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तापमान का रिकार्ड : जलवायु परिवर्तन और अलनीनो के कारण झुलस रहा भारत

भारत में तापमान के अब तक के सारे रिकार्ड टूट गये हैं. राजस्थान के फलोदी में पारा रिकार्ड 51 डिग्री सेल्सियस पहुंचने के साथ उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में लू के भीषण प्रकोप ने वैश्विक तापमान बढ़ने के घातक परिणामों की ओर हमारा ध्यान फिर खींचा है. जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के नष्ट होते […]

भारत में तापमान के अब तक के सारे रिकार्ड टूट गये हैं. राजस्थान के फलोदी में पारा रिकार्ड 51 डिग्री सेल्सियस पहुंचने के साथ उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में लू के भीषण प्रकोप ने वैश्विक तापमान बढ़ने के घातक परिणामों की ओर हमारा ध्यान फिर खींचा है.

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के नष्ट होते जाने की चिंताओं के बीच विकास की मौजूदा दिशा पर भी सवाल उठ रहे हैं. बढ़ती खाद्य और ऊर्जा जरूरतों तथा धरती को बचाने के बीच संतुलन बनाना मानव सभ्यता की सबसे बड़ी चुनौती है. देश-दुनिया में गर्मी लगातार बढ़ते जाने से जुड़े जरूरी पहलुओं और इससे उपजी चिंताओं पर आधारित यह प्रस्तुति…

डॉ अभय कुमार

पर्यावरण विशेषज्ञ

उत्तरी और मध्य भारत में भयानक गर्मी और हीटवेव की स्थिति है. देश के पश्चिमी इलाकों और पाकिस्तान से आ रही गर्म और सूखी हवाओं से तापमान नये रिकार्ड बना रहा है. तपते सूरज और सूखी हवाओं के कारण ऊमस नहीं है.

भारतीय मौसम विभाग विभिन्न इलाकों में लोगों की गर्मी सहन करने की क्षमता के अनुरूप लू यानी हीटवेव का निर्धारण करता है. राजस्थान के फलोदी शहर में कुछ दिन पहले तापमान 51 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो कि अब तक का सबसे अधिक तापमान है. इससे पहले राजस्थान के ही अलवर में 1956 में ऐसा तापमान दर्ज किया गया था. मौजूदा दशक- 2010, 2015 और अब 2016- में गंभीर हीटवेव की स्थितियां बनी हैं. वर्ष 2010 में अहमदाबाद में गर्मी से तीन हजार से अधिक लोग मारे गये थे.

हीटवेव से डायरिया, डिहाइड्रेशन और बुखार जैसी घातक समस्याएं पैदा हो सकती हैं. हीटवेव से पिछले ही साल दो हजार से अधिक लोग मारे गये थे. तब आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र थे. इसका सबसे बुरा असर मजदूरों पर पड़ा था जिन्हें जीवन-यापन के लिए बाहर काम करना पड़ता है. हीटवेव के दौरान दोपहर बाद घर के भीतर रहने की हिदायत दी जाती है, जब तापमान सबसे ज्यादा होता है. इस साल सूखे, पानी की कमी, कमजोर फसल और लाचार पशुओं के कारण हालात और खराब हो गये हैं. वर्ष 2003 में यूरोप में हजारों लोग ऐसी ही स्थिति में मारे गये थे.

बढ़ रही है हीटवेव वाले दिनों की संख्या

भारत में गर्मी के मौसम में लू का चलना सामान्य परिघटना है. जो चीज इस बार असाधारण है, वह हीटवेव के दिनों की संख्या का बढ़ना है. अधिकतम तापमान भी बढ़ रहा है.

लू की स्थितियां पूर्व की तरफ बढ़ती दिख रही हैं. मौसम के इस अतिरेक के लिए जलवायु परिवर्तन और अल नीनो को मुख्य रूप से जिम्मेवार माना जा सकता है. हालांकि, भारत में गर्मियों में तापमान बढ़ने के अन्य कुछ कारण भी हैं, जिन पर विचार किया जाना चाहिए. बीसवीं सदी के शुरू से औसत वैश्विक तापमान में 1.6 डिग्री फारेनहाइट की वृद्धि हुई है.

एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार, भारत में अल नीनो के साल या उसके पहलेवाले साल की तुलना में बादवाले साल में हीटवेव से अधिक लोग मरते हैं. वर्ष 2015-16 का अल नीनो दौर वसंत के समय तक रहा है. इस अल नीनो को कमोबेश 1997-98 के अल नीनो की तरह माना जा रहा है, जो रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे मजबूत रहा था. इस साल अल नीनो के कारण जाड़े का मौसम लंबा रहा है.

अल नीनो में पेरू के निकट पूर्वी प्रशांत महासागर गर्म पानी की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे दुनियाभर के मौसम पर असर पड़ता है. यह हर 6-7 साल में एक बार होता है.

नियंत्रण के लिए त्वरित प्रयास जरूरी

अल नीनो को नियंत्रित करना हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन जलवायु परिवर्तन का कारण जीवाश्म ईंधन पर बढ़ती हमारी निर्भरता है. धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने के लिए दुनिया को त्वरित प्रयास करने की जरूरत है. इस दिशा में वैश्विक स्तर के साथ स्थानीय स्तर भी उपाय करने होंगे. विकास की योजनाओं में मूलभूत परिवर्तन करना होगा.

विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण के लिए ठोस चिंता परिलक्षित होनी चाहिए. तात्कालिक रूप से शहरों में हीटवेव से हो रही तबाही को रोकने के प्रयास किये जाने चाहिए. अहमदाबाद हीट एक्शन प्लान, 2015 इस संबंध में समुचित पहल है जिसमें जागरुकता बढ़ाने, चेतावनी प्रणाली और विभागों के बीच समन्वय बनाने, चिकित्सकीय सुविधाएं बढ़ाने, बाहर रहने की अवधि को कम करने तथा अनुकूलन की क्षमता बढ़ाने जैसे उपाय तय किये गये हैं.

लू का कहर झेल रहे हैं कई राज्य

बीते चार सालों में हीट वेव से 4,204 लोग मारे जा चुके हैं

भा रतीय मौसम विभाग ने इन क्षेत्रों को ऐसी श्रेणी में रखा है जो सालाना लू की स्थिति का सामना कर रहे हैं जो आठ दिन या इससे अधिक समय तक जारी रहता है- राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, विदर्भ, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, तटीय आंध्र प्रदेश और उत्तरी तमिलनाडु.

लू यानी हीट वेव की स्थिति तब बनती है जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या अधिक हो जाता है. पहाड़ी इलाकों में ऐसी स्थिति तापमान के 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाने पर बनती है. तटीय इलाकों में लू के अलग मानक हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बीते पांच दशकों में देश के लोकप्रिय हिल स्टेशनों में गर्मी के महीनों में पांच डिग्री से अधिक तापमान में वृद्धि दर्ज की गयी है. इनमें मसूरी, शिमला, दार्जिलिंग, डलहौजी और चैल भी शामिल हैं.

भारतीय मौसम विभाग के विभिन्न मौसम केंद्रों में 1990 तक 500 से कम हीट वेव के मौके आते थे, जबकि 1991 से 2000 के बीच इनकी वार्षिक आवृत्ति करीब 580 हो गयी थी. भारतीय मौसम विभाग की सूचना के अनुसार, 2000 से 2010 के बीच सालाना हीट वेब की संख्या करीब 670 तक पहुंच गई.

वर्ष 2000 तक अत्यधिक लू की स्थिति के 50 से कम अवसर आये थे, जबकि अगले दशक में ऐसा 100 से कम बार हुआ. किसी केंद्र पर हीट वेव की घोषणा के मानक निर्धारित हैं- यदि अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस हो, या अधिकतम तापमान सामान्य से 4.5 से 6.4 डिग्री सेल्सियस अधिक हो, या फिर अधिकतम तापमान 45 डिग्री या इससे अधिक हो जाये.

अत्यधिक लू की स्थिति तब मानी जाती है, जब अधिकतम तापमान सामान्य से 6.5 डिग्री अधिक हो, या तापमान 47 डिग्री या इससे अधिक तक पहुंच जाये. उल्लेखनीय है कि भीषण गर्मी के कारण इस वर्ष अप्रैल से 400 से अधिक जानें जा चुकी हैं. बीते चार सालों में हीट वेव से 4,204 लोग मारे जा चुके हैं.

जलवायु परिवर्तन से खेती पर खतरा

जलवायु परिवर्तन धरती पर उपलब्ध संसाधनों पर गंभीर प्रभाव डाल रहा है. पृथ्वी पर जीवन को बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी तत्व पानी पर इसका असर सर्वाधिक खतरनाक है. हीट वेव के कारण गर्म दिनों और रातों की संख्या बढ़ने तथा जाड़े के मौसम में तापमान में वद्धि के कारण मॉनसून का मिजाज हर साल बदलता हुआ दिख रहा है.

बीते दो सालों से देश के कई इलाकों में भयंकर सूखे की स्थिति है, तो अनेक क्षेत्रों में पानी की कमी के कारण कृषि उत्पादन में गिरावट आयी है. वर्ष 1891 से अब तक 25 से अधिक बार बड़े पैमाने पर सूखे की स्थिति पैदा हो चुकी है. देश के 55 फीसदी से अधिक खेती के लिए सिंचाई सुविधा उपलब्ध नहीं है और ऐसे किसानों को बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है. दुनिया की कुल आबादी का 16 फीसदी हिस्सा भारत में बसता है, पर वैश्विक जल संसाधनों का मात्र चार फीसदी ही भारत के हिस्से में है. हमारे देश में मौजूदा खाद्य उपभोग 550 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है, जबकि चीन में यह 980 ग्राम और अमेरिका में 2850 ग्राम है.

निरंतर बढ़ती आबादी के लिए 2020 तक खाद्य उत्पादन को 300 मेट्रिक टन तक बढ़ाने की जरूरत है. देश की मौजूदा पानी उपलब्धता का करीब 80-85 फीसदी हिस्सा खेती में ही खर्च होता है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन खेती के विकास की राह को अवरुद्ध कर सकता है. गर्म जलवायु बारिश की मात्रा और समय-चक्र को प्रभावित करेगा. वाष्पीकरण में मामूली बढ़त भी सूखे की स्थिति पैदा कर सकती है और फसलों की उपज तथा भूमि की उर्वरता को कम कर सकती है. असामयिक और अधिक बाढ़ भी खेती को बुरी तरह से प्रभावित करती है. देश के विभिन्न इलाकों में अलग-अलग फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल असर अभी से दिख रहा है.

तापमान वृद्धि से बढ़ रहा है बीमारियों का प्रकोप

स्थानीय स्तर पर जुटाये गये आंकड़ों और सबूतों के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह साबित किया है कि तापमान में वृद्धि और ऊमस के कारण मलेरिया जैसे मच्छर-जनित रोगों का प्रसार हो रहा है. हिमालयी क्षेत्रों में पारा चढ़ने से नये इलाकों मेम मलेरिया का प्रकोप बढ़ रहा है. कुछ साल पहले नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च ने हिमालयी क्षेत्रों का अध्ययन किया था जिसमें उत्तराखंड के नैनीताल जिले के पहाड़ी इलाकों में मलेरिया के मामले पाये गये थे.

इस जिले में डेंगू का पहला मामला 1996 में सामने आया था. हाल के वर्षों में इस रोग के पीड़ितों की संख्या बढ़ी है. नेपाल और भूटान में भी 2004 से डेंगू की बीमारी फैल रही है. वर्ष 2010 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2030 तक संवेदनशील इलाकों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का पहला आकलन प्रस्तुत किया था. इस रिपोर्ट ने मलेरिया इंस्टीट्यूट के अध्ययन के आधार पर मलेरिया के फैलने को रेखांकित किया था. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटिओरोलॉजी के अनुमान के अनुसार 2030 तक हिमालयी क्षेत्र में हिमालयी क्षेत्र में तापमान में 2.6 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है.

साथ ही, वर्षा सघनता भी दो से 12 फीसदी तक बढ़ सकती है. ऐसे में उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में मलेरिया की समस्या बढ़ेगी. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी जलवायु परिवर्तन और जल-जनित रोगों के संबंध का अध्ययन किया है. हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से उत्तर भारत की नदियों में आगामी डेढ़-दो दशकों में अधिक पानी रहेगा और बाद में कम हो जायेगा. इन दोनों ही स्थितियों में दूषित पानी से होनेवाली बीमारियों और संक्रामक रोगों का प्रकोप बढ़ेगा.

समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तबाह हो सकते हैं चार करोड़ लोग

वर्ष 2050 तक समुद्र के किनारे बसे शहरों के करीब चार करोड़ लोग तटीय बाढ़ से तबाह हो सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट- ग्लोबल इंवायर्नमेंट आउटलुक के मुताबिक जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक बुरा प्रभाव प्रशांत, दक्षिण एशियाई और दक्षिण-पूर्व एशियाई इलाकों पर पड़ेगा. दुनिया के सबसे अधिक खतरे में पड़ सकनेवाले 10 देशों में से सात एशिया प्रशांत क्षेत्र में हैं. भारत में मुंबई और कलकत्ता जैसे शहरों पर सर्वाधिक असर की संभावना है. भारत के बाद तटीय शहरों में बसे बांग्लादेश के ढाई करोड़, चीन के दो करोड़ तथा फिलिपींस के डेढ़ करोड़ लोग प्रभावित हो सकते हैं.

बेतहाशा शहरीकरण, आर्थिक विकास और बिना सोचे-समझे बस्तियां बसाने के कारण मौसम के अतिरेक के असर से निपटने की तटों की प्राकृतिक क्षमता का ह्रास हुआ है. इस वजह से ऐसे शहरों में खतरा बढ़ गया है. रिपोर्ट में खतरे की आशंकावाले शहरों में भारत के मुंबई और कोलकाता, चीन के ग्वांग्जू और शंघाई, बांग्लादेश के ढाका, म्यांमार के यंगून, थाईलैंड में बैंकॉक तथा वियतनाम के हो ची मिन्ह सिटी और है फॉन्ग को चिंहित किया गया है.

जलस्रोतों के संरक्षण और हरियाली बढ़ाने की जरूरत

सुधीरेंद्र शर्मा

पर्यावरण विशेषज्ञ

2016 हो सकता है सबसे गर्म साल

अमेरिकी संस्था नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन ने अप्रैल में संभावना जतायी थी कि 2015 को पीछे छोड़ते हुए 2016 दुनिया के रिकॉर्डेड इतिहास का सबसे गर्म साल हो सकता है. भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भी कहा है कि हमारे देश के लिए भी यह साल सदी के सबसे गर्म सालों में एक हो सकता है. इस वर्ष जनवरी से लेकर मई तक गर्मी सामान्य से अधिक रही है.

1901 के बाद तीसरा सबसे गर्म साल रहा था 2015

– वर्ष 2015 में वार्षिक औसत तापमान 1961-1990 के औसत से 0.67 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा था. इस लिहाज से यह साल 1901 के बाद तीसरा सर्वाधिक गर्म साल रहा था. रिकॉर्ड के मुताबिक इसके अलावा नौ सबसे गर्म साल इस प्रकार हैं- 2009, 2010, 2003, 2002, 2014, 1998, 2006 और 2007.

– यह बहुत चिंताजनक है कि अब तक के 15 में से 12 सबसे गर्म साल पिछले 15 सालों (2001-15) में रहे हैं. दशक के हिसाब से पिछला दशक सर्वाधिक गर्म रहा था और उसका औसत तामपान 1901 के बाद के दशकों के औसत तापमान से 0.49 डिग्री सेल्सियस अधिक था. पिछले साल देशभर में भयंकर लू और गर्मी के कारण 2500 से अधिक लोग मारे गये थे.

– बढ़ते तापमान का कारण अल नीनो है, जिसके आगामी महीने में कमजोर होने की उम्मीद है. वर्ष 2015 में प्रशांत महासागर के ऊपर बनी मजबूत अल नीनो स्थिति अभी जारी है.

अल नीनो मॉनसून को कमजोर और तापमान में बढ़ोतरी करता है. अमेरिकी संस्था के मुताबिक अप्रैल के तीसरे सप्ताह तक इस वर्ष का वैश्विक औसत तापमान बीसवीं सदी के औसत से 2.07 डिग्री फारेनहाइट अधिक रहा था. वर्ष 1880 से लेकर 2016 के बीच का यह सर्वाधिक तापमान है जो 2015 के उच्चतम रिकॉर्ड से 0.50 डिग्री फारेनहाइट अधिक है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पिछले तीन दशक सर्वाधिक गर्म रहे हैं

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इंटर-गवर्नमेंटल पैनल की पांचवीं आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि 1850 (इस वर्ष से तापमान के आंकड़े रखना शुरू किया गया था) के बाद से पिछले तीन दशक सर्वाधिक गर्म रहे हैं. तापमान बढ़ने का मुख्य कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बेतहाशा बढ़ोतरी है. औद्योगिकीकरण से पहले के दौर से इसकी मात्रा 40 फीसदी बढ़ चुकी है. इसके परिणामस्वरूप वायुमंडल और समुद्रों का स्तर बढ़ रहा है.

ग्लेशियरों के पिघलने और वनों के क्षेत्रफल में कमी से भी मौसम-चक्र पर कुप्रभाव पड़ रहा है. इससे मॉनसून भी कमजोर होता है और मौसम का मिजाज अतिरेकी हो जाता है, जिसके चलते कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक मनुष्य द्वारा उत्सर्जित कार्बन की कुल मात्रा 800 गीगाटन से अधिक नहीं होनी चाहिए, पर 2011 तक ही यह मात्रा 531 गीगाटन पार कर चुकी है.

इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि आगामी दशकों- 2045 से 2065 के बीच- उत्तर और पश्चिमी भारत में तापमान में बढ़ोतरी होगी, जबकि दक्षिण भारत में रातों में गर्मी बढ़ेगी. दिन के तापमान में चार से पांच डिग्री सेल्सियस वृद्धि हो सकती है, तो गर्म रातों की संख्या, खासकर दक्षिण भारत में, शून्य से 80 तक हो सकती है. गर्म रातों यानी ट्रॉपिकल नाइट का मतलब दिन के 24 घंटों में तापमान का 20 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहना है. इस कारण मॉनसून कमजोर और अनियमित हो रहा है तथा अतिरेकी मौसम के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

कहीं सूखा, तो कहीं पानी ही पानी

देश में एक तरफ सूखा है, तो कुछ साल पूर्व उत्तराखंड और कश्मीर भयावह बाढ़ से तबाह हो चुके हैं. नेपाल-स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटेग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने पहले ही चेतावनी दी है कि हिमालय के 54 हजार ग्लेशियर बर्फीली झीलें बना सकते हैं जो भयानक बाढ़ की स्थिति पैदा कर सकती हैं. केदारनाथ में बर्फीली झील के कारण ही उत्तराखंड में तबाही आयी थी. नेपाल में आये भूकंप के बाद काली गंडकी नदी में ऐसी ही झील बनी है, जिसके तटबंधों में टूट की स्थिति में नेपाल के साथ बिहार के कई इलाके प्रभावित हो सकते हैं.

तापमान से प्रभावित देशों में भारत और चीन अग्रणी

पिछले साल अमेरिकी शोध संस्था क्लाइमेट सेंट्रल ने एक रिपोर्ट में बताया था कि कार्बन उत्सर्जन से तापमान में चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से सबसे अधिक प्रभावित होनेवाले देशों में भारत और चीन अग्रणी हैं. समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी से सिर्फ इन देशों के 20 करोड़ लोगों का जनजीवन प्रभावित हो सकता है. वैश्विक स्तर पर इससे 47 से 76 करोड़ आबादी पर असर संभावित है.

खतरे का सामना करनेवाले शहरों में शंघाई, हॉन्ग कॉन्ग, कोलकाता, मुंबई, ढाका, जकार्ता और हनोई का नाम प्रमुख है. यदि तापमान में वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दिया जाये, तो भारत में 3.5 करोड़ और चीन में 6.4 करोड़ आबादी के खतरे की आशंका को टाला जा सकता है. इसके बावजूद भी शंघाई, हॉन्ग कॉन्ग और मुंबई के 25 फीसदी इलाके समुद्री पानी में डूबेंगे.

प्रस्तुति : प्रकाश कुमार रे

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