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किसे जलायेगी पटेल आंदोलन की आग?

13 साल बाद गुजरात फिर अशांत गुजरात में 13 साल बाद एक बार फिर अशांति है. इस बार मुद्दा है पाटीदार या पटेल आरक्षण आंदोलन का. वैसे तो इसकी मांग लगभग तीन दशकों से उठती आ रही है, लेकिन 25 अगस्त को अहमदाबाद में जो कुछ हुआ, उसे क्रांति का नाम दिया जा रहा है. […]

13 साल बाद गुजरात फिर अशांत

गुजरात में 13 साल बाद एक बार फिर अशांति है. इस बार मुद्दा है पाटीदार या पटेल आरक्षण आंदोलन का. वैसे तो इसकी मांग लगभग तीन दशकों से उठती आ रही है, लेकिन 25 अगस्त को अहमदाबाद में जो कुछ हुआ, उसे क्रांति का नाम दिया जा रहा है. क्या है यह, क्या है इसकी वजह और किसे है इससे खतरा, आइए जानें.

पिछले कुछ दिनों से गुजरात की राजनीति में भूचाल मचा हुआ है. मंगलवार को अहमदाबाद के जीएमडीसी मैदान में पटेल, पाटीदार आरक्षण आंदोलन के लिए रैली आयोजित हुई. 22 साल के युवा नेता हार्दिक पटेल द्वारा बुलायी गयी इस क्रांति रैली में पांच लाख से ज्यादा लोग पहुंचे. इस आंदोलन में श‍िरकत करने वाले सबसे ज्यादा पाटीदार समुदाय के युवा हैं और इसने इतना बड़ा रूप लिया कि सूरत, अहमदाबाद और मेहसाणा में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत आ गयी और राज्यभर में हुए विरोध प्रदर्शनों में नौ लोगों की जान चली गयी और करोड़ों की संपत्ति का भी नुकसान हुआ.

वहीं इन सब के साथ टीवी, सोशल मीडिया व दुनिया भर के अखबारों में हार्दिक पटेल छा गये. दरअसल यह सब कुछ पुलिस की ही एक गलती से हुआ. मंगलवार को पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल की गिरफ्तारी के लिए पुलिस की रणनीति ने न सिर्फ हार्दिक को हीरो बना दिया, बल्कि उसके समर्थन में उमड़ी भीड़ के गुस्से को हवा भी दे दी. मंगलवार की सुबह लाखों लोगों की रैली में से कुछ हजार लोगों की भीड़ जीएमडीसी मैदान में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रही थीं. उन लोगों पर अत्यधिक बल प्रयोग करके पुलिस ने उन्हें हिंसा के लिए भड़काने का काम किया है.

समाराेह स्थल पर पुलिस ने समर्थकों की भीड़ पर लाठीचार्ज किया. मेहसाणा और सूरत में एक, अहमदाबाद में चार और बनासकांठा में तीन पाटीदारों की जान चली गयी. कई अन्य स्थानों में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलायी गयीं. इसके जवाब में पाटीदारों ने सरकारी संपत्ति को आग के हवाले करते हुए कई पुलिसवालों पर हमला कर दिया. भीड़ का गुस्सा इतना ज्यादा था कि दूसरे दिन यानी बुधवार को भी तनाव का माहौल बना रहा. दरअसल मंगलवार की शाम जीएमडीसी मैदान में जब हार्दिक प्रदर्शनकारियों के साथ अनशन पर बैठे थे, पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने पहुंची. जैसे ही हार्दिक की गिरफ्तारी की खबर फैली, पूरे राज्य में शांति व्यवस्था ध्वस्त हो गयी.

उग्र विरोध प्रदर्शन भड़क उठे. गुजरात दंगों के बाद यह पहली बार था, जब गुजरात में इस तरह की हिंसा ने जोर पकड़ा. पाटीदार प्रदर्शनकारियों ने हार्दिक की गिरफ्तारी का ऐसा विरोध किया कि पुलिस को उसे दो घंटे में ही छोड़ना पड़ा. इस घटना ने हार्दिक को लाखों लोगों का हीरो बना दिया और साथ ही उसे सरकार को चेतावनी देने का दुस्साहस भी दे दिया है. 22 साल के इस पाटीदार नेता की हिम्मत को और ताकत तब मिल गयी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन उग्र प्रदर्शनकारियों से शांति की अपील करते हुए हार्दिक की गिरफ्तारी के मामले की जांच का आदेश दिया.

बताते चलें कि कृषि कार्यों से जुड़ा पटेल समाज अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) में शामिल करने और आरक्षण का लाभ दिये जाने की मांग कर रहा है. गुजरात में 27 प्रतिशत सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित हैं. वहीं अनुसूचित जाति वर्ग के लिए 15 प्रतिशत, जनजाति के लिए 49.5 प्रतिशत सीटें आरक्ष‍ित हैं. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 1992 से अध‍िकतम 50 प्रतिशत तक के आरक्षण की सीमा निर्धारित कर रखी है.

बहरहाल, यह आंदोलन गुजरात के मेहसाणा जिले से कोई महीनेभर पहले शुरू हुआ, जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल जैसे नेता आते हैं. मेहसाणा के साथ यह आंदोलन अब लगभग गुजरात के सभी जिलों में फैल चुका है और राज्य से लेकर केंद्र तक सत्ताधारी भाजपा की नाक में दम कर रहा है.

इस मुद्दे पर पूरे राज्य भर में सक्रिय अलग-अलग पाटीदार पार्टियाें और समूहों ने, ऐसी छोटी-बड़ी रैलियों की इन दिनों बाैछार कर दी है. इनमें पाटीदार अमानत आंदोलन समिति की 138, सरदार पटेल ग्रुप की 90 रैलियों के अलावा, स्थानीय समूहों की 112 रैलियां आयोजित हो चुकी हैं. यही नहीं, ये रैलियां लोगों की अच्छी-खासी भीड़ भी आकर्षित कर रही हैं. कुछ बड़ी रैलियों की बात करें तो अहमदाबाद की रैली में पांच लाख से अधिक लोग शामिल हुए, जबकि सूरत की रैली में दो लाख लोग और वडोदरा की रैली में 38 हजार लोगों ने शिरकत की. इनमें विसनगर और अहमदाबाद की रैलियों में हिंसा की खबरें भी आयीं.

इस पूरे मामले की पृष्ठभूमि तलाशें तो हम पायेंगे कि 1981 में कांग्रेस के नेतृत्व में गुजरात सरकार में मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने बक्शी आयोग की सिफारिश पर समाज के पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण की नीति लागू की. उसके लिए सोशली एंड इकोनॉमिकली बैकवर्ड कास्ट (एसइबीसी) के नाम से नयी कैटेगरी बनायी गयी. इसके नतीजतन राज्य भर में आंदोलन हुए और 100 से ज्यादा लोग मारे गये. 1985 में सोलंकी ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन क्षत्रिय, हरिजन, मुसलमानों और आदिवासियों के समर्थन पर वे फिर से सत्ता में आये. उसी दौरान इन समुदायों के विपरीत खड़े पाटीदारों का राजनीतिक वर्चस्व कम होने लगा. और सरकार ने आगे चल कर उसी एसइबीसी को ओबीसी के अंतर्गत रख दिया गया. 2014 आते-आते इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले समुदायों की संख्या 81 से बढ़ कर 146 हो गयी, लेकिन पटेल समुदाय को इसमें शामिल नहीं किया गया.

यहां यह जानना जरूरी है कि सोलंकी के जमाने से ही पटेल तभी से कांग्रेस से नाराज माने जाते हैं और यही वजह है कि वे भाजपा के करीब आये. और आज स्थिति यह है कि आज गुजरात में भाजपा पर पूरी तरह से पटेलों का प्रभुत्व माना जाता है. यह बात इसी से जाहिर होती है कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और पार्टी अध्यक्ष आरसी फलदु, दोनों पटेल नेता ही हैं. इसी वजह से भाजपा इस आंदोलन से सकते में है और आंदोलन को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश में जुटी है. वहीं, इस आंदोलन की तपिश भी सबसे ज्यादा भाजपा ही महसूस कर रही है. राज्य के अलग-अलग हिस्सों में स्थित स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल, गृह राज्य मंत्री रजनीकांत पटेल, कृषि राज्य मंत्री जयंती कवाडिया, मोहन कुंदारिया, सामाजिक न्याय मंत्री रमनलाल वोरा, सांसद रंजन भट्ट, राज्य सभा सांसद मनसुख मंदाविया, बवानजी मेतालिया के घर, ऑफिस और कार का या तो घेराव किया गया, या उनके साथ तोड़फोड़ की गयी.

पूरे मामले के मद्देनजर पाटीदार अमानतआंदोलन समिति ने राज्यव्यापी बंद का आह्वान किया है. अहमदाबाद में नौ पुलिस थानों पर कर्फ्यू लगाया गया. स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सेना बुलायी गयी है. इसके अलावा, रैफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ के पांच हजार जवान भी तैनात किये गये हैं. स्थिति सामान्य होने तक स्कूल और कॉलेज बंद कर दिये गये हैं और राज्य के कुछ हिस्सों में इंटरनेट सेवा ठप कर दी गयी है. अहमदाबाद के अलावा, मेहसाणा, राजकोट, सूरत और सौराष्ट्र तक हिंसा की खबरें आ रही हैं, जिसमें 140 बसें, कारें और मोटरसाइकिलें फूंक दी गयीं. दो दिन बाद स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रही है.

आगे की बात करें तो गुजरात में महानगर पालिका और नगर पालिका के चुनाव अक्तूबर में होने हैं. ऐसे में अगर भाजपा के जनाधार में नाराजगी आयेगी तो चुनाव में उसे इसका खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. यही वजह है कि यह पूरा मामला राजनैतिक तौर पर संवेदनशील माना जा रहा है और लगातार तेज हो रहे इस आंदोलन पर भाजपा ही नहीं, कांग्रेस ने भी मौन साध रखा है, क्योंकि इस मुद्दे पर कोई भी राजनैतिक बयान फायदे से ज्यादा नुकसान कर सकता है. ऐसे में आने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों में इस आंदोलन का कोई प्रभाव पड़ता है या नहीं और यह आंदोलन और कितना आगे तक जाता है, यह देखना अभी बाकी है.

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