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क्या देशद्रोह का अड्डा बन रहा जेएनयू?

बहस : अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश-विरोधी नारों को नहीं दी जा सकती इजाजत, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में स्थित प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक स्वतंत्र उच्च शिक्षण संस्थान की है, जहां हर तरह की अभिव्यक्ति और बहस के लिए जगह मिलती रही है. अभिव्यक्ति […]

बहस : अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश-विरोधी नारों को नहीं दी जा सकती इजाजत, लेकिन
देश की राजधानी दिल्ली में स्थित प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक स्वतंत्र उच्च शिक्षण संस्थान की है, जहां हर तरह की अभिव्यक्ति और बहस के लिए जगह मिलती रही है.
अभिव्यक्ति की आजादी और हर तरह के विचारों के साथ सहिष्णुता का भाव एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी भी है. लेकिन, बीती नौ फरवरी को जेएनयू कैंसप में कुछ छात्रों के समूह ने जिस तरह संसद पर हुए आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु की बरसी मनायी, उसे शहीद बताया और इस मौके पर कश्मीर की आजादी के पक्ष में तथा भारत विरोधी नारे लगाये, ऐसी हरकतों को किसी भी लिहाज से जायज नहीं ठहराया जा सकता.
देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने की किसी भी कोशिश का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए, लेकिन इस आजादी की आड़ में किसी को भी देश विरोधी या अलगाववादी विचारों या गतिविधियों को आगे बढ़ाने की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती.
संसद पर हमले के दोषी को यदि जेएनयू के कुछ छात्र शहीद बता रहे हैं, तो उनकी और पड़ोसी देश में बैठे आतंकी सरगनाओं की सोच में क्या फर्क रह जाता है? जाहिर है, ऐसी देश विरोधी घटना यदि जेएनयू में, या देश में कहीं भी हो रही है, तो उस पर कानून के मुताबिक तुरंत और सख्ती से कार्रवाई होनी चाहिए.
लेकिन, जेएनयू में तथाकथित देश-विरोधी आयोजन को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है,उस पर किसी तरह की उग्र प्रतिक्रिया जाहिर करने से पहले जरा ठहर कर यह पड़ताल जरूरी है कि क्या जेएनयू सचमुच देशद्रोही गतिविधियों का अड्डा बन रहा है? यहां एक अहम सवाल यह भी है कि यह तय कौन करेगा कि किसी आयोजन में देश विरोधी गतिविधि हुई है या नहीं, या फिर देश विरोधी नारे लगाये गये या नहीं? क्या किसी विरोधी संगठन के आरोप लगाने भर से ही पुलिस मान लेगी कि कोई छात्र संगठन या उसका नेता देशद्रोही है, या फिर उसके खिलाफ लगे आरोपों और उसकी गतिविधियों की जांच-पड़ताल भी होगी?
यह सवाल जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष की देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी के बाद और महत्वपूर्ण हो गया है. आखिर कब और कैसे हुई जेएनयू से जुड़े मौजूदा विवाद की शुरुआत, इस घटना के क्या हैं सबक और संकेत, इस मुद्दे पर दोनों पक्षों के जानकारों की राय के साथ प्रस्तुत है आज का समय.
वीडियो देखिए, तो सही-गलत खुद पता चल जायेगा, लेकिन आप क्यों देखेंगे!
शीबा असलम फहमी
पत्रकार एवं शोधार्थी, जेएनयू
जवाहरलाल नहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू में देश के विरुद्ध जिसने भी नारा लगाया हो, वह निंदनीय है, अगर सचमुच ऐसा नारा लगाया गया हो, क्योंकि यह जांच का विषय है. लेकिन, देश के विरुद्ध नारा जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने नहीं लगाया, ताे फिर उन्हें गिरफ्तार क्यों किया गया?
यूट्यूब का यह लिंक है- https://www.youtube.com/watch?v=KMi0D__l7IE
इसे देखने के बाद आप सही-गलत का फैसला खुद कर सकते हैं. लेकिन, मैं वीडियो देखने की बात आपसे कर ही क्यों रही हूं? इसका कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जहां मंशा ही नहीं है दूध का दूध पानी का पानी करने की, वहां आप कोई भी सुबूत पेश कर दें, उससे आप खुद को सच साबित नहीं कर सकते.
जबरा जब मारने ही बैठा है, तो वह क्यों देखेगा कोई सबूत? याद कीजिए, साल 2009 में पीलीभीत (उत्तर प्रदेश) में वरुण गांधी की चुनावी रैली में खुल्लम-खुल्ला दिया गया उनका वीभत्स भाषण. उस भाषण की तमाम वीडियो सब देखते रहे, लेकिन केस नहीं हुआ. केस करने से पहले उन वीडियोज की जांच हुई, तब जाकर केस हुआ. एक और घटना है- मुजफ्फरनगर दंगों में भाजपा विधायकों की उन वीडियोज को देखा जा सकता है, जिनमें वे दंगा भड़काते हुए साफ देखे जा रहे हैं. उन वीडियोज की भी पहले जांच हुई थी.
तो फिर कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करने से पहले वीडियो की जांच क्यों नहीं हुई? क्योंकि इस ताबड़तोड़ कार्यवाही का असली मकसद जेएनयू में चल रहे जाति-विरोधी आंदोलन की कमर तोड़ना है, मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी के विरुद्ध लग रहे आरोपों से ध्यान हटाना है, जेएनयू में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) की गुंडागर्दी को संरक्षण देना है. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का हर नारा देश, देश के लोगों और संविधान के आदर्शों से भरा हुआ है.
कन्हैया को देशद्रोही बतानेवाले कुछ लोग रोहित वेमुला की हत्या के पाप को धोने के लिए यह वितंडा खड़ा कर रहे हैं. विश्वविद्यालयों में छात्रों के संगठन या दल छात्रों के मुद्दे उठाने के लिए ही होते हैं. जबकि, एबीवीपी मौजूदा सरकार की भयानक शिक्षा-विरोधी, छात्र-विरोधी और देश-विरोधी नीतियों के समर्थन के लिए कटिबद्ध है. छात्रहित में कभी न बोलनेवाला, जातिदंभ से लैस यह गिरोह ‘हिंदू संस्कृति बचाओ’ की आड़ में देशभर में छात्रों के जरिये आतंक का राज स्थापित करने की कोशिश कर रहा है.
कोई अचरज नहीं होता कि जिस वक्त देश का हर विश्वविद्यालय दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकशी के लिए ब्राह्मणवाद पर सवाल उठा रहा था, जब एबीवीपी की हिंसक अराजकता पर सवाल उठ रहे थे, जब द्रोणाचार्यों को चिह्नित किया जा रहा था, ठीक उसी समय जेएनयू कैंपस में कश्मीर या अफजल गुरु का बेमौका राग क्यों छेड़ा गया?
ब्राह्मणवाद को ‘मौके पर मदद’ की यह किसकी साजिश है? ब्राह्मणवाद को ऑक्सीजन देनेवाले ये देवदूत कौन हैं? विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकार की जिम्मेवारी है कि वह ऐसे भीतरघातियों को चिह्नित करे, तभी संभव है कि जेएनयू जैसे उच्च शिक्षण संस्थान की मर्यादा बरकरार रहेगी.
मुझे यह कहने में गुरेज नहीं कि हमारा मीडिया भी जातिवाद को संरक्षण देने में जुटा हुआ है. रोहित की आत्महत्या ने शिक्षण संस्थाओं में बजबजाते जातिवाद पर से मखमली परदा हटा दिया है.
ऐसे में आरक्षण के विरुद्ध बहस को हवा देनेवाला मीडिया मुद्दे को भटकाने के लिए मुसलमान महिलाओं के हाजी अली की ‘खाली/खोखली’ दरगाह में प्रवेश की ‘ऐतिहासिक जंग’ और हिंदू महिलाओं के दो मंदिरों में पूजा/ अभिषेक/ प्रवेश के अधिकार का महान संघर्ष जैसे मुद्दों को सरोकार सूची में सबसे ऊपर रखता रहा है. आखिर क्यों? क्या इसलिए नहीं कि रोहित की आत्महत्या को सुनिश्चित करनेवाली शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी और हैदराबाद यूनिवर्सिटी के कुलपति-गिरोह के अपराधों से ध्यान हटाया जा सके?
इस मीडिया को प्रोफेसर अमर्त्य सेन और जस्टिस मार्कंडेय काटजू पर सवाल उठाने की हिम्मत क्यों नहीं होती, जो साफ-साफ कह रहे हैं कि ‘अफजल गुरु और याकूब मेमन मासूम थे’? इस देश में बोलने की आजादी क्या सिर्फ उच्च पदासीन, शहरी, शिक्षित, ब्राह्मण पुरुष को ही है? जेएनयू की वैचारिकता को बचाने के लिए जरूरी है कि इन सब सवालों पर से परदा उठे.
इस लेख को लिखते-लिखते मेरे पास वह वीडियो भी आ गया, जिसमें दूध का दूध और पानी का पानी हुआ है. ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगानेवाले एबीवीपी के लोग वीडियो में साफ देखे जा सकते हैं.
पहले एबीवीपी ही रात के धुंधलके का फायदा उठा कर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाती है, और सुबह के उजाले में इन नारों का विरोध भी करती है. लेकिन सत्तापक्ष का होने के कारण इनका आत्मविश्वास इतना बढ़ा हुआ है कि ये अपने रातवाले कपड़ों में ही पहुंच गये, अपनी ही करतूत का विरोध करने और पोल खुल गयी.
अब क्या कहेंगे मीडिया के वे चैनल, जो दो दिन से बेकुसूर युवाओं के खून के प्यासे बने हुए हैं? यह चिंता का विषय है कि जातिवादी संगठन, मंत्रालय, छात्र दल, मीडिया और सियासी दल, अब खुल कर देश के मूलनिवासियों, बहुजनों, दलितों के विरुद्ध तालमेल बना कर षड्यंत्र कर रहे हैं.
जेएनयू में जहर बोनेवाले आपातकाल की बात न करें
हितेश शंकर
संपादक, पांचजन्य
स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच बहुत बारीक फर्क होता है. जेएनयू में गूंजे भारत मुर्दाबाद, पकिस्तान जिंदाबाद के नारों को सुनने के बाद लगता है कि कुछ लोग यह फर्क भुला बैठे हैं. उच्च शिक्षण संस्थान या और कहीं, इस स्वतंत्रता की मर्यादा क्या है?
छात्रों को पढ़ाई के लिए, जी हां पढ़ाई के लिए, अच्छा खुला माहौल मुहैया कराने की जरूरत से मिली इस स्वतंत्रता का क्या उपयोग करना है, इस बात को भूलना और आजादी का दुरुपयोग होने देना, ये दोनों गड़बड़ियां आज जेएनयू के मामले में दिखती हैं.
सवाल यह है कि किसी शिक्षण संस्थान का जिक्र किन वजहों से होना चाहिए? पढ़ाई के लिए ही ना? जेएनयू छोड़िये; अपराध, छात्राओं के लिए असुरक्षित माहौल, लड़ाई-झगड़े या छात्र-शिक्षकों का संदिग्ध कामों में शामिल होना क्या किसी भी शिक्षण संस्थान के लिए यह छवि अच्छी है?
दुख होता है कि जब-जब जेएनयू का जिक्र राष्ट्रीय मीडिया आता है, बात पढ़ाई की नहीं हो रही होती, बात सकारात्मक नहीं होती. पढ़ाई या छात्राें की मेधा से अर्जित कीर्ति की बजाय नक्सल समर्थन, आतंकियों के लिए छाती कूटना, कश्मीर की आजादी के लिए, देश के टुकड़े करने की डफली पीटना, आखिर उस चारदीवारी के अंदर क्या-क्या चल रहा है?
अब तो लोग पूछने-चिंता करने लगे हैं कि वहां पढ़ाई होती भी है या यही सब चलता रहता है? कमाल की बात है, शिक्षण संस्थान पर बहस छिड़ी है और कोई भी पढ़ाई की बात कर ही नहीं रहा! ‘लड़ाई’ और ‘लहू के कतरों’ की देशद्रोही लफ्फाजियों से आपत्तिजनक करतूतों को ढकने की कोशिश हो रही है. क्यों भाई? पढ़ाई से दिक्कत क्या है?
जेएनयू को वर्ष 2012 में राष्ट्रीय आकलन एवं अधिमान्यता परिषद् (नैक) ने देश के शिक्षण संस्थानों में सबसे ऊपर रखा. इसकी कितनी चर्चा हुई? कितना विश्लेषण हुआ? 1969 में जेएनयू की स्थापना के वक्त इस भारी-भरकम तंत्र और खुले माहौल का सपना साम्यवादी नजर से देखा गया था. यह 2016 है. सपना छोड़ो, आंखें खोल कर देखो. दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी है.
भारी-भरकम तंत्र और कम कार्यकुशलता की वजह से ही साम्यवादी शासन ढांचा पूरी दुनिया में गिरा है. ज्यादा झाम और कम परिणाम, जब ये बात लोग अपने जीवन में नहीं चाहते, घर में बर्दाश्त नहीं करते, तो एक खास संस्थान में क्यों बर्दाश्त करेंगे? खुले माहौल और आजादी के ‘नेटवर्क’ की आड़ में आज इस परिसर में बाहरी तत्व और जहरीले-दोमुहें किरदार दिखाई देते हैं.
जेएनयू सभी के लिए खुले माहौल की वकालत करता है. जब सभी के लिए खुला माहौल है, तो इसमें दो पैमाने नहीं हो सकते. लेकिन जेएनयू में ऐसा है. जेएनयू प्रशासन दुर्गापूजा के पांडाल पर त्यौरियां चढ़ाता है, लेकिन यहां महिषासुर पूजन का माहौल बनता है. क्या जेएनयू देश की आस्था को ठेस पहुंचाने का केंद्र बनेगा? क्या यह परिसर समाज को लड़ाने और मजहब के आधार पर फर्क करने का केंद्र बनेगा?
दूसरी बात, जेएनयू में छात्रों के साथ मुखौटा लगा कर खड़े कुछ लोग कहते हैं कि उनके सरोकार सिर्फ पढ़ाई और इस परिसर तक नहीं बांधे जा सकते. वैचारिकता, आजादी और मुद्दों की बात के लिए कहीं भी और किसी भी हद तक जाने की ताल ठोकनेवाले ये कामरेड पहलवान नकली हैं, छात्रों को मूर्ख बना रहे हैं. वामपंथी दोमुंहेपन के ऐसे नमूनों को इन दीवारों से बाहर निकाल कर पूछना चाहिए कि यदि वास्तव में लड़ाई मुद्दे की है तो जेएनयू में बीफ फेस्टिवल की बात करनेवाले क्या उस्मानिया वििव में भी पोर्क फेस्टिवल की बात करेंगेे? जेएनयू में ‘किस ऑफ लव’ के बैनर लगानेवाले लोग क्या जामिया और एएमयू तक भी जायेंगे?
जेएनयू में इंटरनेशनल स्टूडेंट एसोसिएशन बनाया गया है. वहां जब राष्ट्रीय खान-पान महोत्सव हुआ, जिसका आयोजन विश्वविद्यालय प्रशासन करवा रहा था, तो कुछ लोगों ने जिद की कि कश्मीर का स्टॉल अलग से लगायेंगे. हालांकि, भारी विरोध के बाद वह स्टॉल नहीं लगा, लेकिन क्या इससे प्रशासन पर सवाल नहीं उठता?
इंटरनेशनल स्टूडेंट एसोसिएशन अंतरराष्ट्रीय छात्रों की समस्याएं सुलझाने तक सीमित है या इस बैनर का इस्तेमाल भारत को तोड़ने की मुहिम चलाने, कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए होगा? ये बात जेएनयू प्रशासन को देश के सामने साफ करनी होगी. जम्मू-कश्मीर या भारत की संप्रभुता ऐसे विषय हैं, जिनका निर्णय करने की जिम्मेवारी जेएनयू को नहीं दी जा सकती.
वाम नेता सुविधा की राजनीति करनेवाले, भटकाने-लड़ाने वाले लोग हैं. इसलिए जेएनयू में राष्ट्रविरोधी प्रदर्शन करनेवालों पर कार्रवाई से उन्हें लगता है कि इमरजेंसी जैसे हालात हो गये हैं. कामरेड सुनिए, सरकार की मनमानी का वक्त चला गया. सरकार जेएनयू के प्रति नहीं, करदाताओं के प्रति जवाबदेह है.
करदाताओं की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग हुआ है, तो जवाब जेएनयू को देना है. पिछले दिनों दंतेवाड़ा गया था. एर्राकोट गांव में किसी ने ताना मारा कि जब नक्सलियों ने 76 जवानों को मारा था, तब आपके पड़ोस में जेएनयू में जश्न मनाया गया था. बहुत खराब लगा. सोचता हूं, देश और हर नागरिक का अपमान करनेवाले ऐसे जश्न पर तब वाम नेताओं को किसी इमरजेंसी का अंधेरा क्यों नहीं दिखा था? वे तब या अफजल गुरु जैसे आतंकी गद्दारों के लिए मोमबत्तियां जलाने वक्त किस ‘क्रांति’ की चमक देखते हैं?
अगर देश में कोई पाकिस्तान जिंदाबाद और भारत मुर्दाबाद के नारे लगा रहा है, तो उनसे निपटने का तरीका जनता द्वारा खारिज की जा चुकी विचारधारा देगी क्या? देश में लोकतंत्र है. राष्टद्रोह हो या कोई और मामला, उससे निपटने का तरीका संविधान से तय होता है और सत्ता को निर्णय लेने की ताकत जनता देती है.
जेएनयू में जहर बोनेवाले आपातकाल की बात न करें. वे सिर्फ ये बताएं कि कहीं से कोई छात्र जब जेएनयू में आता है, उसके दिमाग में कैरियर का सपना होता है या नहीं? उसका सपना कौन तोड़ता है?
दूर-दराज से अपने मां-बाप और पूरे कुनबे की आशाएं जिन युवा कंधों पर हैं, जेएनयू में कुछ लोग उन युवाओं के मन में आक्रोश और हताशा भर रहे हैं. क्या इस अपराध के लिए उन्हें माफ किया जा सकता है? मुझे लगता है कि एक मरती हुई विचारधारा को जिंदा रखने के लिए जेएनयू के भीतर छात्रों को इंधन की तरह फूंका जा रहा है. देश की युवा पूंजी के साथ इस तरह का षड्यंत्र बंद होना चाहिए.
उचित नहीं है विश्वविद्यालयों से सरकार की संवादहीनता
प्रो मणींद्रनाथ ठाकुर
सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हालिया घटनाक्रम में जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी हमारी प्रशासनिक व्यवस्था के ऐतबार से एक चौंकानेवाली घटना है. हर विश्वविद्यालय में उसकी अपनी एक प्रशासनिक इकाई (प्रॉक्टोरियल बोर्ड) होती है, जो उसके परिसर में घटनेवाली घटनाओं का संज्ञान लेती रहती है.
परिसर के भीतर घटनेवाली हर घटना पर वह मीटिंग बुलाती है, सभी सदस्यों के सामूहिक सहमति के साथ अपने स्वविवेक से फैसले लेती है और तब तक वह सरकार या पुलिस को खबर नहीं करती है, जब तक कि कोई गंभीर आपराधिक घटना न घट जाये. इस ऐतबार से जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी उचित नहीं जान पड़ती. पुलिस को अगर गिरफ्तार ही करना था, तो उन लोगों को करती, जो देश-विरोधी नारे लगा रहे थे. नारा लगाते लड़कों का जो वीडियो सामने आया है, उसमें तो सबके चेहरे स्पष्ट हैं, पुलिस को चाहिए था कि पहले उन्हें गिरफ्तार करती.
यहां छात्रसंघ अध्यक्ष को गिरफ्तार करने का सीधा मतलब यह कि सरकार यह संकेत देना चाहती है कि आपके अध्यक्ष को हमने गिरफ्तार कर लिया, क्योंकि इसके पीछे का कारण यह है कि पिछले दो-ढाई महीने से सरकार की छात्र-विरोधी नीतियों को लेकर तमाम छात्र यूजीसी के खिलाफ धरने दे रहे हैं, आंदोलन कर रहे हैं.
जहां से मैं देख रहा हूं, मुझे लगता है कि यह कदम सरकार के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. जेएनयू का हालिया घटनाक्रम में सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी का मसला नहीं है, बल्कि संवादहीनता का मसला है, सरकार की छात्र-विरोधी नीतियों का मसला है. विश्वविद्यालय एक बड़ा संवादस्थल है, जहां विभिन्न धर्म-जाति, विभिन्न वर्ग-संप्रदाय, अमीर-गरीब आदि तबके के युवा पढ़ने आते हैं. विभिन्नताओं से भरे हमारे देश का जो मॉडल है, वही जेएनयू का मॉडल है, जिसमें असहमति का सम्मान किया जाता है. अगर किसी छात्र को अपनी कोई बात या कोई असहमति जतानी हो, तो वह अपने विश्वविद्यालय परिसर में ही जतायेगा.
लेकिन, प्रशासन या सरकार उनसे संवाद करने के बजाय सीधे अभिव्यक्ति की आजादी के साथ खिलवाड़ का मामला बता कर मासूमों पर पुलिसिया कार्रवाइयां करती है. यह किसी भी लोकतांत्रिक देश के एक प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थान के लिए उचित नहीं है.
भारत का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जेएनयू, जिसने अपनी स्थापना (1969) के बाद से भारत सरकार के लिए एक से बढ़ कर एक ब्यूरोक्रेट पैदा किया है. जेएनयू एक बाउंड्रीवाॅल के अंदर है.
अगर उसमें लोग आपस में अपनी असहमतियों को जाहिर करते रहते हैं, तो इससे सरकार को कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है. मसलन, बहुत से कश्मीरी छात्र भी पढ़ते हैं और वे आजाद कश्मीर को लेकर ऐसे सवाल उठाते हैं कि अगर वह मीडिया में जाये, तो हंगामा हो जाये. लेकिन जेएनयू प्रोफेसर और छात्र उन सवालों का नरमी से तार्किक जवाब देते हैं. उनके सवालों पर अगर हम उन्हें देशद्रोही कहने लगें, तो फिर एक विश्वविद्यालय होने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. विश्वविद्यालय संवाद का खुला मंच है.
सरकार को चाहिए कि संवाद के इस खुले मंच का इस्तेमाल करे, उनके संवाद के जरिये निकलनेवाले जनहित के जरूरी सवालों पर विचार कर लोगों तक ऐसी नीतियों तक पहुंचाये, ताकि लोगों में सरकार की दूरदृष्टि का भान हो सके. अगर सरकार संवाद को ही बंद कर देगी, तो फिर बचा ही क्या रह जायेगा? इस तरह तो वह पूरे देश को दुश्मन की तरह देखेगी कि जो भी असहमति होगी, उस पर विचार करने के बजाय वह कार्रवाई करेगी.
सरकार को चाहिए कि वह विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को अपना दुश्मन नहीं बनाये. जेएनयू जैसे कुछ विश्वविद्यालयों को छोड़ दें, तो सारे विश्वविद्यालय पंगू हो गये हैं. शिक्षा नीति को लेकर हमारी सरकार जो कर रही है, इससे तो यही लगता है कि सरकार की आर्थिक नीति अब फेल हो रही है. इसलिए वह कुछ ऐसे मामलों को उठाती रहना चाहती है, जिससे सरकार की तरफ से लोगों का ध्यान भटक जाये. मौजूदा सरकार को इससे बचना चाहिए, क्योंकि यह दौर तकनीक और सोशल मीडिया का दौर है, लोग कहीं न कहीं से सच को बाहर निकाल ही लायेंगे.
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. सरकार को चाहिए कि जेएनयू अध्यक्ष को रिहा कर छात्रों से बातचीत करे कि आखिर वे चाहते क्या हैं. जेएनयू घटनाक्रम को लेकर सरकार की तरफ से होनेवाली संवादहीनता एक बड़ी वजह है, जिसके कारण सरकार छात्रों के मनोभावों और समस्याओं को समझ नहीं पाती और सीधा पुलिस-प्रशासन का सहारा लेकर उन पर लाठी-डंडे चलवाती है. जाहिर है, इस सरकारी हिंसा से छात्रों में गुस्सा फूटता है और नादानी में उनसे कुछ गलतियां हो जाती हैं.
जेएनयू एक मात्र जगह है, जहां पर न्याय को लेकर लोगों में एक प्रकार की आस्था है. वहां 70 प्रतिशत छात्र गरीब घरों से आते हैं. गरीबी को लेकर जो सोच जेएनयू के छात्रों में है, अगर उनसे सरकार संवाद करती, तो मैं समझता हूं कि देश में गरीबी को लेकर अच्छी नीतियां बनतीं. देश को क्या जरूरत है और लोगों को क्या जरूरत है, इस बात की जानकारी या तो मीडिया से पहुंचती है या फिर खुद सरकार जनता से संवाद करे.
फिलहाल हमारे बड़े लोकतंत्र में नेताओं के लिए जनता से सीधा संवाद असंभव सा होने लगा है. जहां कहीं भी अगर संवाद की गुंजाइश शेष है, सरकार वहां पर भी सख्ती करने लगेगी, तो फिर इससे सबसे ज्यादा नुकसान देश के लोकतांत्रिक ढांचे को होगा और छोटी-छोटी बात पर लोगों को देशद्रोही करार दिया जाने लगेगा. यह एक नये तरह के खतरे का संकेत भी है, इसलिए सरकार को समझदारी दिखानी चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
विवाद का घटनाक्रम
– संसद हमले के दोषी करार दिये गये अफजल गुरु को अदालत के आदेश पर 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर चढ़ा दिया गया था. उसकी बरसी पर बीती नौ फरवरी (मंगलवार) को जेएनयू कैंपस में कुछ छात्रों ने कार्यक्रम का आयोजन किया. कहा जा रहा है कि इस कार्यक्रम में जहां अफजल गुरु को शहीद बताया गया, वहीं आरोप है कि आयोजन में शामिल कुछेक छात्रों ने भारत के विरोध में, कश्मीर की आजादी और पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाये. कहा यह भी जा रहा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने पहले इस आयोजन की इजाजत दी थी, लेकिन बाद में उसे वापस ले लिया था और कार्यक्रम बिना इजाजत के आयोजित हुआ था.
– अगले दिन यह मामला तूल पकड़ा और इस तरह की देश विरोधी नारेबाजी की देश भर में व्यापक निंदा हुई है. लोगों ने सोशल मीडिया पर अपने गुस्से का जम कर इजहार किया. कुछ छात्रों की आपत्तिजनक हरकतों की आड़ में जेएनयू को देशद्रोह का अड्डा बता कर उसे बंद करने तक की मांग होने लगी और ‘हैशटैग शट डाउन जेएनयू’ ट्वीटर पर ट्रेंड करने लगा. दक्षिणपंथी छात्र संगठन एबीवीपी ने इसके खिलाफ राजपथ पर प्रदर्शन किया.
– दिल्ली से बीजेपी सांसद महेश गिरि ने देशद्रोह का मामला दर्ज कराया. साथ ही केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिख कर जेएनयू के कार्यक्रम के आयोजकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का निर्देश देने का अनुरोध किया. इस मामले में कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि देश में रह कर राष्ट्रविरोधी नारे लगानेवालों को किसी भी सूरत में माफ नहीं किया जायेगा.
– जेएनयू प्रशासन ने आधिकारिक रूप से सफाई दी कि एक समुदाय के रूप में हम विश्वविद्यालय परिसर में बहस-मुबाहिसे के मुक्तभाव से चलने के पक्षधर तो हैं, लेकिन हम ऐसी किसी भी गतिविधि की निंदा करते हैं जो विश्वविद्यालय को देश के संविधान और कानून के विरुद्ध एक मंच की तरह बरते. विश्वविद्यालय प्रशासन के इस स्पष्ट रुख के बावजूद अगर पूरे जेएनयू समुदाय को राष्ट्रविरोधी करार दिया जाना जारी रहा.
– शुक्रवार को दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. गिरफ्तार नेता ने कोर्ट में कहा कि जेएनयू के छात्रसंघ चुनावों में वामपंथी विचारधारा वाले छात्र संगठन एआइएसएफ ने दक्षिणपंथी संगठन एबीवीपी को हरा दिया था, उसी का बदला लेने के लिए उन पर झूठे आरोप लगाये गये हैं.
– माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने ट्वीट कर हॉस्टल में घुस कर छात्रों को गिरफ्तार किये जाने की तुलना ‘इमरजेंसी जैसे हालात’ से की, वहीं सीपीआइ के नेशनल सेक्रेटरी डी राजा ने कहा, ‘हम भारत विरोधी किसी भी नारे की निंदा करते हैं. अगर ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करनी है, तो कानून के अनुसार किया जाना चाहिए.’
– शनिवार को कई और छात्रों को हिरासत में लिया गया. भाजपा सांसद महेश गिरि ने आरोप लगाया कि जो लोग देश-विरोधी नारे लगा रहे थे, उनमें सीपीआइ नेता डी राजा की बेटी भी शामिल थी. इस मामले में गृह मंत्री से मुलाकात के बाद माकपा नेता येचुरी ने कहा कि सरकार ने जिन 20 छात्रों की सूची बनायी है, उनमें डी राजा की बेटी भी है. उधर, डी राजा ने आरोपों को नकारते हुए कहा कि मेरी और मेरी बेटी की देशभक्ति पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर सकता.

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