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सिकड़ी सिनीवाली

कभी-कभी बहुत छोटी सी बात याद रह जाती है और वो समय के साथ दबे-छुपे रूप में लोगों के मन में घूमती रहती है, तो कभी उत्सुकता बनकर मन के भीतर इधर-उधर फुदकती रहती है. रामकिशोर की कनिया आज से कुछ साल पहले अपनी नैहर में सांप काटने से अचानक मर गयी. ये दुखद घटना […]

कभी-कभी बहुत छोटी सी बात याद रह जाती है और वो समय के साथ दबे-छुपे रूप में लोगों के मन में घूमती रहती है, तो कभी उत्सुकता बनकर मन के भीतर इधर-उधर फुदकती रहती है.
रामकिशोर की कनिया आज से कुछ साल पहले अपनी नैहर में सांप काटने से अचानक मर गयी. ये दुखद घटना तो घट चुकी और समय ने भी धीरे-धीरे इस घटना पर अपनी धूल जमा दी. बच्चे भी बिना मां के किसी तरह बड़े तो हो ही जाते हैं, तो इनकी दोनों संतानें भी उसी तरह बड़ी हो गयीं.
कुछ वर्ष बीतने के बाद भी सबके लिए उत्सुकता का विषय थी कि जाने वाली तो चली गयी, …पर उसके गले में जो तीन भर की सिकड़ी थी, वो आखिर कहां चली गयी, बिला गयी! सोनपुर वाली चाची बोली, ‘फगुनिया माय तो कहीं नहीं….’ बगल में बैठी लाडो बोली, ‘हां चाची, उसी का किया-धरा होगा’. उधर दूसरी तरफ से बात को काटते हुए निमिया बोली, ‘अरे नहीं, वो खाली अनाज चुराती है और साधु साव के यहां बेच आती है.’ ‘तो फिर चुहिया माय!’ ‘हां ये वही कर सकती है.’
कुछ देर में किसी तीसरे, फिर चौथे… का नाम आ जाता. कुछ महिलाएं किसी नाम पर एकमत होतीं, फिर तुरंत दूसरे के नाम पर. और ये सिलसिला जारी है, लेकिन किसी नाम पर मतैक्य नहीं हो पाया.
घर के बाहर सिकड़ी को लेकर जो उत्सुकता थी, घर के अंदर उससे कम न थी. भौजी के मन में ये खुदबुदी थी कि वो सिकड़ी आखिर गयी कहां? इतने बरस में क्या हमने इतना भी नहीं सीखा कि कब, कौन-सा चीज कितना छिपाना, कितना दबाना और कितना दिखाना है. क्या मजाल, किसी को भनक भी लगने देती, तरपेटी रखती… तरपेटी में. आज वो सिकड़ी हाथ में रहती तो ऊंच-नीच समय में हमारा साथ तो देती.
बड़की मैंया के साथ जो ये सब हुआ, उस टैम छोटकी मैंया, हमारी छोटकी ननद भी संजोग से आयी हुई थी.साउन में आयी थी कि राखी बांध कर दोनों बहन लौट जायेगी. उस साल मेघ भी खूब पड़ा था, एतना कि सांप-छुछूंदर अपना घर छोड़कर आदमी के घर रहने चले आये. तभी तो दिन में नहीं ही …झिमिर-झिमिर पानी पड़ ही रहा था और सांझ को उसका नाम नहीं लिया जाता…. उ करका डोरा,… उसी ने काट लिया. कुछ ही समय में छटपटा के खतम हो गयी… हमरी बड़की मैंया… अभी भी याद करते हैं तो देह सिहर उठता है.
भगवान की मर्जी… हां, छोटकी मैंया खूब रोयी थी, आखिर बहिन थी… एक पेट के जने… अपना खून है, दरद तो होगा ही. उस पर हम कुछ नहीं कह रहे, लेकिन…?
यही ‘लेकिन’ इतने बरस बाद भी अपना अर्थ लिये सिकड़ी के साथ-साथ घूम रहा था.
सोना और सुखी जीवन का गंठजोड़. जोड़ते-जोड़ते फिर शक की सुई कई लोगों पर टिकती. कभी ये सूई तेज चलती, कभी सोच-विचार करते-करते मंथर गति से चलती. कई बार की तरह फिर ये सूई छोटकी मैंया पर जाकर टिक जाती. क्या पता… नहीं, नहीं… नहीं, छोटकी मैंया ऐसी नहीं है.
हम तो बहुते साल से देख रहे हैं. शक की सूई छोटकी मैंया पर कुछ देर ठहर कर टिक-टिक-टिक करती, फिर आगे बढ़ जाती. ये शक की सूई चलती हुई ऊ चाची, ई चाची, फलना माय-चिलना माय से गुजरती हुई चलने लगती और चाचियों, देवरानियों, जेठानियों की फौज खड़ी हो जाती. पर किस नाम पर अंगुली रखे, इतने बरस में ये तय नहीं कर पायी. वहीं सोचने का चक्र शुरू होता और फिर बात वहीं आकर अटक जाती कि ‘आखिर सिकड़ी गयी कहां!’
रामोदा पत्नी के अचानक गुजर से दुखी तो थे ही. बिना औरत के घर चलाना कितना मुश्किल होता है, इतने दिनों में समझ चुके हैं पर जब से बेटी कुसुम अपने छह महीने के बेटे यानी नाती को लेकर पहली बार आयी है, उनकी चिंता बढ़ गयी है. किसी तरह उसकी मुंह देखी तो करनी ही होगी.
जैसे ही उन्हें पता चला कि नाती हुआ है, खुशी के मारे न शगुन देखा न मुहुरत, सीधे अस्पताल जाकर खाली हाथ ही देख आये. उस समय तो ठीक था, पर नाती पहली बार आये और बिना सोने के सोने जैसा नाती चला जाये, ये बात उन्हें अंदर ही अंदर खाये जा रही थी.
जेवर तो पत्नी के पास और भी थे पर गृहस्थी चलाने में कुछ बिके और बाकी जो बचा था, कुसुम की शादी की भेंट चढ़ गये. उसी सिकड़ी पर उनका भी ध्यान रहता क्योंकि घरवाली हमेशा उसे अपने गले से लटकाये रहती थी.
एक दिन अचानक समय के हाथ से फिसलकर वो उत्सुकता… वो प्रश्न… वो सामाजिक दायित्व, उत्तर बनकर सबके सामने आ गया. हुआ यूं कि रधिया की गोद में कुसुम का बेटा एकदम सोने की तरह चमक रहा था.
बात ये नहीं थी कि बच्चा सुंदर था या नहीं. बात ये थी कि उसके गले में एक सिकड़ी चमक रही थी, चमचम, चमचम, चकमक, चकमक, वही अपनी वर्षों पुरानी चमक लिये. हां ये वही सिकड़ी थी जिसके साथ-साथ इतने दिनों से ये सवाल भी चल रहा था कि ‘आखिर सिकड़ी गयी कहां!’
सिकड़ी को देखने वाले अपने-अपने तरीके से देख रहे थे. कुछ क्षणों में भावुकता खत्म होते ही बुद्धि दनादन चलने लगती है. रधिया बच्चे के भार से इतनी दबी नहीं जा रही थी जितना कि सबके सवालों के भार से.
एक सवाल खतम होने के पहले ही दूसरा सवाल. रधिया बोलना चाह रही थी. बड़ी देर से वो बात उछल-उछलकर मुंह तक आना चाह रहे थे, आ भी जाते फिर सवालों के धक्के से सीधे पेट के भीतर जाकर गिरते. सिकड़ी के रहस्य को सवालों के इस धक्का-मुक्की में और देर तक रधिया अपने भीतर नहीं रख पा रही थी. आजिज होकर बोली, ‘खाली पूछे ही जा रहे हैं, दम्मो तो मारिये. वो ही बात तो हम कब से बताना चाह रहे हैं.
खाली गुलुर-गुलुर कर रहे हैं.’ सिकड़ी का रहस्य पा लेने के बाद रधिया कुछ अधिक ही आत्मविश्वास में थी, बोली का टोन एकदम बदल गया था. बोलते-बोलते नजर उसकी माई पर पड़ी. माई की लहरती आंख देख कर समझ गयी कि तुरंत ही अपनी कड़क बोली पर पानी ढार कर नरम नहीं किया, तो अकेले में मिलते ही माई की डपटनियां पड़ेगी.
एक सेकेंड में ही अपनी बातों में शहद लगाती हुई बगल में खड़ी एक औरत से बोली, ‘चाची, जरा नूनु को पकड़िए’, फिर बच्चे के गले में सिकड़ी के लॉकेट को ठीक करते हुए बच्चे को चाची की गोद में देकर बोली, ‘हम तो कुसुम दी के यहां करुआ तेल पैंचा मांगने गये थे, मुझे क्या पता था कि हम ठीक उसी टैम पर पहुंचेंगे जब कुसुम दी मुझे बिना देखे बोल रही थी, ‘दद्दा ये तुम्हारे गले में मैया वाली सिकड़ी है क्या! दद्दा चाय पी रहे थे. उन्होंने कप रखा और उठ कर अपने गले से सिकड़ी नूनु को पहना दी.’
कुसुम पहले तो अचकचा गयी. न चाहते हुए भी उसके चहरे पर खुशी जबरदस्ती कब्जा जमाने लगी. पर कुसुम समझती है ऐसे मौके पर खुशी नहीं कुछ दूसरा ही भाव रखना चाहिए. अपने को और अपनी बातों को नॉर्मल करते हुए बोली, ‘दद्दा इतने दिनों से ये सिकड़ी थी कहां? तुम्हारे पास कैसे आयी?
हम तो चाह कर भी तुमसे और बाउजी से कुछ नहीं पूछ पाते थे और आज अचानक सिकड़ी देख कर रहा नहीं गया.’ मुंह पर उदासी लाते हुए बोली, ‘तुम्हारे गले में रहे या नूनु के, है तो ये मैया की ही…. .’ दद्दा भी औरत और जेवर प्रेम थोड़ा बहुत समझते थे, बोले, ‘मैया भी रहती तो ये मुंह दिखायी में दे ही देती…, सोचा मैं ही कर दूं’.
फिर दद्दा बोले, परसो मौसी के यहां गया था, उन्होंने ही दिया और कहने लगी, इतने बरस दीदी की निशानी मेरे पास रही. अंतिम समय में दीदी के गले में थी. उस दिन सब बहुत परेशान थे, लेकिन वो सलिमपुर वाली चाची, एक लम्बर की चोरनी…, नट्टिन. बार-बार रोने के बहाने दीदी की छाती पर माथा रख कर रोती. मैं तो समझ गयी कि ये रोने के बहाने क्या करने वाली है.
इसलिए चुपचाप ये सिकड़ी मैंने उतार ली. सोचा भौजी के पास रख दूं, पर जनानी और जेवर! यही सोच कर मैं अपने साथ ले आयी. कई बार सोचा, मेहमान को दे दूं, फिर लगा, मरद का भी कोई ठिकाना नहीं, एक मरी नहीं कि दूसरी को घर लाते कितनी देर लगती है. बेटा, सौतेली माय, क्या माय होती है, एक-एक पैसे का मोहताज न कर दे. उस समय काम देता, पर इतने बरस बाद अब तो मेहमान ऐसा नहीं करेंगे. सो तुम ये सिकड़ी दीदी के नाम से अपनी कनिया के लिए रख लो. और हां, घर ले जाने से पहले इसे सोनरवा से जरूर साफ करवा लेना. खराब समय जो सिकड़ी में लगा होगा, वो वहीं झड़ जायेगा.
छिप कर बातें सुनना रधिया का सहज स्वभाव था, और वहां से वो ये बात लेकर उड़ गयी. और इस तरह बरसों बाद सिकड़ी के रहस्य का उद्घाटन हुआ. बस रधिया की आवाज ही आ रही थी, क्योंकि सब लोग चुपचाप सिकड़ी के रहस्य का श्रवण कर रहे थे.

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