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सीरिया संकट -3 : अरब देशों का रवैया अनुकूल नहीं

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे बड़ा मानवीय संकट सीरिया में जिंदगी के लिए जंग जारी है और दर्द है कि थमने का नाम ले ही नहीं रहा है. वैसे भी सीरिया संकट का समाधान तब तक संभव नहीं है, जब तक पलायन की समस्या का हल न हो. यह तभी संभव है जब […]

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे बड़ा मानवीय संकट

सीरिया में जिंदगी के लिए जंग जारी है और दर्द है कि थमने का नाम ले ही नहीं रहा है. वैसे भी सीरिया संकट का समाधान तब तक संभव नहीं है, जब तक पलायन की समस्या का हल न हो. यह तभी संभव है जब इस क्षेत्र में शांति का माहौल कायम हो. क्या यह संभव है. अगर है तो कैसे. अंतिम कड़ी में आज जानें इस विषय में क्या सोचते हैं विदेश मामलों के जानकार .

एसडी मुनि

विदेश मामलों के जानकार

सीरिया में गृह युद्ध और आतंरिक संकट के कारण लाखों लोग दूसरे देशों में शरण लेने पर मजबूर हैं. शुरू में ज्यादातर देश इन शरणार्थियों को लेकर गंभीर नहीं दिख रहे थे, लेकिन कुछ दिन पहले सीरिया के एक तीन वर्षीय बच्चे आयलन की मौत ने इस संकट की ओर यूरोपीय देशों का ध्यान खींचा.

यूरोप के लोग और वहां की सरकारों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इस सबसे बड़े पलायन पर बेहद अलग अंदाज में प्रतिक्रिया जाहिर की है. पहले जहां उनमें शत्रुता का भाव दिख रहा था, वहीं बच्चे की हिला देनेवाली तससवीर सामने आने के बाद से मानवीय संवेदना और मदद पहुंचाने की चाहत देखी गयी. जर्मनी और ऑस्ट्रिया के बहुत से लोगों ने हंगरी जाकर शरणार्थियों को मदद पहुंचाने का काम किया है.

वियेना, म्यूनिख में शरणार्थियों के रहने और खाने की व्यवस्था वहां के लोगों ने की. संकट की इस घड़ी में कुछ खाड़ी देशों ने भी मदद की पेशकश की है, लेकिन शरणार्थियों को पनाह देने के मामले में उनका रवैया अपेक्षा के अनुकूल नहीं रहा है. आम लोगों में भी शरणार्थियों को मदद पहुंचाने की स्वत:स्फूर्त चाहत सोशल मीडिया पर दिखने के बाद कई देशों की सरकारें भी अपना रवैया बदलने पर मजबूर हुई हैं.

कई यूरोपीय देशों के नेताओं ने कोटा सिस्टम अपनाते हुए शरणार्थियों को शरण देने की घोषणा की है, ताकि ग्रीस, इटली और हंगरी पर शरणार्थियों के दबाव को कम किया जा सके. ब्रिटेन सरकार ने 20 हजार शरणार्थियों को, तो फ्रांस ने 24 हजार को शरण देने की घोषणा की. इन सबके बीच पूरी दुनिया की नजरें जर्मनी पर है, जो सबसे अधिक शरणार्थी को जगह देगा. जर्मनी सरकार ने शरणार्थियों की मदद के लिए पैसा भी आवंटित किया है.

यूरोपीय देशों में पनाह देने को लेकर संशय भी

हालांकि यूरोपीय देशों में शरणार्थियों को पनाह देने को लेकर संशय का माहौल भी है. इस समय यूरोपीय देशों में करीब पौने दो करोड़ लोग बेरोजगार हैं. कुछ यूरोपीय देशों में पैदा हुए नागरिक भी आइएसआइएस से जुड़े जिहाद में शामिल हैं, इसलिए कई यूरोपीय देश मुसलिमों को शरण देने को लेकर सशंकित भी हैं. वहां के लोगों को लगता है कि वे भविष्य में खतरा बन सकते हैं.

तथ्य यह भी है कि सीरिया के मौजूदा संकट को बढ़ाने में यूरोप के कुछ प्रमुख देशों का भी हाथ रहा है, जिन्होंने पहले सीरिया की सरकार के खिलाफ विद्रोहियों की मदद की. इससे वहां के हालात और खराब हो गये और बाद में आतंकी संगठन आइएसआइएस की दखल बढ़ गयी. इस खून खराबे से तंग आकर ही लोग पलायन करने को मजबूर होने लगे, लेकिन यूरोपीय देशों ने शुरू में इस पर खास ध्यान नहीं दिया.

खाड़ी देशों का सहयोग अपेक्षित

यूरोपीय देशों की सरकार को शरणार्थियों को मदद देने के साथ ही सीरिया के मौजूदा संकट को खत्म करने के लिए खाड़ी देशों का सहयोग भी लेना होगा. सीरिया की जमीनी स्थिति को देखते हुए, संकट से निपटने के लिए सैन्य हस्तक्षेप से समाधान संभव नहीं है. फ्रांस और ब्रिटेन जानते हैं कि हवाई हमले करने पर हालात को संभाला नहीं जा सकता है.

सैन्य हमले के लिए गंठबंधन बनाये रखना भी मुश्किल है, क्योंकि इस क्षेत्र में नाटो का प्रमुख सहयोगी देश तुर्की स्वयं इराक और सीरिया के कुर्दों के साथ संघर्षरत है. शरणार्थियों को लेकर हंगरी जैसे देशों का रवैया भी सहयोग वाला नहीं है. इस संकट का समाधान तब तक संभव नहीं है, जबतक लोगों के पलायन की समस्या का समाधान नहीं हो जाये. सैन्य कार्रवाई से पलायन और बढ़ेगा. इस शरणार्थी संकट का अंतिम समाधान यही है कि पूरे क्षेत्र में शांति का माहौल कायम किया जाये.

(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

1.35 करोड़ बच्चों का भविष्य दावं पर

अरब जगत के अनेक देशों में वर्षों की हिंसा से सबसे अधिक तबाह बच्चे हुए हैं. मौत के मुंह से बच गये बच्चे कुपोषण और मानसिक बीमारियों से त्रस्त हैं. हिंसा ने उनकी पढ़ाई पर भी असर डाला है, जिससे उनके भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग रहा है.

– 1.35 करोड़ बच्चे (अरब जगत के) हिंसा और गृहयुद्धों के कारण स्कूल नहीं जा पा रहे हैं.

– 9,000 के करीब स्कूल नौ देशों में बंद है. या तो उनकी इमारत तबाह हो गयी है या वे विस्थापित परिवारों के शरणगाह बने हुए हैं. (स्रोत : यूनिसेफ)

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