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समन्वित योग से स्वस्थ और सुंदर जीवन

आज पहला ‘विश्व योग दिवस’ है. हर साल 21 जून को योग के नाम समर्पित करने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने की है. यह पूरे संसार द्वारा इस बात की औपचारिक स्वीकृति है कि योग संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए है. यह तन और मन को स्वस्थ व संयमित रखने का अभ्यास है. भारत […]

आज पहला ‘विश्व योग दिवस’ है. हर साल 21 जून को योग के नाम समर्पित करने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने की है. यह पूरे संसार द्वारा इस बात की औपचारिक स्वीकृति है कि योग संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए है. यह तन और मन को स्वस्थ व संयमित रखने का अभ्यास है.
भारत के प्राचीन ज्ञान, योग को पूरी दुनिया ने मान दिया है, इतने भर से संतुष्ट होने से काम नहीं चलेगा. इस आत्मगौरव से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि योग हर इनसान की जिंदगी का हिस्सा बने. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने अनेक दु:साध्य बीमारियों का इलाज खोज लिया है, इनसान की जिंदगी लंबी कर दी है, लेकिन जीवन से वह खुशी, वह ऊर्जा, वह संतुष्टि, वह उल्लास गायब है, जो प्रकृति के साथ जुड़े जीवन का स्वाभाविक हिस्सा हुआ करता था. आज की भौतिकवादी और तेज रफ्तार जिंदगी इनसानी तन-मन को बीमार बना रही है. इन हालात में, योग हमारी जिंदगी में सुख, शांति और स्थिरता लाने का रास्ता बन सकता है.
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती
जीवन में हमारी मौलिक आवश्यकता क्या है? मन के विकास के लिए मानसिक संयम एवं शांति आवश्यक है और शरीर के विकास के लिए अन्न एवं प्राण. हम अन्न को ग्रहण करते हैं, अन्न से शरीर प्राण लेता है और प्राण स्फूर्ति, शक्ति तथा सामथ्र्य का रूप लेता है. आहार में संयम न रहे तो शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं. रोग के तीन प्राथमिक कारण हैं- शारीरिक अव्यवस्था, आहार में अव्यवस्था और निद्रा में अव्यवस्था. शारीरिक अव्यवस्था का मतलब क्या है?
जीवनशैली में शारीरिक गतिविधियों का अभाव. पता नहीं आजकल कितने लोग प्रात:काल उठ कर टहलते हैं, व्यायाम या आसन वगैरह करते हैं? लेकिन अगर हम अपने समाज को देखेंगे तो बहुत-सी प्रथाएं पायेंगे जो संकेत करती हैं कि यहां के लोगों का जीवन कैसा था. यहां के लोग प्राकृतिक जीवन जीते थे जिससे शरीर स्वस्थ रहता था. अगर सुबह उठ कर शौच के लिए भी जाना होता था तो लोटा लेकर बाहर जाते थे. दिनभर परिश्रम करते थे और मस्त होकर खाते भी थे. आज हम लोग एक चम्मच घी खाते हैं तो कोलेस्ट्रॉल बढ़ जाता है. हमारे पूर्वज एक-एक लोटा घी पीकर भी स्वस्थ जीवन बिताते थे क्योंकि उनकी जीवनशैली प्राकृतिक थी.
आज भारतीय लोग टहलने या दौड़ने जैसी शारीरिक गतिविधियां बहुत कम करते हैं. ने सोने-उठने का कोई तय समय है, न ही खाने का. फ्रिज भरा रहता है, जब भूख लगे खोल कर कुछ खा लेते हैं. शरीर के लिए जो संयम आवश्यक है वह नहीं रहता है और यह असंयमित जीवन शैली शारीरिक अस्वस्थता का कारण बनती है.
शारीरिक अस्वस्थता का दूसरा कारण है आहार, क्योंकि वर्तमान समय में आहार का संबंध स्वास्थ्य से नहीं, स्वाद से है. पूर्व काल में लोग आहार को स्वाद से नहीं, स्वास्थ्य से जोड़ते थे, और आयुर्वेद का सिद्धांत उसी से प्रकट हुआ है. लेकिन जिस देश ने आयुर्वेद के सिद्धांत को जीवन की एक व्यवस्था के रूप में विश्व को शिक्षा दी है, आज उस देश के लोग अपनी ही चीज भूल कर अपने जीवन को विकृत बनाने में लगे हुए हैं. अनुचित आहार के कारण जब हमारे शरीर में प्राण की कमी हो जाती है तब शरीर निर्बल हो जाता है.
हठयोग
शारीरिक निर्बलता दूर करने के लिए योगियों ने एक योग को सामने रखा और वह है हठयोग. हठयोग के पांच चरण हैं. पहला है शरीर को उन विकारों से मुक्त करना जो अव्यवस्थित जीवनशैली के कारण शरीर में उत्पन्न होते हैं. इन विकारों से मुक्ति के लिए शुद्धीकरण की विशेष प्रक्रियाओं द्वारा शरीर की सफाई की जाती है जिन्हें हम षट्कर्म कहते हैं. इसके अलावा आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध- ये भी हठयोग के अंग हैं. जब हठयोग को हम सिद्ध कर लेते हैं तब शरीर में प्राणों का संचार सुचारु रूप से होता है, रोग दूर होते हैं, स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है.
राजयोग
शरीर की तरह ही मन की भी आवश्यकताएं होती हैं. ये क्या हैं? संयम और शांति. मन में संयम और शांति लाने के लिए, मन को व्यवस्थित करने के लिए योगियों ने एक दूसरे योग को सामने रखा और वह है राजयोग. मन में एक क्षमता है जो मनुष्य को एक विशेष केंद्र बिंदु से जोड़ती है, जसे आप अंतरात्मा कहते हो. लेकिन जब तक मन उस ओर आकर्षित नहीं होता तब तक वह आपको संसार से ही बांध कर रखेगा. जब तक मन आपको संसार से बांधे रहता है तब तक मन में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होते रहते हैं, जिन्हें वृत्ति कहते हैं.
दो शब्द आते हैं, आकार और विकास. अगर टूटे हुए आईने में आप अपना चेहरा देखते हो तो चेहरा विकृत दिखता है. यह विकार है. अगर आईना टूटा नहीं है, बिल्कुल समतल है, तो उसमें आप अपना सही आकार देख सकते हो. जब हमारा मन विकारों से ग्रसित है तब तक हमेशा अपना रूप बदलते रहता है. आज यह चाहता है, कल वह चाहता है, परसों कुछ और चाहता है. आज इसकी कामना है, कल उनकी कामना है. मन तो हमेशा अपने रूप को बदलते रहता है. जिस मन का आप अनुभव करते हो, वह विकृत मन है. मतलब उसमें विकार है, आकार नहीं. इसी विकार को वृत्ति कहते हैं.
राजयोग कहा जाता है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:. मन में उत्पन्न हो रहे विकारों और वृत्तियों का निरोध करना ही योग है. निरोध का मतलब विरोध या अवरोध नहीं, एकाग्रता होता है. अवरोध का तो अर्थ होता है रोक देना, निरोध का मतलब होता है मानसिक व्यवहार को होने देना, केवल तनाव के स्तर तक नहीं पहुंचने देना. जो भी चीजें मन में आ रही हैं, जो भी भावनाएं उत्पन्न हो रही हैं, जो भी विकार मन में उत्पन्न हो रहे हैं, जो भी इच्छाएं, महत्त्वाकांक्षाएं या वासनाएं मन में उत्पन्न हो रही हैं, उन सबको तुम देखते जाओ, रोकने का प्रयास मत करो, लेकिन उनके नकारात्मक प्रभाव से अपने आपको मुक्त रखो.
राजयोग में सबसे पहले आते हैं, यम तथा नियम, फिर आसन और प्राणायाम, फिर प्रत्याहार और धारणा और अंत में ध्यान और समाधि. यम- नियम व्यक्ति के व्यवहार एवं संबंधों को व्यवस्थित करते हैं, संशोधित करते हैं, सामंजस्यपूर्ण बनाते हैं. व्यवहार में जो नकारात्मक वृत्तियां हैं, उनको शांत करते हैं. ये नकारात्मक वृत्तियां क्या हैं? हिंसा व्यवहार का एक नकारात्मक गुण है.
असत्य बोलना व्यवहार का एक नकारात्मक गुण है. ये मैं उदाहरण के तौर पर बतला रहा हूं. यम-नियम में क्या आता है? सत्य आ जाता है, अहिंसा आ जाती है. जहां तक हो सके अपने जीवन में सत्य का आचरण करो. जहां तक हो सके हिंसा की उस अभिव्यक्ति के प्रति सजग हो जाओ जो तुम्हारे जीवन में प्रकट हो रही है ताकि अहिंसा को समझ पाओ. इस प्रकार यम तथा नियम के द्वारा हम अपने व्यवहार के विकारों को ठीक करते हैं. उसके बाद आसन-प्राणायाम द्वारा अपने शरीर और इंद्रियों में स्थिरता लाते हैं.
राजयोग का आसन और प्राणायाम हठयोग जैसा नहीं है. राजयोग में कहा गया है – स्थिरसुखमासनम्. आसन का मतलब होता है एक शारीरिक स्थिति में स्थिर हो जाना. आसन में स्थिरता और सुख का अनुभव होना चाहिए. स्थिरता एकाध मिनट के लिए नहीं, बल्कि एकाध घंटे तक होनी चाहिए. जब तक तुम ध्यान की अवस्था में हो तब तक के लिए सुखपूर्वक होनी चाहिए, क्योंकि राजयोग का संबंध मन के साथ है.
राजयोग में प्राणायाम का अभ्यास प्राणों की चंचलता समाप्त करके प्राणों में स्थिरता लाने के लिए है. इसीलिए महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम के बारे में अधिक नहीं कहा है, केवल तीन प्रकार के प्राणायामों की चर्चा की है- श्वास अंदर लेना, श्वास छोड़ना और श्वास रोकना. महर्षि पतंजलि ने ऐसा अभ्यास नहीं बतलाया है कि एक नासिका बंद कर लो, दूसरे को खोलो, इधर से लो, उधर से छोड़ दो. ये सब हठयोग में आते हैं, लेकिन राजयोग में प्राणायाम केवल स्थिरता के लिए किया जाता है.
प्रत्याहार तथा धारणा, राजयोग के पांचवें और छठे अंग हैं, जिनमें चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अभिव्यक्तियों को संशोधित और व्यवस्थित किया जाता है. महत्त्वाकांक्षाएं, इच्छाएं, वासनाएं तथा भोग की वृत्तियां मनुष्य को अशांत कर देती हैं, चंचल बना देती हैं. इन सबके प्रति तथा अन्य मानसिक व्यवहारों के प्रति द्रष्टा बन कर, मानसिक चंचलता को समाप्त करके फिर धारणा में अपने मन को एक बिंदु में एकाग्र किया जाता है. मन को एक अनुभव में स्थिर करने के बाद ध्यान की शुरुआत होती है. यह है राजयोग जिससे मानसिक संयम और शांति की प्राप्ति होती है.
क्रियायोग
हमारे गुरुजी कहते थे कि राजयोग के बाद जो तीसरा योग सिद्ध करना होता है वह है क्रियायोग. हठयोग हुआ शरीर के लिए, राजयोग मन के लिए और क्रियायोग है अपनी आध्यात्मिक चेतना की जागृति के लिए. क्रियायोग संपूर्ण योगों का निचोड़ है. यही योग का क्रम है जिसे हमारे गुरुजी ने प्रचलित किया है. हम केवल हठयोग या राजयोग नहीं सिखाते. हम तीनों योगों को समन्वित करते हैं और फिर इस समग्र योग को सिखलाते हैं. ये तीन योग मिल कर हमारी परंपरा में संपूर्ण योग कहलाते हैं.
अंतरंग योग
अभी जिनकी चर्चा की वे सभी बहिरंग योग हैं, जो साधना के बल पर आपको तैयार करते हैं, आपके जीवन में संयम लाते हैं, आपके जीवन को व्यवस्थित करते हैं. साधना के पश्चात आता है व्यवहार मतलब साधना से प्राप्त अनुभवों की अभिव्यक्ति. व्यवहार या अभिव्यक्ति से संबंधित योग हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग. कर्म हर व्यक्ति करता है और कर्म व्यक्ति को बंधन में बांधते हैं. लेकिन जब व्यक्ति कर्मयोग का अभ्यास करता है, तब फिर कर्म बंधन नहीं, मुक्ति का कारण बनता है.
(साभार : योगविद्या, वर्ष चार, अंक छह, जून 2015)
धर्म, आहार, विचार, सामाजिक प्रतिष्ठा कुछ भी हो, क्रिया योग सभी के लिए
राणा गौरी शंकर, मुंगेर
मुंगेर में वर्ष 1963 में ‘बिहार स्कूल ऑफ योग’ की स्थापना स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने की थी. इससे पूर्व उन्होंने दुनिया में योग के प्रचार-प्रसार के लिए 1961 में अंतरराष्ट्रीय योग मित्र मंडली की स्थापना की. बिहार योग विद्यालय से प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वामी जी के अनुयायियों ने योग को सकल विश्व में पहुंचाया. आज दुनिया के 40 देशों में सत्यानंद योग पद्धति के माध्यम से लोगों का मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक व शारीरिक विकास हो रहा है. उन्होंने क्रिया योग को आम लोगों तक पहुंचा कर विश्व में योग क्रांति का जो सूत्रपात किया था, उसी के परिणाम स्वरूपआज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग स्थापित हुआ है.
क्रिया योग को जन-जन तक पहुंचाया
स्वामी सत्यानंद ने क्रिया योग को गुरु-शिष्य की सीमाओं तक गुप्त ज्ञान के रूप में नहीं रखा, बल्कि मानव कल्याण के लिए आम लोगों तक पहुंचाया. आसन, प्राणायाम, मुद्रा, चक्र, प्राण, मंत्र और धारणाओं का समन्वित अभ्यास क्रम है क्रिया योग. इसके अभ्यास से मूलाधार में प्रसुप्त कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होती है. इस शक्ति की सहायता से हम अपने शरीर के शक्ति उत्पादक विभिन्न सूक्ष्म चक्रों को जाग्रत कर मस्तिष्क के सुसुप्त क्षेत्रों को जाग्रत करते हैं. स्वामी जी का मानना था कि जिस पद्धति से मनुष्य मात्र का कल्याण हो, उसे अपनाया जाना चाहिए. गुप्त रखने से इसका लाभ जनसामान्य को नहीं मिल सकता. स्वामी जी ने कहा था कि क्रिया योग के लिए कोई बाधा नहीं है. धर्म, आहार, विचार, सामाजिक प्रतिष्ठा कैसी भी हो आप क्रिया योग द्वारा लाभान्वित हो सकते हैं.
योग से उपचार पर अनुसांधन
योग आज जीवन जीने का सर्वोत्तम आधार बन गया है. इसके माध्यम से अनेक असाध्य रोगों का उपचार किया जा रहा और लोग स्वस्थ हो रहे हैं. इस दिशा में बिहार योग विद्यालय ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं. स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए 1984 में योग रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की. इसमें देश-विदेश के 100 से अधिक चिकित्साशास्त्रियों को जोड़ कर अनुसंधान कराये गये. इसके माध्यम से हृदय व परिसंचारण तंत्र, श्वसन तंत्र, पाचन तंत्र, मूत्र व प्रजनन प्रणाली, मांसपेशी व अस्थि तंत्र के क्षेत्र में कई रिसर्च किये गये हैं. अब तक दमा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप और गठिया जैसे रोगों पर यौगिक विधियों के प्रभाव की जांच हो चुकी है.
साथ ही गर्भवती महिलाओं पर होने वाले प्रभाव का भी अनुसंधान किया गया है. मानसिक विकारों में हठयोग के अभ्यासों के प्रभाव का भी अध्ययन किया गया है. प्राणायाम का तंत्रिका तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर भी अनुसंधान हुए हैं. ध्यान, कीर्तन, जप और योग निद्रा की उपयोगिता की जांच मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली तरंगों के आधार पर की गयी है. फाउंडेशन की संचालिका डॉ निर्मला सरस्वती का कहना है कि योग मानव जीवन के लिए अमूल्य देन है. इससे मानव में सजगता का भाव पैदा तो होता ही है, साधना व सिद्धि की भी प्राप्ति होती है.
योग की ज्योति जला रहे बच्चे
1995 में सात बच्चों से प्रारंभ हुआ बाल योग मित्र मंडल आज एक वट वृक्ष बन चुका है. इसमें विभिन्न देशों के लगभग डेढ़ लाख बच्चे शामिल हो चुके हैं जो बाल्यकाल से ही जीवन में योग को आत्मसात कर रहे हैं और अपने साथ-साथ समाज का भी जीवन बदल रहे हैं. इन बच्चों को संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए खेल-खेल में विभिन्न विधाएं सिखायी जाती हैं.
स्वामी सत्यानंद के तीन संकल्प
स्वामी सत्यानंद सरस्वती के तीन संकल्प थे. इसमें मुंगेर योग पीठ से जहां निष्ठा, सर्मपण, ध्यान व ज्ञान का संदेश मिल रहा है वहीं दूसरा संकल्प रिखियापीठ है जो सेवा, सद्भावना, प्रेम व करुणा का दान केंद्र है. तीसरा संकल्प संन्यास पीठ है, जिसके माध्यम से साधना, सर्मपण, कर्मठता एवं संस्कृति का विकास किया जायेगा.
योग का नहीं किया व्यवसायीकरण
योग को दुनिया में फैलाने वाले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती एवं उनके द्वारा स्थापित बिहार योग विद्यालय ने योग का व्यवसायीकरण नहीं किया. योग के माध्यम से मानव का कल्याण तथा मनुष्य के मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक व बौद्धिक विकास ही स्वामी सत्यानंद का मूल मंत्र रहा. उन्होंने योग को वैज्ञानिक स्तर पर मान्यता दिलायी और उसे मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ जोड़ा.
योग के जरिये रोग भगाने की पद्धति
बीकेएस अयंगर
बेल्लुर कृष्णामचार सुंदरराजा (बीकेएस) अयंगर की गिनती दुनिया के सबसे प्रभावशाली योग गुरुओं में होती है. अयंगर इंस्टीट्यूट ऑफ योग के जरिये अपने अंतिम दिनों तक सक्रि य रहे योगाचार्य के अनुयायियों की बड़ी संख्या है. आज दुनियाभर के 72 देशों की 100 से भी अधिक शाखाओं में लोग दमा, रक्तचाप और तनाव दुरुस्त करने के लिए पूरे मन से अयंगर योग का अभ्यास करते हैं.
14 दिसंबर, 1918 को कर्नाटक के बेल्लुर में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे अयंगर बचपन में मलेरिया, टायफाइड और क्षय रोग जैसी कई बीमारियों से ग्रस्त हो गये थे. वर्ष 1934 में जब वह 16 साल के थे, उन्होंने अपने शिक्षक श्री तीरूमलाई कृष्णामाचार्य से बचपन की बीमारियों से निजात पाने के लिए योग सीखा. इसके दो साल बाद उन्हें योग के प्रचार के लिए पुणो भेज दिया गया, क्योंकि वह अंग्रेजी अच्छी जानते थे. धीरे-धीरे उन्होंने अयंगर योग का विकास किया और अपने अभ्यास से योग सूत्र का अर्थ जाना, जो शरीर, दिमाग और भावनाओं को जोड़ता है. यह अष्टांग शैली आज दुनियाभर में मान्य है और इसका अभ्यास दुनियाभर के योग प्रशिक्षक करते हैं.
वर्ष 1952 में अयंगर को प्रसिद्ध वायलिन वादक यहूदी मेनुहिन से मिलने का मौका मिला, जिन्होंने अयंगर का परिचय पश्चिमी दुनिया से कराया और उन्हें यूरोप, अमेरिका तथा अन्य देशों में योग पर व्याख्यान देने और वहां इसके बारे में बताने का अवसर मुहैया कराया. 1975 में उन्होंने योगविद्या नाम से अपना संस्थान शुरू किया, जिसकी बाद में देश-विदेश में कई शाखाएं खोली गयीं.
उन्होंने समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, प्रसिद्ध दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति से लेकर क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर और राहुल द्रविड़ को भी योग सिखाया. अयंगर को 1991 में पद्मश्री, 2002 में पद्म भूषण और 2014 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. चीन ने उनके सम्मान में वर्ष 2011 में डाक टिकट जारी किया था, जबकि सैन फ्रांसिस्को ने तीन अक्तूबर, 2005 को बीकेएस अयंगर दिवस के रूप में मनाया. बताया जाता है कि बेल्जियम की रानी को भी उन्होंने 80 वर्ष की आयु में शीर्षासन करवाया था. यही नहीं, टाइम मैगजीन ने 2004 में दुनिया के सबसे प्रभावशाली 100 लोगों की सूची में अयंगर का नाम शामिल किया था.
उन्होंने योग पर 14 किताबें भी लिखीं, जिनमें लाइट ऑन योग, लाइट ऑन प्रणायाम और लाइट ऑन दि योग सूत्रज ऑफ पतंजलि शामिल हैं. इन किताबों का 17 भाषाओं में अनुवाद हुआ है. पिछले साल 20 अगस्त को 95 वर्ष की उम्र में सबसे उम्रदराज योग गुरु का निधन हो गया.
200 आसन, 14 प्राणायाम
अयंगर ने कई अनुसंधानों के बाद अपनी योग पद्धति का आविष्कार किया था. अयंगर योग के आसन व प्राणायाम का अभ्यास करने के लिए उसकी मुद्रा/अवस्था पर ध्यान देना सबसे जरूरी होता है. आसनों को सही तरह से करने के लिए उन्होंने कुछ सहायक चीजों का आविष्कार किया था जैसे, ब्लॉक, बेल्ट, रस्सी और लकड़ी की बनी चीजें आदि. उनका मानना था कि अगर आसन को सही तरह से किया जाये तो शरीर और मन को नियंत्रण में रखा जा सकता है, जिससे शरीर स्वस्थ तो रहता ही है साथ ही बीमारियों से लड़ने की क्षमता शरीर में बढ़ जाती है. अयंगर योग में 200 आसन और 14 प्राणायाम हैं, जो क्रमानुसार जटिलतर होते जाते हैं.
कैसे है दूसरे योग से अलग
दूसरे योग की तुलना में अयंगर योग को करने के लिए ज्यादा कुशलता की जरूरत होती है. शरीर में ज्यादा लचक और तनदुरुस्ती चाहिए. इसे करने में समय भी ज्यादा लगता है. दूसरे योग में शुरुआत से ही व्यक्ति प्राणायाम भी करने लगता है. लेकिन अयंगर योग में जब तक व्यक्ति आसनों की पद्धतियों को अच्छी तरह से सीख न ले, तब तक वह प्राणायम नहीं कर सकता. अयंगर योग में आसनों का निर्दिष्ट क्र म भी होता है जिसका पालन जरूरी होता है.
कारोबार के बीच असली योग
किशोर कुमार
बाजार और चमकीले प्रचार की महिमा ने आज जिस ‘योगा’ को स्थापित किया है, उसकी छाया में खरे और असली योग को चीन्हना पड़ता है. योग के अर्थ और लक्ष्य की मीमांसा करनी पड़ती है. कई बार इस भ्रम में उलझना पड़ता है कि क्या वास्तव में चित्त की वृत्तियों का निरोध करने वाला अष्टांग योग दुनिया भर में पसरे कारोबारी योगी व्याख्याकारों तक सीमित रह गया है?
योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच अनेक स्तरों पर उसकी व्याख्या गलत ढंग से कर दी जा रही है. हाल यह है कि महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम द्वारा प्रतिपादित योग की प्रक्रि या को कई बार महर्षि पतंजलि का बता दिया जाता है. इतना ही नहीं, योग के स्वयंभू अगुआ कई प्रकार के व्यायाम को राज योग और राज योग को हठ योग बताने में भी पीछे नहीं रहते. हठयोग तो षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध, इन पांच को मिला कर होता है. हठ योग में सिद्ध होने के बाद राज योग आता है. राज योग में हठयोग की प्रक्रियाएं पूरी तरह बदल जाती हैं.
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर योगसाधना का व्यावहारिक और सम्यक रूप से साक्षात्कार संभव हो सके और लोगों को जीवन के उद्देश्य को नये रूप में देखने का मौका मिले तो यह सुखद पल होगा. वैसे सदियों से भारत में मशहूर योग को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के आयोजन के साथ ही भले विश्वव्यापी पहचान मिल रही है. पर आधुनिक युग में दुनिया के 140 देशों में बिहार योग या सत्यानंद योग का डंका साठ के दशक से ही बज रहा है, जिसका श्रेय आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत स्वामी सत्यानंद सरस्वती को जाता है. शायद यही वजह है कि जब भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा तो इस पर सहमति बनते देर न लगी.
यह सही है कि कोई छह दशक पहले तक ज्यादातर लोगों को योग के दार्शनिक पक्ष का ज्ञान तो था, पर उन्हें उसके व्यावहारिक पहलू के विषय में जानकारी नहीं थी. तब माना जाता था कि योग केवल त्यागी, साधु और संन्यासियों के लिए है. यह मुक्ति पाने का रास्ता है. योग को एक ऐसे दर्शन या अनुशासन के रूप में माना जाता था, जिससे व्यक्ति अपनी आत्मा, अपने मन, शरीर और जीवन को सुदृढ़ बना सकता है. स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, रमण महर्षि, स्वामी कुवल्यानंद, बाबा रामदास, योगी रामचरक, स्वामी शिवानंद सरस्वती व पिछली सदी के अन्य संतों ने इससे संबंधित सैद्धांतिक ज्ञान आम जनता के बीच प्रचारित-प्रसारित किया था. ये सभी संत एक स्थापित परंपरागत योग विचारधारा का अनुसरण करते थे.
खास बात यह है कि इन योगियों ने चालीस के दशक में ही महसूस कर लिया था कि योग कालांतर में समाज के लिए एक जरूरत बन जायेगा. उत्तरी योग पंथ में सबसे पहले इस दिशा में कदम बढ़ाया था स्वामी शिवानंद सरस्वती ने. वे दशनामी परंपरा के अनुयायी रहे हैं. यह परंपरा यौगिक विचारधारा नहीं, बल्कि वेदांत परंपरा का अनुसरण करती है. इसके बावजूद उन्होंने अपने संन्यासियों को 1940 के प्रारंभ से ही योग की व्यावहारिकता के विषय में बताना शुरू कर दिया था.
सत्यानंद योग या बिहार योग के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने तांत्रिक योग की प्रधानता के साथ योग के सभी घटकों को मिला कर समन्वित योग सिखाया. तंत्र व वेदों से ली गयीं इन पद्धतियों को वर्ष 1974 में ‘ध्यान-तंत्र के आलोक में’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया था. स्वामी जी के प्रारंभिक अध्ययनों का प्रकाशन 1965 में ही ‘ध्यान की प्रक्रियाएं-शांति के लिए अभ्यास’ नामक पुस्तक में हो चुका था. 1971 में प्रकाशित तंत्र योग पेनोरामा में स्वामी जी ने तंत्र की उन तमाम धारणाओं की व्याख्या की थी, जो समकालीन समाज की जरूरतें पूरी करती थीं. इस तरह स्वामी जी तंत्र के यौगिक पहलू को प्रकाश में लाने वाले पहले व्यक्ति थे.
असल में प्रयोग और शोध सत्यानंद योग का मुख्य प्रतिपादित विषय है. स्वामी सत्यानंद ने अपने प्रारंभिक दिनों में ऋषिकेश प्रवास के दौरान ‘पहले प्रयोग करो, फिर अपनाओ’ पर ज्यादा ध्यान दिया था. उन्होंने शास्त्रों से ज्ञान प्राप्त कर प्रयोग किये और उसे आसनों का व्यावहारिक रूप दिया. नतीजतन पवनमुक्तासन और शक्ति बंध के आसनों की श्रृंखलाओं की रचना और भिन्न-भिन्न आसनों का वर्गीकरण संभव हुआ. स्वामी जी की विकसित प्राणायाम पद्धति आज पूरे विश्व में सिखायी जाती है. उन्होंने तंत्रों से ध्यान की कई पद्धतियों को खोजा. वे हैं- अंतरमौन, अजपाजप, त्रटक, चिदाकाश धारणा, प्राणविद्या और योग निद्रा. उन्होंने अभ्यासों के जरिये इन सभी के संन्यासियों पर प्रयोग किये, उनके प्रभावों का अवलोकन किया और तब जाकर परिणाम पर पहुंचे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकत्र्ता हैं)

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