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गुरु पूर्णिमा पर विशेष : सनातन व सार्वभौमिक है गुरु परंपरा

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं. इस दिन गुरु की पूजा का विधान है. साधक के लिए यह व्रत और तपस्या का दिन है. कहते हैं कि इस दिन गुरु की पूजा करने से वर्ष भर की पूर्णिमाओं के सत्कर्मो का फल मिलता है. महाभारत के रचयिता वेद व्यास का जन्मदिन […]

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं. इस दिन गुरु की पूजा का विधान है. साधक के लिए यह व्रत और तपस्या का दिन है. कहते हैं कि इस दिन गुरु की पूजा करने से वर्ष भर की पूर्णिमाओं के सत्कर्मो का फल मिलता है.
महाभारत के रचयिता वेद व्यास का जन्मदिन भी आज ही के दिन मनाया जाता है. उन्होंने चारो वेदों की भी रचना की थी, इस कारण उन्हें वेद व्यास कहा जाता है. उन्हें आदि गुरु भी कहा जाता है. और, उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है.
स्वामी सत्यानंद सरस्वती
हम गुरु पूर्णिमा दो उद्देश्यों से मनाते हैं. प्रथम, हम स्वयं को अपनी आध्यात्मिक परंपरा का स्मरण दिलाते हैं. द्वितीय, हम इम माध्यम से उन उच्चतर शक्तियों से संपर्क स्थापित करने का प्रयास करते हैं जो आध्यात्मिक विकास में हमारा मार्गदर्शन करती हैं. गुरु वे हैं जिन्होंने अपनी चेतना को पूर्णतया रूपांतरित कर दिया है.
वे भौतिक रूप से इस संसार में रहते हैं, किंतु उनकी आत्मा सदैव, स्थान और काल के परे, उच्चतम आयामों में विचरण करती रहती है. अपने विकास-चक्र को पूरा कर लेने के कारण उनके लिए कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता. फिर भी वे मानवता की चेतना का स्तर ऊंचा उठाने के लिये कार्य करते रहते हैं.
गुरु परंपरा आधुनिक नहीं है, यह सर्वाधिक प्राचीन है. मनुष्य की उत्पत्ति के पूर्व भी प्रकृति के रूप में गुरु का अस्तित्व था, जो ऋतुओं, वनस्पतियों और जानवरों का मार्गदर्शन करती थी. प्रागैतिहासिक एवं पाषाण युग के लोगों के गुरु थे, जीववादियों, प्रकृतिवादियों तथा मूर्तिपूजकों के भी गुरु थे. जो पशु- बलि देते थे, अमूर्त देवी-देवताओं में विश्वास करते थे तथा जादू-टोना, सिद्धि और अभिचार सीखना चाहते थे, उनके भी गुरु थे.
गुरु की परंपरा भारत तक ही सीमित नहीं है. अटलांटिक सभ्यता में गुरुओं की संख्या अब तक की किसी भी सभ्यता से अधिक थी. दक्षिण अमेरिका, यूरोप, मिस्र, मेसोपोटामिया, तिब्बत, चीन और जापान में गुरु होते थे. गुरु परंपरा सार्वभौमिक रही है. किंतु अनेक युद्धों एवं सामयिक विध्वंसों के चलते यह परंपरा धीरे-धीरे समस्त संसार में विनष्ट हो गयी है.
भारत को छोड़ कर कोई देश इसे सुरक्षित नहीं रख सका. अत: अब हम सिर्फ भारत में ही गुरु पूर्णिमा मनाते हैं. किंतु यदि आप प्राचीन दक्षिण अमेरिकी सभ्यता का अध्ययन करें, तो आप पायेंगे कि वे भी गुरु पूर्णिमा मनाते थे. हजारों वर्ष पूर्व समस्त संसार में गुरु पूर्णिमा अवश्य मनायी जाती होगी.
गुरु-शिष्य संबंध निश्चित रूप से मानवीय विकास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है. यह संबंध समस्त संप्रदायों, संगठनों और संस्थाओं का आधार है, चाहे वे आध्यात्मिक हों या कोई और. जब हम भूतकाल की समृद्ध संस्कृतियों तथा वर्तमान संस्कृतियों के बारे में विचार करते हैं तो पाते हैं कि वे भी इसी महत्वपूर्ण संबंध पर आधारित रही हैं. समस्त परंपराएं, कला और विज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु से शिष्य को, शिक्षक से छात्र को तथा पिता से पुत्र को हस्तांतरित होती रही हैं.
गुरु-शिष्य संबंध मानव अस्तित्व के महत्तर आयामों, श्रेष्ठतर क्षमताओं से संबद्ध है. इसके बिना हम बाह्य जगत की विभिन्नताओं में निराशाजनक रूप से खो जायेंगे. गुरुओं एवं शिक्षकों की रक्षात्मक कृपा ही उस आंतरिक स्नेत की ओर हमारा मार्गदर्शन करती है जहां से हमारी समस्त उच्चतर शक्तियां, नि:सृत होती हैं. यही कारण है कि महान शिक्षकों को श्रेष्ठतर संस्कृतियों की आधारशिला माना गया है. उनके ज्ञान और प्रेरणा के बिना न तो परंपराएं टिक सकेंगी और न संस्कृतियां जीवित रह सकेंगी.
भारत में प्राचीन काल से लेकर आज तक, हम गुरुओं और ऋषियों को अपनी सांस्कृतिक परंपरा की शक्ति और प्रकाश मानते रहे हैं. उन्होंने जो कुछ सिखाया तथा वेदों, उपनिषदों और तंत्रों में जो भी लिखा वह सारहीन दर्शन नहीं, बल्कि जीवन का एक पूर्ण विज्ञान है. उन्होंने लोगों को संयम, आत्मनियंत्रण, अंतर्दृष्टि एवं आत्मज्ञान द्वारा जीवन की पूर्णता प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया. यदि सभी लोग इन गुणों को अपना लें तो आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसी संस्कृति कितनी उन्नत हो जायेगी. हम अपने को एक आदर्श लोक में पायेंगे.
हमारे ऋषि-मुनियों के मन में ऐसी ही समृद्ध संस्कृति के निर्माण की कल्पना थी. हजारों वर्षो के प्रयोग के बाद उन्होंने एक ऐसी पद्धति का विकास किया जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पुनर्निर्माण कर सकता है तथा अपने बोध के दरवाजे खोल सकता है. यह योग विज्ञान की पद्धति है. जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के बरतनों को मजबूत बनाने के लिए उन्हें आग में पकाता है उसी प्रकार योग असुरक्षित एवं असंवेदनशील मन को सशक्त बनाता है. यह उन्हें पूर्ण सबल बनाता है. और इस प्रकार जीवन के उथल-पुथल एवं झंझावतों का सामना करने के लिए तैयार करता है.
आज हम एक महान यौगिक पुनर्जागरण के प्रारंभ का दर्शन कर रहे हैं. हम मानव जाति की विकास-यात्रा में एक लंबी अग्रवर्ती कूद की तैयारी कर रहे हैं. शीघ्र ही लोग सर्वत्र योग का अभ्यास करने लगेंगे और जो अभ्यास नहीं करेंगे वे इसके बारे में कुछ न कुछ अवश्य जानेंगे. निकट भविष्य में ही गुरु पूर्णिमा एक अंतरराष्ट्रय त्योहार बन जायेगा. पुरुष, स्त्री और बच्चे स्वयं को गुरु एवं भावी यौगिक संस्कृति के प्रति समर्पित करने हेतु सर्वत्र एकत्रित होंगे.
(स्वामी सत्यानंद जी द्वारा दिये गये सत्संग व प्रवचन पर आधारित, स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती द्वारा संकलित और योग पब्लिकेशन्स ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार द्वारा प्रकाशित पुस्तक गुरु शिष्य संबंध से साभार)
गुरु के प्रति समर्पण भाव ही है गुरु पूर्णिमा
स्वामी माधवानंद, चिन्मय मिशन आश्रम
भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान का दरजा दिया गया है. पुराणों में भी गुरु की महत्ता का वर्णन है. गुरु वैसी शक्ति हैं, जिनके माध्यम से हम पूरा विश्व जीत सकते हैं. गुरु पूर्णिमा वेदव्यास जी के जन्मदिन पर मनाया जाती है. मरकडेय पुराण में भी इसका वर्णन है. एक दिन सारे ऋषि भगवान से पूछते हैं कि जिस गुरु से हम रोज ज्ञान प्राप्त करते हैं, जिस गुरु से सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा मिलती है, उस गुरु के लिए हमें क्या करना चाहिए? क्या उनके लिए एक दिन नहीं होना चाहिए? जवाब मिलता है कि वेदव्यास भगवान विष्णु के अवतार हैं, इसलिए इसी दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाये.
गुरु के प्रति समर्पण भाव ही गुरु पूर्णिमा है. जिस गुरु से हमें शिक्षा मिलती है, उसकी हम पूजा क्यों न करें. गुरु पूर्णिमा के दिन ही क्यों, पूरे जीवन का समर्पण क्यों नहीं? मेरा मानना है कि गुरु ज्ञान प्राप्ति के लिए सबसे सरल एवं उपयुक्त माध्यम हैं. वह हमारी सारी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं. सत्य की राह दिखाते हैं. यहां तक कि भगवान की प्राप्ति के लिए गुरु ही माध्यम बनते हैं. गुरु बताते हैं कि मनुष्य एवं पशुओं में जानने की प्रवृत्ति एक समान रहती है, लेकिन पशु को सहजता से कुछ नहीं मिलता है, क्योंकि उसमें चिंतन करने की शक्ति नहीं होती है.
शास्त्रों में आयी गुरु -महिमा ठीक होते हुए भी वर्तमान में प्रचार के योग्य नहीं है. इसकी वजह यह है कि आजकल दंभी-पाखंडी लोग गुरु -महिमा के सहारे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं. इसमें कलियुग भी सहायक है, क्योंकि कलियुग अधर्म का मित्र है.
कलिनाधर्ममित्रेण (पद्मपुराण, उत्तर – 193। 31). वास्तव में गुरु -महिमा प्रचार करने के लिए नहीं है, प्रत्युत धारण करने के लिए है. कोई गुरु खुद ही गुरु-महिमा की बातें कहता है, गुरु -महिमा की पुस्तकों का प्रचार करता है, तो इससे सिद्ध होता है कि उसके मन में गुरु बनने की इच्छा है. जिसके भीतर गुरु बनने की इच्छा होती है, उससे दूसरों का भला नहीं हो सकता.
गुरु की महिमा वास्तव में शिष्य की दृष्टि से है, गुरु की दृष्टि से नहीं. एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है. गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैंने कुछ नहीं किया, प्रत्युत जो स्वत:, स्वाभाविक वास्तविक तत्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी. मतलब यह हुआ कि मैंने उसी के स्वरूप का उसी को बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीं. चेले की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मुझको सब कुछ दे दिया. जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है. तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको तत्वबोध हुआ है. अच्छे एवं खराब का चिंतन करने के कारण हम अलग हैं.
सारे विकार हर नया जीवन देते हैं गुरु
स्वामी भवेशानंद, रामकृष्ण मिशन
प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे, तो गुरु पूर्णिमा के दिन वे श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करते थे और उन्हें अपने सामथ्र्य के अनुसार दान-दक्षिणा देते थे. आषाढ़ की पूर्णिमा हमें जगत ज्वाला से मुक्त कर अखंड आनंद की अमृतधारा में भिगोने की पूर्णिमा है. जिस प्रकार आषाढ़ की घटा बिना भेदभाव के सब पर जलवृष्टि कर जन-जन का ताप हरती है, उसी प्रकार विश्व के सभी गुरु अपने शिष्यों पर इस पावन दिन में आशीर्वाद की वर्षा करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं :
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥
गुरु मोह रूपी अंधकार में सुंदर प्रकाश है. जिसके हृदय में यह प्रकाश अवतिरत होता है. वह बड़ा भाग्यवान है.गुरु किसे कहत हैं? ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु‘ का अर्थ है, प्रकाश. इस तरह गुरु उसे कहते हैं जो विषयों के जीवन के समस्त तम् को हर कर उसे प्रकाश से भर देते हैं. यही बात इस श्लोक में भी कही गयी है :
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
ईश्वर ही जगत गुरु हैं. गुरु को मनुष्य मान कर प्राय: हम धोखा खा जाते हैं और सामने उपस्थित परमात्मा को पहचान ही नहीं पाते. श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- ‘‘जो गुरु के बारे में मनुष्य-बुद्धि रखता है, उसके साधन भजन का क्या फल होगा?’’ गुरु के बारे में मनुष्य बोध नहीं रखना चाहिए. वस्तुत: गुरु और गोविंद में कोई तात्विक अंतर नहीं है.
गुरु पूर्णिमा को भूतकाल के सभी गुरुओं का स्मरण करें. जब हमारे जीवन में संपूर्णता होती है, तो हममें कृतज्ञता की भावना उठती है. फिर हम गुरु से आरंभ करते हैं और अंत में जीवन की सभी वस्तुओं का आदर-सत्कार करने लगते हैं. गुरु पूर्णिमा के दिन भक्त संपूर्ण कृतज्ञता में जाग्रत होता है.
भक्त अपने-आप बहनेवाला सागर बन जाता है. गुरु पूर्णिमाभक्ति और कृतज्ञता में उदित होने का उत्सव मनाने का समय है. बिना यथेष्ठ मूल्य चुकाये कुछ भी प्राप्त नहीं होता. संभवत: हमारे उच्चतम संघर्ष के बावजूद मंजिल इतनी दूर रह जा सकती है कि वहां तक पहुंच पाने में हम हतोत्साहित हो जायें. या संभवत: वहां तक पहुंच काफी निकट हो. कौन जानता है कि वह शुभ मुहूर्त कब आ जायेगा.
और जब सत गुरु हमें मिल जाते हैं, तब वे पहले हमें मार ही डालते हैं. ‘गुरु मृत्यु: औषधि: पय:’ – गुरु मृत्यु है. वह हमारे सारे विकारों को समाप्त कर देते हैं. मानो पुराने व्यक्तित्व को समाप्त ही कर देते हैं, फिर अपने मंत्रौषधि से हमें प्राण-दान देते हैं और तब अपने स्नेह के दुग्धामृत से हमारे आध्यात्मिक जीवन को उस ओर सबल स्वस्थ कर देते हैं. इस संदर्भ में महात्मा कबीर ने एक बहुत सुंदर दोहा कहा है –
‘गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर-बाहर चोट।। ’
जैसे कुम्हार घड़ा बनाते समय घड़े की मिट्टी में पड़े कंकड़ों को बीन-बीन कर निकाल फेंकते हैं और घड़े के भीतर हाथ का सहारा देते हुए लकड़ी से थाप देकर उसे मजबूत बनाते हैं वैसे ही सद्गुरु भी अपने शिष्यों की संपूर्ण विकृतियों को पहले चुन-चुन कर दूर करते हैं और इसके लिए गुरु अपने शिष्यों को अनुशासित करते हैं तथा अपने शिष्यों पर अपनी करुणा, स्नेह व वात्सल्य का सहारा देकर उसे भव्य, शांत एवं ब्रह्म ज्ञ बना देते हैं.
मित्र और गुरु सतर्क होकर चुनें
मृत्युंजय कुमार सिंह देव
हर व्यक्ति का दीक्षा संस्कार अवश्य होनी चाहिए. गुरु के समीप जाने पर उनके आसन से कितनी दूरी पर, किस दिशा में और कैसे बैठना चाहिए. गुरु से कितना अलाप करना चाहिए, अपनी जिज्ञासाओं को कब और कैसे उनके समक्ष रखना चाहिए, इस बात को जानना चाहिए.
यदि आपके मन में कोई जिज्ञासा है, तो गुरु के मूड, मनोस्थिति को देख कर ही उसे व्यक्त करना चाहिए. किसी निश्चित समय-काल में गुरु की वेश-भूषा, उनकी मुद्रा, टहलते समय पड़ते हुए कदमों और उनके हाव-भाव को देख कर उनकी मनोस्थिति के बारे में जाना जा सकता है. यह सब छोटी-छोटी और मामूली विद्याएं हैं और इन्हें अवश्य जानना चाहिए. उपासना और पूजा जो हमलोग करते हैं, इसमें जब तक गुरु से राय नहीं लेंगे, गुरु उसको बतायेगा नहीं, तब तक सफलता मिलना संभव नहीं है.
आजकल पश्चिमी देशों में हर तरह के धर्मगुरु मिलते हैं. वे बहुत अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं, जैसे नक्शा खींच कर बता दिया जाता है. जिस रास्ते का वे उपदेश करते हैं, उस पर डेग भर चले नहीं होते. रास्ता बताने का अधिकार उसी को है, जो उस पर चला हो, क्योंकि मार्ग के ऊंचा-नीचा, अच्छा-बुरा और रोड़ा-पत्थर का उसे ज्ञान होता है. उसके बताये मार्ग पर चल कर आदमी सफलता को प्राप्त कर सकता है. जो लोग साहु, मित्र और गुरु के प्रति सचेत हो जाते हैं, सावधानी बरतते हैं, वे फिर मन के गुलाम नहीं होते हैं. जो कुछ मन कहेगा, उसके पीछे-पीछे नहीं भागेंगे.
गुरुजनों के प्रति छल-कपटपूर्ण व्यवहार करने पर वांछित सफलता नहीं मिलती है. जीवन भर दु:ख और वेदना ही प्राप्त होती है. मृत्यु के बाद और मृत्यु शय्या पर तो महान वेदना का ही स्वागत करना पड़ता है. साधु अपने शिष्यों को आदर्श आचरण और व्यवहार की दिनचर्या का प्रशिक्षण देता है. उन दिनचर्याओं का उल्लंघन करनेवाले उस साधु के शिष्य की श्रेणी में नहीं आते. कोई शिष्य गलत आचरण और व्यवहार करके अच्छे तत्व को जन्म देगा, ऐसी आशा भी नहीं करनी चाहिए.
आप सतर्क और स्थिर हों, अन्यथा परिस्थिति के तूफान के चलते व्यग्रता और बेचैनी की स्थिति में उखड़ कर फेंका भी सकते हैं. इस दुखद स्थिति से बचने के लिए गुरुजनों के संकेतों पर ध्यान दें. गुरुजनों पर आश्रित होकर उनके संकेत और मार्ग-दर्शन पर चलनेवाले व्यक्तियों पर इन दुखद स्थितियों का प्रभाव कम होता है.
लेकिन, यदि हम उनकी अनदेखी करते रहें, उनमें श्रद्धा और विश्वास न हो, उनके आदेशों-निर्देशों में कोई रुचि न हो, तो हमारा उनके यहां आना-जाना निर्थक है. हम उसी ‘‘सुअर को खोभार भावे, कीच को भावे केतकी’’ वाली महावत को चरितार्थ करेंगे.
गुरु नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!
किशोर कुमार
गुरु पूर्णिमा को शिष्य पूर्णिमा कहा जाए तो इसकी प्रासंगिकता ज्यादा होगी. इसलिए कि गुरुपूर्णिमा की महत्ता योग्य शिष्यों की बदौलत है. शिष्यत्व स्वयं में एक महान गरिमामयी स्थिति है. बड़े-बडे संत कह गये हैं कि उनका शिष्यत्व ही उनकी गुरुता है. शिष्य बनने पर अपने अंदर के अहंकार का लोप होता है और गुरु के रूप में संपूर्ण शक्ति जाग्रत होती है. इसके उलट शिष्य के अंदर गुरु के गुरुत्व का बोध होते ही अहंकार का जन्म होता है, जो न गुरु रहने देता है और न शिष्य.
विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे : ‘‘कभी-कभी हम सोचते हैं कि इसका नाम गुरु पूर्णिमा के बदले शिष्य पूर्णिमा रखा जाता तो ज्यादा अच्छा रहता. इसलिए कि गुरु लोगों की पूर्णिमा तो कब की हो चुकी होती है.
अगर पूर्णिमा नहीं हुई होती तो गुरु बनते ही नहीं. सोचने की बात है कि जिनका चित्त अंधकारमय है, जिनके मन में मलिनता है, जो अविद्या से ग्रस्त हैं, वे भला गुरु कैसे हो सकते हैं? जिनका अंदर और बाहर प्रकाश से परिपूर्ण है, ज्योत्सनामय है और जिनके अंदर आत्मज्ञान का प्रकाश चारों दिशाओं में फैला हुआ है, गुरु तो वे हुए न.’’
आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिए साधक को एक अनुभवी या आत्मज्ञानी गुरु की जरूरत होती है. पर ऐसे योग्य गुरु की तलाश कैसे हो, उनकी पहचान कैसे हो? आचार्य रजनीश कहते हैं, गुरु की खोज बहुत मुश्किल होती है. गुरु भी शिष्य को खोजता रहता है. बहुत मौके ऐसे होते हैं कि गुरु हमारे आसपास ही होता है, लेकिन हम उसे ढूंढ़ते हैं किसी मठ में, आश्रम में या जंगल में. बहुत साधारण से लोग हमें गुरु नहीं लगते, क्योंकि वे तामझाम के साथ हमारे सामने प्रस्तुत नहीं होते हैं.
जैन धर्म में कहा गया है कि साधु होना सिद्धों या अरिहंतों की पहली सीढ़ी है. यदि कोई साधु ही नहीं है और गुरु बन कर दीक्षा देने लगे तो क्या होगा? उनके चेलों की आध्यात्मिक यात्रा कैसे पूरी होगी? स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि गुरु के पास सामथ्र्य है या नहीं, यह पूछने के बदले यह पूछा जाना चाहिए कि चेले के पास गुरु के सामथ्र्य के आशीर्वाद को धारण करने की पात्रता है या नहीं. आखिर गर्म पानी डालते ही कच्चा शीशे कागिलास फूट ही जाता है ना. इसलिए केवल गुरु सामथ्र्यवान हो यह काफी नहीं है. चेले को भी सामथ्र्यवान होना पड़ता है.
जब शिष्य अपने गुरु को हृदय में बसा लेता है. फिर तो गुरु अंदर चला जाता है. आंखें बंद करें तो गुरु ही दिखायी देंगे. सवाल है कि गुरु तो सामने बैठे हैं. फिर यह अंदर जो गुरु दिख रहा है, वह कौन है? इस गूढ़ार्थ को समझना होगा. तब पता चलेगा कि अंदर जो दिख रहा है वह और कोई नहीं, बल्किआप स्वयं हैं.
(लेखक पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
सच्चे गुरु का साथ शाश्वत होता है
स्वामी निगमानंद, योगदा मठ
गुरु गीता में गुरु का उचित वर्णन ‘अज्ञान-उच्छेदक’ के रूप में किया गया है. एक सच्च आध्यात्मिक गुरु वही है जो आत्मसंयम की प्राप्ति के द्वारा सर्वव्यापक परमात्मा से तद्रूपता स्थापित कर देता है. परमहंस योगानंद ने कहा है, ‘‘अंधा, अंधे को राह नहीं दिखा सकता.’’ केवल ब्रह्म ज्ञानी गुरु ही दूसरों को ईश्वर के विषय में उचित ज्ञान दे सकता है. अपने देवत्व को पुन: प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के प्रबुद्ध गुरु की शरण लेना आवश्यक है. जो कोई भी पूर्ण निष्ठा के साथ सच्चे गुरु का अनुगामी बनता है, उन्हीं की तरह बन जाता है. क्योंकि गुरु शिष्य की आत्मज्ञान के अपने स्तर तक उत्थापन करने में सहायता करते हैं.
गुरु-शिष्य की आत्मीयता मैत्री की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है, क्योंकि इसका आधार अप्रतिबंधित दिव्य प्रेम और विवेक है. सब संबंधों में यह उच्चतम एवं पवित्रतम है. इस प्रकार की अंतरंगता का साझीदार ज्ञान एवं मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है. परमहंस योगानंद जी कहे हैं : ‘जीवन की घाटी में अंधगतिशीलता के कारण अंधकार में ठोकरें खाते हुए आपको किसी ऐसे व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है जिसके पास आंखें हों. आपको गुरु चाहिए. विश्व में फैली घोर अव्यवस्था से बाहर निकलने का केवल मात्र मार्ग है. किसी प्रबुद्ध गुरु का अनुसरण करना.’
योगानंद जी का जन्म पांच फरवरी, सन 1893, में उत्तर प्रदेश के पवित्र शहर गोरखपुर में, मुकुंद लाल घोष के नाम से हुआ. उनके जीवन के आरंभिक वर्षो से ही यह स्पष्ट था कि उनका जीवन किसी दैवी उद्देश्य के हेतु है. उनके निकटतम लोगों के अनुसार बचपन से ही उनकी चेतना की गहराई एवं आध्यात्म का अनुभव साधारण से कहीं अधिक था. अपनी युवावस्था में उन्होंने एक ईश्वर प्राप्त गुरु की प्राप्ति की आशा से, साधु-संतों की खोज की. सन 1910 में, सत्रह वर्ष की आयु में वे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि के शिष्य बने.
श्रीयुक्तेश्वरजी महान गुरुओं की उस परंपरा में से एक थे, जिनके साथ योगानंदजी जन्म से ही जुड़े हुए थे : योगानंदजी के माता-पिता लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे, जो श्रीयुक्तेश्वरजी के गुरु थे. जब योगानंद जी अपनी मां की गोद में ही थे, तब लाहिड़ी महाशय ने उन्हें आशीर्वाद दिया था और भविष्यवाणी की थी, ‘छोटी मां, तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा. एक आध्यात्मिक इंजन की भांति, वह कई आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जायेगा.’
गुरु सर्वव्यापी है. उसकी सहायता, उसका निर्देशन एवं उसकी शिक्षाएं, संसार में उसके जीवन काल तक ही नहीं, बल्कि सर्वदा विद्यमान रहती हैं. योगानंद जी अक्सर कहा करते थे, ‘मेरे जीवन काल में बहुत से भक्त आये हैं. मैं उन्हें पुनजर्न्म से ही जानता हूं. और भी बहुत से आयेंगे.
मैं उन्हें भी जानता हूं. ये मेरे देहत्याग के बाद आवेंगे.’ निष्ठावान अनुयायियों को गुरु के देहत्याग के बाद भी उनकी सहायता बंद नहीं होती. अगर बंद हो जाती है तब वे सच्चे गुरु नहीं हैं. सच्चे गुरु की संचेतना जीवन एवं मृत्यु के पट से अबाधित शाश्वत, सतत, जागरूक, सतत तादात्मयपूर्ण रहती है. शिष्य के विषय में उसकी जानकारी एवं उसके साथ गुरु का संबंध निरंतर रहता है.
योगानंद जी उपदेश देते हैं : ‘अपने अंतर में निरंतर प्रभु के लिए रोते रहो. जब आप प्रभु को उनके लिए अपनी वांछा का विश्वास दिला लेते हैं तो वे आपके गुरु को आपके पास भेज देते हैं ताकि आप ईश्वरोपलब्धि का ज्ञान प्राप्त कर सके.’ योगानंद जी ने कहा है : ‘मैं कई बार अपनी नाव को मृत्योपरांत खाड़ी के आर-पार चला कर अपने सर्वोच्च आनंद के धाम से वसुधा के छोर पर वापस आना चाहता हूं. मैं अपनी नाव में, उन पीछे छूट गये प्रतीक्षारत तृषित प्राणियों को लाद कर सतरंगी उल्लास के नील पुष्कर के पास ले जाना चाहता हूं, जहां मेरे परमपिता, सब इच्छाओं का शमन करनेवाली अपनी स्निग्ध शांति वितरित करते हैं.’
वैदिक संस्कृति में गुरु को
है भगवान का दरजा
राधारमण दास
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की शरण में जाना चाहिए. उसके प्रति समर्पित होकर उन्हें सेवा प्रदान करें. स्व-साधित आत्मा से तुम्हें ज्ञान मिलेगा, क्योंकि उसने सच को देखा है. वैदिक संस्कृति और रीतियों में गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है. लेकिन गुरु की क्या योग्यता होनी चाहिए? श्रीमद्भागवत में गुरु की योग्यता का वर्णन कुछ ऐसे किया गया है, ‘शुद्ध भक्त या गुरु सर्वदा ही भगवान के व्यक्तित्व के ध्यान में मग्न रहते हैं.’
इस तरह से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आत्मिक गुरु वह होता है जो एक सौ प्रतिशत भगवान का ध्यान करता है. वह जीवन की समस्याओं का समाधान कर सकता है. जो शुद्ध भक्तजन होते हैं उन्हें महात्मा या महान संत कहा जाता है, ऐसे व्यक्तित्व जो ज्ञान में परिपूर्ण होते हैं. वह हमेशा ही सर्वोच्च ईश्वर और उनके कमल पद का ध्यान करते हैं और इस तरह से वह स्वत: ही मोक्ष की प्राप्ति करते हैं.
गुरु पूर्णिमा को संत व्यास के सम्मान में आषाढ़ महीने के पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. व्यास नदी का नामकरण इसलिए किया गया था क्योंकि व्यास ने इसके तट पर तपस्या की थी और चारों वेदों, महाभारत और अट्ठारह पुराणों की रचना की थी.
चूंकि यह किसी एक व्यक्ति के लिए अपने जीवनकाल में इसे प्राप्त करना संभव नहीं है, ऐसा माना जाता है कि एक सौ वर्ष के अंतराल में व्यास का नाम कई संतों के लिए प्रयुक्त हुआ होगा. आमतौर पर वेद व्यास का नाम कृष्ण द्वैपायन के साथ जुड़ा है जो सत्यवती और संत पाराशर के पुत्र थे. यह सत्यवती के महाभारत से प्रसिद्ध शांतनु के साथ विवाह के पूर्व की बात है.

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