छवि पेश कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठकर वह रातों-रात चीजों को दुरुस्त कर देंगे, लेकिन उनके पास कोई जादुई खुराक नहीं है.
उन्होंने 56 इंच की छाती होने की बात कह कर लोगों में यह संदेश दिया था कि परिवर्तन लाने में वह काफी सक्षम हैं. हालांकि, कुछ मोरचों पर उन्हें सफलता भी हाथ लगी है, जैसे कि अभी तक घपलों और घोटालों की कोई खबर नहीं आयी है.
इससे एक बड़े ऊर्जावान वर्ग में उनकी चमकदार छवि कायम है. लेकिन लोगों की अपेक्षाएं अधिक हैं, इसलिए सरकार से और अधिक की आस लगाये बैठे हैं. वे चाहते हैं कि वास्तविक दुनिया में मोदी बदलाव लायें. व्यापार गोरखधंधे और लालफीताशाही से नहीं चलती है. फसलों की बरबादी के बाद किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से लड़ाई लड़ रहे हैं.
युवा वर्ग नौकरी की सीमित संख्या से जूझ रहे हैं. मोदी ने भी इस बात को माना है कि कानूनी और आधिकारिक अड़चनों को दूर किये बिना चीजें नहीं बदल सकतीं. इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने वाले उनके कई प्रोजेक्ट को परिणाम देने में समय लगेगा.
– राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार (हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित लेख का अंश)
अवाम में संशय और सवाल ज्यादा हैं
मनोज कुमार झा
समाज कार्य विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
पांच साल के लिए चुनी गयी सरकार का एक वर्ष, उसके कार्यकाल का महज 20 प्रतिशत हिस्सा होता है, लेकिन इस 20 प्रतिशत हिस्से में भी सिवाय नवउदारवादी शोर और ‘घर वापसी’ जैसे हंगामों के अलावा आमजनों तक सिर्फ खोखले जुमले पहुंचे हैं.
बस कुछ ही दिनों में भारत के प्रथम आत्ममुग्ध प्रधानमंत्रीजी के कार्यकाल का एक वर्ष पूरा होने वाला है. कई मीडिया संस्थान और खबरिया समूह कम-से-कम एक पखवाड़े तक चमकीले और रसीले मोंटाज और शीर्षक के साथ लगातार मूल्यांकन की खबरें चलायेंगे.
कई देशी एक्सपर्ट्स, सेंसेक्स से लेकर सेंसर बोर्ड और क्रेडिट रेटिंग से लेकर जन-धन और बीमा योजना पर अपनी-अपनी बात कहेंगे. अपने यहां जमीन का मामला भले ही सरकार के गले की फांस बना हुआ हो, लेकिन यह बताया जायेगा कि विदेशी जमीनों पर आजाद हिंदुस्तान के किसी भी प्रधानमंत्री ने पूर्व में इस तरह से अपने दबदबे के झंडे नहीं गाड़े.
और इस अफसाने में उस बात का बिलकुल जिक्र नहीं होगा, जिसकी अहमियत इस विवेचना में सबसे ज्यादा होनी चाहिए थी. आखिर एक वर्ष में ऐसा क्या हुआ कि ‘सबका साथ सबका विकास’ के लुभावने नारे के साथ धमाके से आयी सरकार ‘सबका साथ, लेकिन सिर्फ कुछ का विकास’ के टैगलाइन से जानी जा रही है?
यहां ये दीगर है कि 2009 में संप्रग सरकार-2 के बनने के एक वर्ष के अंदर जनमानस में एक बात घर कर गयी थी कि भ्रष्टाचार से लड़ने के मुद्दे पर यह सरकार प्रतिबद्ध नहीं है और चुनाव के पूर्व के बाकी के चार साल में सरकार और पार्टी इस परसेप्शन को खत्म करने में नाकामयाब रही. ठीक उसी अंदाज में केंद्र की मौजूदा राजग सरकार के बारे में एक वर्ष के अंदर यह संवाद आम अवाम तक पहुंचा है कि यह सरकार गरीब और कमजोर तबकों से विमुख सरकार है.
कई तथाकथित ‘विकास बढ़ोतरी’ के बिलों को त्वरित गति से पास करवाने का या फिर लगातार अध्यादेश लाने को भी आम अवाम ने संशय की ही नजरों से देखा है. सामाजिक सौहार्द में वैमनस्य के बढ़ते स्तर और घृणा को लगातार मिलते बढ़े प्रीमियम की चर्चा को अगर एक साल के मूल्यांकन में जोड़ लिये जायें, तो बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी वाला मामला हो जायेगा.
मोदी जी की सरकार के इसी एक वर्ष के दौरान कुछ समीकरण बदले और कुछ राजनीतिक मंथन भी हुए. मसलन, राहुल गांधी 56 दिनों के अध्ययन अवकाश से लौटे, सीताराम येचुरी माकपा के जनरल सेक्रेटरी चुन लिये गये और सपा, राजद, जदयू समेत छह दलों ने साथ आने का निर्णय लिया.
ये तीनों घटनाएं एक विशद राजनीतिक पहलकदमी और दूरगामी प्रक्रिया को इंगित करती हैं और इनमें से किसी का भी सतही विश्‍लेषण नहीं होना चाहिए. बहरहाल, जो बात भाजपा और मीडिया के भी एक वर्ग को सबसे नागवार गुजरी है, उसका जिक्र करना चाहूंगा और यह जनता परिवार के घटकों के विलय से संबंधित है.
16 मई, 2014 को जब आम चुनावों के नतीजे आ रहे थे, तो सर्वप्रथम राजद अध्यक्ष ने बदले राजनीतिक सुर और स्वर को समझते हुए राष्ट्रीय स्तर पर एक संयुक्त प्रगतिशील वैकल्पिक राजनीतिक मोरचे की आवश्यकता पर बल दिया था. कालांतर में कई और दल आते गये और ‘विलय भाव’ का कारवां बढ़ता गया.
कई विश्‍लेषक साथी विलय की पहल को इन दलों और इनके नेताओं के अस्तित्व के संकट से समझने और समझाने की कोशिश करते रहे हैं, पर यह सीमित और पूर्वाग्रह से ग्रसित आकलन है. सबसे पहले तो इस विलय या व्यापक राजनीतिक एका की कोशिशों को सिर्फ इन दलों के शीर्ष नेताओं के माध्यम नहीं देखा जाना चाहिए. हमारा मानना है कि इस विलय के पीछे उन सामाजिक वर्गो और आधार समूहों की बहुत बड़ी भूमिका है, जिन्होंने सालभर से भी कम समय में इस मुल्क के राजनीतिक सरोकारों में व्यापक तब्दीली देखी है. एक बहुत बड़े वर्ग समूह में यह विचार घर कर गया है कि सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं के प्रति मौजूदा सरकार संवेदनशील नहीं है.
पांच साल के लिए चुनी गयी सरकार का एक वर्ष, उसके कार्यकाल का महज 20 प्रतिशत हिस्सा होता है, लेकिन इस 20 प्रतिशत हिस्से में भी सिवाय नवउदारवादी शोर और ‘घर वापसी’ जैसे हंगामों के अलावा आमजनों तक सिर्फ खोखले जुमले पहुंचे हैं. किसी मीडिया समूह द्वारा चर्चा की आवश्यकता नहीं पड़ी, न ही किसी राजनीतिक दल के संगठित कार्यक्रम की जरूरत महूसस हुई, लेकिन एक विशाल और व्यापक जनसमूह को सिर्फ 11 महीने पहले की अपनी चुनी हुई सरकार से अभूतपूर्व दूरी का एहसास होने लगा है.
असमानता, भेदभाव और मुफलिसी के प्रति पर्याप्त संवेदना का अभाव तो पहले की सरकारों में भी था, लेकिन इस तरह की क्लीनिकल संवेदनहीनता और उदासीनता पहले नहीं देखी गयी थी, जैसी इस सरकार ने प्रदर्शित की है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्रों में लगातार कटौतियां भले ही अखबारों के मुख्यपृष्ठ या प्राइम टाइम में न दिखायी गयी हों, लेकिन जिंदा कौमें सब समझती हैं.
आशय यह है कि कुछ दलों के बीच की एका या विलय की संभावना और प्रक्रिया को इनके आधार समूहों की आवाज, स्वायत्तता और आग्रह के नजरिये से देखा जाना चाहिए, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल अपने सामाजिक आधारों के आग्रह और दबाव को नजरंदाज नहीं कर सकता. बीते एक वर्ष में इन समूहों ने अपने बिखरने के यथार्थ और उसके निहितार्थ को करीब से देखा और भोगा है.
आज जबकि व्यापक नागरिक अनुबंध और विशद जनसरोकारों के लिए साथ खड़े होने का अवसर था, तो लोगों ने हर गली और मोहल्लों में मध्यकालीन वैमनस्य की छवियों के आलोक में खुद को विभाजित देखा है.
व्यापक हताशा के इस दौर में छह राजनीतिक दलों के विलय का निर्णय एक सघन और सबल राजनीतिक रणनीति है, जिसके मुख्य कर्ता आमअवाम है, जो लोकप्रिय जुबान में इन दलों के वोटरों के रूप में जानी जाती रही है.
लेकिन जिन आधार समूहों और समर्थक वर्गो ने एका और विलय की लगातार पैरोकारी की है, उनकी कुछ अपेक्षाएं भी हैं और इन दलों को इन अपेक्षाओं को गंभीरतापूर्वक लेना होगा, ताकि एक वैकल्पिक और प्रगतिशील राजनीतिक विचारधारा फिर से अपनी विश्वसनीयता न खो दे. आम अवाम इनके साझा और टुकड़ों में बनते और बिखरते पुराने इतिहास से वाकिफ है और वो यह भी जानती है कि अतीत में व्यक्तिगत मतभिन्नता और वैचारिक मतभेद के बीच की दीवार खत्म सी हो गयी थीं.
इन दलों के नेताओं से ज्यादा शायद आम लोग जानते हैं कि पुरानी गलतियों ने इन दलों की अलग-अलग राह और नियति तय की और इसका सबसे बड़ा खामियाजा उन वर्गो, जातियों और समुदायों का हुआ, जिन्होंने इन दलों के साथ सहयात्री बन कर कई साझा सरोकार तय किये थे.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति के सरोकार सिर्फ चुनाव तक महदूद नहीं रहते, लेकिन कई वजहों से हमारे लोकतंत्र में चुनाव की बड़ी अहम भूमिका है. आसन्न चुनाव और सीटों का विभाजन और वितरण कई दफा वैचारिक एका और अवाम की भावात्मक अपील पर भारी पड़ जाता है.
व्यक्तिगत अहं और पद के प्रति आकर्षण के कारण घटक दल अपनी-अपनी शक्ति और क्षमता की अलग-अलग दृष्टिकोण से व्याख्या करने लगते हैं और इन मुद्दों पर दलों के बीच का मतभेद अवाम के ‘एका के साझा मन’ की उपेक्षा करने लगता है.
इन दलों के शीर्ष नेताओं को यह विश्वास पैदा करना होगा कि दक्षिणपंथ और वैश्विक पूंजी के गुणगान से उत्पन्न कोलाहल के इस दौर में अगर आम अवाम की आवाज की अवहेलना कर ये दल अपने सीमित सरोकारों और व्यक्तिगत अहंकारों को प्राथमिकता देंगे, तो आनेवाले चुनावों से बहुत पहले अवाम ही हार जायेगी और इतिहास गवाह है कि पराजित और हताश अवाम लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है.
शीर्ष नेताओं और रणनीतिकारों को समझना होगा कि उनके समर्थक वर्ग, जिसमें एक बड़ा हिस्सा हाशिये के समूहों का है, विलय की अपनी ख्वाहिश को सीटों और पदों के मतभेद पर कुर्बान होते नहीं देखना चाहते. उनकी अपील स्पष्ट है. परिवर्तनकामी चेतना के आधार पर संगठित होइये और एकीकृत संगठन बनाइये.
सुधारों के रास्ते में आ रहे हैं कई अवरोध
सोच-समझ कर विकास की गति धीमी रखना उन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए उचित है जहां संस्थाएं (जैसे कि घुटनभरा लाइसेंस राज) और लॉबी (जिसे कुछ अर्थशास्त्री ‘स्वार्थ’ भी कहते हैं) पिछले कई वर्षों से नीतियों के इर्द-गिर्द इस कदर घेरा बना चुकी हैं कि यदि कोई इसे बदलना चाहेगा, कोई राजनेता सुधार की कोशिश करेगा तो उसे इन्हीं अवरोधों से होकर गुजरना पड़ेगा.
हालांकि यह स्वाभाविक है कि वे आलोचक, जो बहुत तेज सुधारों के आकांक्षी हैं, वे अब तक उठाये गये कदमों से संतुष्ट नहीं हैं, परंतु उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था को नुकसान इसलिए हुआ कि पहले राजनेताओं ने गलत विचारों को तरजीह दी (ये विचार अक्सर उन्हीं अर्थशास्त्रियों ने दिये थे जो अब अपनी सोच बदल चुके हैं) जिसके कारण अर्थव्यवस्था की हालत खराब हो गयी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज का आकलन करते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री को राज्यसभा में विधेयकों को पारित कराने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्हें जो राज्यसभा मिली है उसमें हारी हुई, बरबाद हो गयी कांग्रेस का बोलबाला है.
मोदी को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तरह, जिन्हें एक्जेक्यूटिव एक्शन लेने की मजबूरी आन पड़ी, क्योंकि अमेरिकी कांग्रेस में रिपब्लिकन कानूनों को पारित होने से रोक रहे थे, मजबूरन ‘अध्यादेश’ व्यवस्था का सहारा लेना पड़ा.
यह स्थिति विशेष रूप से भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में लागू होती है जो इस सरकार के सुधार एजेंडे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसका लक्ष्य सुधारों को भूमि और श्रमिक जैसे ‘कारक बाजारों’ तक ले जाना है.
वर्ष 1991 के बाद हुए सुधार मुख्य रूप से उत्पाद बाजार पर जोर दे रहे थे. ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में सरकार द्वारा उठाये गये कदमों और राज्यों को अधिक आर्थिक अधिकार देने तथा सुधार कार्यक्रम की अन्य प्राथमिकताओं को रेखांकित करनेवाले वित्त मंत्री के बजट का स्वागत किया गया है.
इस संबंध में हालिया सर्टिफिकेट मूडी की तरफ से आया है जिसने भारत की संप्रभु रेटिंग को ‘स्थिर’ से बढ़ाकर ‘सकारात्मक’ कर दिया है.
– प्रोफेसर जगदीश भगवती एवं प्रवीण कृष्ण
द इकोनॉमिक टाइम्स में

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