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अध्यात्म आनंद : यम से भी भिड़ गया नचिकेता

॥ प्रसंग॥ बलदेव भाई शर्मा भारत के मनीषियों और ऋषियों ने जो मनुष्यता का ज्ञान और दर्शन दिया वहीं वेद-पुराण और उपनिषदों में व्याख्यापित हुआ. यह ज्ञान किसी जाति या धर्म विशेष के लिए नहीं है बल्कि मनुष्य मात्र के लिए है ताकि यह धरती शांति, सद्भाव व आनंद से लहलहा उठे. शायद इसलिए ब्रिटिश […]

॥ प्रसंग॥

बलदेव भाई शर्मा

भारत के मनीषियों और ऋषियों ने जो मनुष्यता का ज्ञान और दर्शन दिया वहीं वेद-पुराण और उपनिषदों में व्याख्यापित हुआ. यह ज्ञान किसी जाति या धर्म विशेष के लिए नहीं है बल्कि मनुष्य मात्र के लिए है ताकि यह धरती शांति, सद्भाव व आनंद से लहलहा उठे. शायद इसलिए ब्रिटिश इतिहासकार और विचारक अनोल्ड टायन्वी ने अपनी पुस्तक ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ में लिखा है कि ‘भारत का ज्ञान और भावना पूरी मानव जाति को एक परिवार के रूप में साथ रहना सिखाती है

अपने को यानी विश्व को विनाश से बचाने का यही एकमात्र विकल्प है’ आज के दौर में जब भौतिक सुखों की दौड़ में अपने स्वार्थों से घिरा व्यक्ति धीरे-धीरे नितांत अकेला होता चला जाता है और किसी का साथ पाने के लिए छटपटाता है तब यह ज्ञान ही न केवल उसको सही राह दिखाने में सक्षम है बल्कि उसके लिए शांति और आनंद के द्वार खोलता है. भारतीय जीवन दर्शन जो विभिन्न शास्त्रों के माध्यम से सामने आया, उसका सार इस एक वाक्य में छिपा है- ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम्’ अर्थात दूसरों की भलाई करना ही पुण्य है और दूसरों को सताना, दुख देना या परेशान करना ही पाप है. वास्तव में यही भारत के धर्म-अध्यात्म की सनातन जीवन दृष्टि है.

वेदों को भारतीय जीवन दर्शन का मूल ग्रंथ माना गया है. विभिन्न संहिताएं, अरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ और उपनिषद आदि इसी दर्शन और ज्ञान का अर्थ विस्तार है. करीब 103 उपनिषदों में इसी को तर्क और कथाओं के माध्यम से परिभाषित और व्याख्यायित किया गया है. श्रीमद् भगवतगीता के महत्च को दर्शाते हुए लिखा है.-

सर्वोपनिषदों गावो दोग्था गोपालनंदन:|

पार्थो वत्स: सुधीमोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्||

अर्थात् सभी उपनिषद मानो गाय है और कृष्ण उसे दुहने वाले, अर्जुन बछड़े के रूप में उसका उपयोग करने वाला, ऐसा दूध रूपी ज्ञानामृत है गीता जो भारत की सनातन संस्कृति, धर्म-अध्यात्म और दर्शन का मूल मंत्र यानी निचोड़ है. शायद इसीलिए गीता आज भी विश्व के समाज विज्ञानियों, दार्शनिकों और मैनेजमेंट गुरुओं के लिए जीवन प्रबंधन का श्रेष्ठ ग्रंथ है. चीन जैसे धर्म को अफीम मानने की विचारधारा वाले देश में भी गीता का अध्ययन व्यापक फलक पर होता है.

‘कठोपनिषद’ उपनिषदों की श्रृंखला का एक श्रेष्ठ ग्रंथ है जिसमें सत्यान्वेषी बालक नचिकेता की कथा आज भौतिक चकाचौंध की होड़ में जिंदगी का सुख-चैन खो रहे आदमी के लिए दीप स्तंभ की तरह है जो स्वार्थ, परपीड़ा में सुख की तलाश और दौड़ में सबसे आगे खड़ा दिखने की लालसा से उपजे क्षोभ, एकाकीपन और अज्ञानता के अंधकार को चीर कर जीवन की सही राह दिखाती है.

प्रश्नाकुल होता है बाल मन, हर छोटी-छोटी बात को जानने की जिज्ञासा उसके अंदर कुलबुलाती है और समाधान उत्तर चाहती है लेकिन हम बड़े उसका जवाब देते-देते धैर्य खो देते हैं अथवा कतराना शुरू कर देते हैं और झुंझला कर बच्चे को डपट देते हैं. लेकिन नचिकेता अपने पिता ऋषि वाजश्रवा जिन्हें आरुणि भी कहा जाता है अपने प्रश्नों का उत्तर जाने बिना शांत नहीं होता और उसका साहस व निर्भयता देखिए कि वह इन्हीं प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मृत्यु के देवता यम से भी जा टकराता है.

ऋषि वाजश्रवा यज्ञ के बाद ब्राह्मणों को गायों का दान कर रहे हैं. उनका पुत्र नचिकेता यह सब देख रहा है. वह बालक देखता है कि कुछ ऐसी गाय भी दान में दी जा रही है जो बूढ़ी है, बांझ है और दूध नहीं देती है.

नचिकेता का बालमन यह जानने के लिए बेचैन हो उठता है कि ऐसी अनुपयोगी वस्तुओं यानी गायों का दान देने से क्या लाभ जो किसी के काम न आ सके इससे असहमत होकर वह अपने पिता से वह जानना चाहता है लेकिन उसे पिता से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता. तब वह पूछ लेता है कि क्या मुझे भी आप किसी को दान देंगे, किसको? बार-बार पूछने पर पिता झुंझला उठते है और गुस्से में जवाब देते है तुम्हें मृत्यु के देवता यमराज को दान में दूंगा. बालक ऋषि पुत्र है आज्ञाकारी है इसलिए क्रोधवश कहे गये पिता के वचनों को भी शिरोधार्य कर चल पड़ता है.

यमराज की खोज में अनेक कठिनाइयों को पार कर वह पहुंच जाता है यम के द्वार भूखा-प्यासा लेकिन यम अपने विकास पर है नहीं. तीन दिनों की प्रतीक्षा के बाद यम मिले और यह जानकर क्षुब्ध हुए कि उनका अतिथि वह भी एक बालक, उनकी अनुपस्थिति के कारण कितना परेशान हुआ.

भारत में ‘अतिथि देवो भव’ की जीवन दृष्टि का भी इससे सहज ही अनुमान हो सकता है कि मृत्यु के देवता की क्रूर छवि वाले यमराज भी अतिथि को हुई असुविधा से बेचैन हो उठते हैं. जबकि आज तो हम अपनी-अपनी सुविधा के प्रति इतने आसक्त है कि अतिथि तो क्या अपनों को भी हम अपनी सुविधा में खलल डालने की छूट नहीं देते. बिना समय लिए कोई मिलने आ जाये तो ऊपर से भले ही हम शिष्टाचार का दिखावा करें पर अंदर जो कुढ़न होती है वह क्या मनुष्यता का लक्षण है?

लेकिन यमराज बालक नचिकेता की असुविधा से त्रस्त हो उठे और इसकी एवज में उसे तीन वरदान मांगने को कहा. नचिकेता ने अपने आने का प्रयोजन बताया और यम के अनुसार पूर्ण करने के लिए अपनी तीन इच्छाएं जाहिर की.

नचिकेता का आख्यान और यम के साथ उसका संवाद आज जीवन की लिप्साओं और जटिलताओं में फंसे व्यक्ति के लिए कितना अर्धपूर्ण है यह समझना जरूरी है. इसी में से उसे शांति, सद्भाव व आनंद का मार्ग मिल सकता है जो उसकी जिंदगी को आसान और अनुकूल बना सकता है.

नचिकेता ने पहला वरदान मांगा कि घर वापस लौटने पर उसके पिता क्रोधित न हो उनका गुस्सा शांत हो जाये और वह उसे प्रेम के साथ अपना ले. आज जब हम अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए भी माता-पिता के प्रति वितृष्ष्णा अपमान और उपेक्षा भाव से भर उठते हैं तब पिता के प्रति नचिकेता का आर्द्र भाव बड़ी प्रेरणा देता है कि पिता के द्वारा क्रोध में कठोर शब्द कह कर उसे त्याग देने जैसी स्थित के बावजूद नचिकेता का मन पिता के प्रति प्यार व श्रद्धा से भरा हुआ है और वह फिर उन्हीं के सानिध्य में लौटना चाहता है. यमराज के तथास्तु कहने पर उसने अपनी दूसरी इच्छा जाहिर की. दूसरे वर के रूप में उसने यम से उस अग्नि विद्या का ज्ञान मांगा जो स्वर्ग प्राप्ति का साधन है.

नचिकेता की ज्ञान पिपासा और निर्भयता से यमराज इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अग्निविद्या को ‘नचिकेता अग्नि’ के नाम से जाने जाने का आशीर्वाद दिया. यमराज ने जिस अग्नि विद्या का ज्ञान नचिकेता को दिया उसका सार इन तीन सूत्रों में व्यक्त हुआ.

1. माता-पिता और गुरु का आदर करो

2. विधि सम्मत जीवन जीते हुए अध्ययन और दान का अनुशीलन करो

3. आत्म तत्व को जानने से दुखों से मुक्ति मिलती है.

तब नचिकेता के मन में एक और प्रश्न कौंधा कि यह आत्म तत्व क्या है? मृत्यु का रहस्य क्या है? मृत्यु के बाद क्या होता है? इसे जानने का तीसरा वरदान नचिकेता ने मांगा यम से लेकिन यम ने कहा कि इसे जानना बड़ा कठिन है देवता भी इसे जानने के लिए ललायित रहते हैं क्योंकि यह ज्ञान ही मुक्ति और मोक्ष का द्वार खोलता है लेकिन नचिकेता अडिग रहा उसने यम का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया कि इसके स्थान पर कोई और वरदान मांग लो संसारिक मुख-ऐश्वर्य मांग लो. तब उसकी दृढ़ता और सत्य को जानने की उसकी संकल्प शक्ति से यम प्रभावित होकर उसे यह ज्ञान देते हैं.

यम ने कहा कि यह ज्ञान ‘प्रेय और श्रेय’ के बीच समाया है. प्रेय यानी सांसारिक सुख और श्रेय यानी आत्म तत्व को परम तत्व से जोड़ना. प्रेय का मार्ग सरल है जबकि श्रेय प्राप्ति का मार्ग कठिन है. सांसारिक व भौतिक सुख नश्वर है यानी कभी-न-कभी नष्ट होगा ही जबकि आत्म तत्व शाश्वत है. यम कहते है- ‘तं दुर्दशं गूढ़मनु प्रवष्टिम्/गुहांहितं गहरेष्ठं पुराणम्/अध्यात्म योगाधिगमेन देवं/मत्व धीरो हर्षशोको जराति’ अर्थात आत्म तत्व अदृश्य, रहस्यमय आदि चिरंतन है.

योग साधना से इसे जाना जा सकता है. इसे जानकर व्यक्ति सुख-दुख से मुक्त हो जाता है. योग जो आजकी लाइफ स्टाइल में शारीरिक व मानसिक जटिलताओं का समाधान करने वाला माना जा रहा है को उस काल में ही यम ने मुक्ति मार्ग बताया. इससे समझा जा सकता है कि भारतीय दर्शन कितना दूर दृष्टि रखने वाला है.

योग सिर्फ व्यायाम नहीं है बल्कि कठोपनिषद में यम कहते है यदा पंचावतष्ठितो/ज्ञानानि मनसा सह/बुद्धश्चि न विचेष्ठते/तामाहु परंम गतिम् यानी मन, बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियां स्थिर हों, शांत हों. यही योग है. यहां मन की एकाग्रता विचारों व भाव की स्थिरता को ही योग कहा गया है.

ग्रंथ छपाने से ज्यादा मानव सेवा को महत्व

जा पान में टेटसुगेन नाम का एक जेन शिष्य था. एक दिन उसके मन में ख्‍याल आया कि धर्म सूत्र केवल चीनी भाषा में ही हैं, उन्हें अपनी भाषा में प्रकाशित करना चाहिए. ग्रंथ के प्रकाशन के लिए टेटसुगेन देश में घूमकर धन इकट्‍ठा करने निकला. लोगों ने उदार हृदय से टेटसुगेन की मदद की. वह इस काम में दस साल तक लगा रहा .

उसी समय देश में एक नदी में बाढ़ आयी. बाढ़ अपने पीछे अकाल छोड़ गयी.

टेटसुगेनने जो धन ग्रंथ प्रकाशन के लिए इकट्‍ठा किया था वह लोगों की सहायता में खर्च कर दिया. इसके बाद वह फिर से ग्रंथ के प्रकाशन के लिए धन संग्रह करने निकला. टेटसुगेन को धन इकट्ठा करते हुए कुछ साल बीत गये. इधर फिर से देश में एक महामारी फैल गयी.

टेटसुगेन ने अभी तक जो भी धन इकट्‍ठा किया था वह फिर से लोगों की सेवा में खर्च कर दिया. इस तरह उसने कई लोगों को मरने से बचाया. ग्रंथ के प्रकाशन के लिए टेटसुगेन ने तीसरी बार धन इकट्‍ठा करने का निश्चय किया. बीस साल बाद जाकर उसकी ग्रंथ प्रकाशित करने की इच्छा पूरी हो पायी. तीसरा ग्रंथ हमें दिखता है, जबकि पहले दो ग्रंथ जो ज्यादा महत्वपूर्ण हैं हमें दिखलायी नहीं पड़ते.

सौ करोड़ रुपयों का दान

डोंगरेजी महाराज कथा से ही करीब एक अरब रुपये दान कर चुके होंगे, वे ऐसे कथावाचक थे. गोरखपुर के कैंसर अस्पताल के लिए एक करोड़ रुपये उनके चौपाटी पर के अंतिम प्रवचन से जमा हुए थे. उनकी पत्नी आबूू में रहती थी, जब उनकी मृत्यु के पांचवें दिन उन्हें खबर लगी, तब वे अस्थियां लेकर गोदावरी में विसर्जित करने मुंबई के सबसे बड़े आदमी रति भाई पटेल के साथ गये थे. नासिक में डोंगरेजी ने रति भाई से कहा कि ‘रति, हमारे पास तो कुछ है नहीं, और इसका अस्थि-विसर्जन करना है. कुछ तो लगेगा ही, क्या करें?’ फिर कहा- ‘हमारे पास इसका मंगलसूत्र एवं कर्णफूल हैं, इन्हें बेच कर जो रुपये मिलें, उन्हें अस्थि-विसर्जन में लगा देते हैं.’

यह बात बताते हुए रति भाई ने कहा, ‘जिस समय हमने सुना, हम जीवित कैसे रह गये, आपसे कह नहीं सकते. बस, हमारा हार्ट फेल नहीं हुआ. जिन महाराज श्री के इशारे पर लोग कुछ भी करने को तैयार रहते थे, वह महापुरुष कह रहा है कि पत्नी की अस्थियों के विसर्जन के लिए पैसा नहीं है और हम सामने खड़े सुन रहे हैं? हम फूट-फूट कर रो पड़े. धिक्कार है हमें और धन्य है भारतवर्ष, जहां ऐसे वैराग्यवान महापुरुष जन्म लेते हैं.’

सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्|

सत्येन विधृतं सर्वम् सर्वम् सत्ये प्रतिष्ठितम्||

अर्थात

सत्य बोलना श्रेष्ठ है; क्योंकि सत्य से बढ़ कर इस धरा-धाम में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है. इस सृष्टि में सब कुछ सत्य से ही धारण किया गया है, सत्य में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है और सभी चर-अचर प्राणियों की प्रतिष्ठा का कारण भी सत्य ही है.

॥ सुवचन॥ िवद्या

देखो

जीवन क्षणभंगुर है, अभी है, क्षण भर बाद रहेगा या नहीं, पता नहीं. यहां की सभी वस्तुएं ऐसी ही हैं, फिर किस मोह में पड़ कर इस छोटे से जीवन के लिए इतनी गहरी नींव खोद रहे हो?

सोचो

कितने बड़े-बड़े धनी-मानी, ऐश्वर्यवान और कीर्तिमान पुरुष चले गये. क्या उनके साथ यहां की एक भी वस्तु गयी? फिर क्यों इन नश्वर वस्तुओं के संग्रह की चिंता में अपना जीवन खो रहे हो?

विचार करो

रावण से प्रतापी, हिरण्यकश्यप से विश्वविजय और सहस्त्रार्जुन-सरीखे हाथों पर धरती को तौलने वाले वीर मौत के शिकार हो गये. फिर तुम किस बल पर किस सिद्धि के लिए जगत के प्रलोभन में पड़े इधर-उधर भटक रहे हो?

याद करो

तुम्हारे पिता-पितामह का घर में कितना रोब-दाब था. घर के सब लोग उनसे संकोच करते थे, डरते थे, उनकी आज्ञा के विरुद्ध कोई चूं तक नहीं करता था. आज कहां है उनका वह प्रभुत्व? उनकी कोई याद भी नहीं करता. यही दशा तुम्हारी भी होगी. फिर क्यों इस घर के पीछे पागल हो रहे हो?

हम जो कुछ भी हैं वो हमने आज तक क्या सोचा इस बात का परिणाम है. यदि कोई व्यक्ति बुरी सोच के साथ बोलता या काम करता है , तो उसे कष्ट ही मिलता है. यदि कोई व्यक्ति शुद्ध विचारों के साथ बोलता या काम करता है, तो उसकी परछाई की तरह ख़ुशी उसका साथ कभी नहीं छोड़ती.

– भगवान गौतम बुद्ध

उत्कृष्टता वो कला है जो प्रशिक्षण और आदत से आती है. हम इस लिए सही कार्य नहीं करते कि हमारे अंदर अच्छाई या उत्कृष्टता है , बल्कि वो हमारे अंदर इसलिए हैं क्योंकि हमने सही कार्य किया है. हम वो हैं जो हम बार बार करते हैं. इसलिए उत्कृष्टता कोई कार्य नहीं बल्कि एक आदत है.

– अरस्तु

अपनी क्षमताओं को जान कर और उनमे यकीन करके ही हम एक बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं.

– दलाई लामा

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