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90 के नामवर : साहित्यिक योगी का जीवन जीते रहे हैं नामवर सिंह

काशीनाथ सिंह वरिष्‍ठ साहित्यकार हिंदी साहित्य के प्रख्यात समालोचक, गहन अध्येता और प्राध्यापक नामवर सिंह का आज जन्मदिन है. यह हमारा सौभाग्य है कि हिंदी साहित्य के परिदृश्य में 90 वर्ष पूरे कर 91वें वर्ष में प्रवेश कर रहे नामवर सिंह का बौद्धिक दखल आज भी बना हुआ है. पिछले छह दशक से अधिक समय […]

काशीनाथ सिंह

वरिष्‍ठ साहित्यकार

हिंदी साहित्य के प्रख्यात समालोचक, गहन अध्येता और प्राध्यापक नामवर सिंह का आज जन्मदिन है. यह हमारा सौभाग्य है कि हिंदी साहित्य के परिदृश्य में 90 वर्ष पूरे कर 91वें वर्ष में प्रवेश कर रहे नामवर सिंह का बौद्धिक दखल आज भी बना हुआ है. पिछले छह दशक से अधिक समय से अपनी गरिमामय उपस्थिति के साथ उन्होंने न सिर्फ हिंदी आलोचना को साहित्य के केंद्र में बनाये रखा, बल्कि लेखकों और पाठकों को रचना को देखने और समझने की नयी दृष्टि भी दी. आज नामवर सिंह के जन्मदिन के अवसर पर मंगलकामनाओं के साथ उनके जीवन एवं साहित्यिक योगदान को अलग-अलग कोणों से देखने की एक कोशिश…

नामवर सिंह हिंदी साहित्य के एक असाधारण व्यक्तित्व हैं. उनके जैसी प्रतिभा बार-बार जन्म नहीं लेती. मुझे गर्व है कि वे मेरे बड़े भाई हैं. मेरा अस्सी साल का जीवन उनके साथ गुजरा है. उन्होंने मुझे गोद में लेकर खिलाया है. पढ़ाया-लिखाया है. अपने हर सुख-दुख में मैंने उन्हें साथ देखा है. 15 वर्षों तक बनारस में मैं उनकी छाया की तरह रहा. लेखक के रूप में जहां कहीं मुझमें भटकाव आया, बराबर उनसे बातें की हैं. अगर कुछ अच्छा लिख सका हूं, तो उसके पीछे कहीं-न-कहीं उनके दिये हुए सूत्र कारगर रहे हैं.

हम तीन भाई हैं. हमारा भ्रातृप्रेम अगर पूरे जनपद में आज भी एक उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है, तो इसकी वजह है एक-दूसरे के लिए त्याग, समर्पण और प्यार. साठ के दशक की बात है. नामवर भइया के पास उस समय कोई नौकरी नहीं थी. रामजी भइया को तब पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर सत्तर रुपये महीने की नौकरी करनी पड़ी थी. वे इलाहाबाद से तकरीबन 40 किलोमीटर की दूरी पर भरवारी नाम की जगह पर कानूनगो हो गये थे. इसी दौर की एक घटना है. बड़े भइया गये थे इलाहाबाद साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में भाषण देने. भइया की तंगी उनके कुरते से झांक रही थी. भाषण के दौरान कथाकार मार्कंडेय सिंह ने उनका फटा कुरता देखा. उन्होंने तत्काल भरवारी में रामजी भइया के पास खबर भेजी कि भइया आये थे भाषण देने. उनका कुरता फटा हुआ था. मझले भाई ने उसी दम खादी आश्रम जाकर खादी का एक पूरा थान खरीदा और भागते हुए इलाहाबाद आये. मार्कंडेय जी के यहां आये, तो मालूम हुआ कि भइया बनारस वापसी के लिए स्टेशन जा चुके हैं. रामजी भइया स्टेशन भागे. स्टेशन पहुंचे, तो गाड़ी छूट रही थी. उन्होंने दौड़ कर एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे में भइया को ढूंढ़ कर खादी का थान पकड़ाया और कहा कि जाकर कुरता बनवा लीजिये. यह एक छोटा सा उदाहरण है और इसका जिक्र मैंने इसलिए किया, क्योंकि रामजी भइया ने पढ़ाई बीच में छोड़ कर नौकरी की थी.

इसी तरह जब रामजी भइया को आगे पढ़ने के लिए बनारस आना था, वह नहीं आये और मुझे भेजा कि काशी को ले जाइये. उसे पढ़ाइये. तब हाइ स्कूल के बाद बड़े भइया मुझे बनारस ले आये. न लाते तो मैं वहीं रह गया होता और इंटरमीडिएट भर कर पाता. यहां मेरी पूरी पढ़ाई नामवर भइया ने करायी. ऐसी स्थिति में हम भाइयों के परिवार को देखना, मेरी जिम्मेवारी बनती थी. बात बस इतनी है कि जैसे दोनों बड़े भाइयों ने अपना कर्तव्य निभाया, जरूरत पड़ने पर मां-बाप, भइया, उनका परिवार, जो कुछ था, सबकी जिम्मेवारी मैंने भी अपने ऊपर ली. गांव में बचपन में हम लोगों को बड़े भाई की सेवा करने का संस्कार मिला था. इसे संस्कार कहिये या आदत़, मगर यह अब तक बनी हुई है. भइया जब बनारस से गांव आते थे और रात के खाने के बाद विश्राम करते थे, तो हम दोनों भाई उनके पांव दबाते थे. जब तक तीनों भाई साथ थे, भाई की सेवा का यह सिलसिला बनारस में भी चला.

बड़े भइया जब दिल्ली चले गये, तो मझले भाई तो नहीं जा पाते थे, लेकिन मैं साल में दो तीन-बार, हफ्तेभर के लिए जाता था. मैं हिंदी विभाग का प्रोफेसर, अध्यक्ष हो गया था, इसके बावजूद जब तक जेएनयू के 109, न्यू कैंपस में भइया रहे, यह सेवावाला क्रम बराबर मैंने जारी रखा. यही वक्त होता था, जब भइया खाली होते थे और उनसे साहित्य के बारे में बातें होती थीं. समकालीन भारतीय साहित्य, हिंदी साहित्य, विश्व साहित्य सब पर. एक तरह से कथा-लेखन का मेरा पूरा शिक्षण गुरुकुल शैली में हुआ है. कह सकते हैं कि गुरु सेवा करते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा.

हालांकि, भइया में कहीं-न-कहीं मेरे लिए कुछ न कर पाने का पछतावा रहा है. ‘जीवन क्या जिया’ में उन्होंने ऐसा लिखा भी है. यह वस्तुत: भाई-भाई का लगाव है, जिसकी वजह से बार-बार उन्हें मेरे लिए चिंता होती रही है. लेकिन रामजी भइया और मेरी यह चिंता रही है कि उन्हें घर-परिवार की चिंता से मुक्त रखा जाये. यह चिंता इसलिए हुई, क्योंकि भइया जब गांव में मिडिल में पढ़ते थे, उसी समय वे हमारे इलाके में कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे. वे बहुत अच्छा काव्य-पाठ करते थे. कवि सम्मेलनों में लोग उन्हें सुनते थे. बनारस में गीतों के राजकुमार की एक परंपरा रही है. भइया भी कभी गीतों के राजकुमार थे. यह उनकी प्रतिष्ठा थी, जिससे हमने तय किया कि हम लोग कुछ बनें न बनें, लेकिन हम में से एक भाई अगर कुछ बन रहा है, तो उसके लिए जो कुछ हो सकता है करेंगे. हम तीनों भाई जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं, एक-दूसरे से उतने ही जुड़े हुए. अब भी मझले भाई घर और खेती-बाड़ी के मालिक हैं.

बड़े भइया के जीवन के सबसे अच्छे दिन लोलार्क कुंड के दिन थे, जिसमें संघर्ष के साथ सुख भी था. भले वे गरीबी के दिन रहे, लेकिन ये वही दिन थे, जब मां-पिता जी थे. वे बराबर गांव से आते-जाते थे. मां तो रहती ही थीं साथ में. मैं तो खैर वहीं रहता था. मझले भइया भी हफ्ते या 15 दिन में आ जाया करते थे. इस तरह सामूहिकता का भाव बराबर बना रहा.

बड़े भइया का मानसिक निर्माण बनारस में ही हुआ. नामवर सिंह आज भी मुख्य रूप से बनारसी हैं. वे जब तक बनारस आ सकते थे, तब तक आते रहे. बनारस आने की इच्छा बराबर उनकी बनी रहती है, लेकिन उम्र के ढलने के साथ आना क्रमश: कम होता गया. अब हम लोग खुद ही इस पक्ष में नहीं हैं कि वे दिल्ली से बाहर ज्यादा जायें, चाहे बनारस ही क्यों न हो. बहुत से लोग चाहते हैं कि उनके आखिरी दिन बनारस में गुजरें. लेकिन, बनारस अब उनके दौर का बनारस नहीं रहा. मिलना होता है, तो मैं खुद ही चला जाता हूं. मझले भाई की भी उम्र 85 साल हो रही है. तीन-चार महीने पहले उनकी पत्नी यानी हमारी मझली भाभी गुजर गयीं. एक दिन कहने लगे, ‘काशी ऐसा करो कि बूढ़ा मर गयीं, अब मैं एकदम खाली हूं. मुझे तुम शिवालिक पहुंचा देते, तो जाकर तीन-चार महीने मैं भइया की सेवा करता और मान लेता कि यह जीवन सार्थक हो गया.’ लेकिन मैं जानता हूं कि दिल्ली में वे एक दिन नहीं रह सकते, क्योंकि वे कभी गांव और बनारस से बाहर नहीं रहे हैं. पर, उनके मन में बार-बार भइया के पास जाने की इच्छा होती है.

मैं सन् 1953 से भइया को देख रहा हूं. असल में वे एक योगी का जीवन जीते रहे हैं. उन्हें साहित्यिक योगी कह सकते हैं. किताब-कॉपी, पढ़ाई-लिखाई के सिवा उन्होंने जीवन में कुछ जाना ही नहीं. अपने जीवन के संदर्भ में जब वे नागफनी का जिक्र करते हैं, तो इशारा उनके संघर्षों की तरफ होता है. नागफनी में कांटे ज्यादा होते हैं. उनकी जिंदगी भी कांटों भरी रही है. दो विश्वविद्यालयों से वे निकाले गये. एक जगह उन्हें मुकदमे का भी सामना करना पड़ा. जोधपुर जाने से पहले पांच साल बेकार रहे. जिस आदमी से मिलनेवालों का दिन-रात तांता लगा रहता हो, उसका यों अकेला पड़ जाना सालता है. पांच वर्षों तक कोई आदमी झांकने तक नहीं आया कि नामवर कैसे हैं. दूसरे, उनकी बातें भी तो कभी-कभी बहुतों के लिए नागफनी हुआ करती हैं. आलोचना में भी तो नागफनी के कांटे दिखायी पड़ते हैं, तो उसकी ओर भी इशारा है. लेकिन, असल में भइया छतनार वृक्ष रहे. एक विशाल वृक्ष. सबको छाया देनेवाले और उसी तरह अडिग भी रहे.

लेखकों-आलोचकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की

विश्‍वनाथ त्रिपाठी

वरिष्‍ठ आलोचक

नामवर सिंह 91वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं. यह हम सब के लिए हर्ष का क्षण है. मैंने सबसे पहले उनको 1953 में देखा था, जब वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में काशी विश्वविद्यालय में शोध कार्य कर रहे थे. मेरा सौभाग्य है कि वे मेरे गुरुभाई भी हैं और गुरु भी हैं. सौभाग्यवश यह हुआ कि जब मैं बीएचयू गया, उसी वर्ष से वे एमए की कक्षाएं लेने लगे. मैं जब पूर्वार्ध में था, तब उन्होंने हमें अपभ्रंश पढ़ाया.

नामवर सिंह से मुझे गहरी आत्मीयता मिली है. मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा. एक तरीके से उन्होंने ही मुझे आलोचक बनाया. मैं तो कवि था. नामवर सिंह से पहली बार मैं हमारे गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के कहने पर मिला. द्विवेदी जी ने मुझसे कहा कि नामवर से मिला करो- बहुत प्रतिभाशाली है. मैं नामवर सिंह से मिलने गया, लेकिन उस दिन कुछ ऐसा चक्कर पड़ा कि मुझे तीन घंटे उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी. उन्होंने तब मुझे कहा कि आपने मेरी तीन घंटे प्रतीक्षा की, तो मैं आपको तीन वचन देता हूं, जिनका मैं हमेशा पालन करूंगा. उन तीन वचनों का भाव यही था कि मैं हमेशा आपकी देखभाल एवं सहायता करूंगा और आपको आत्मीय मानूंगा. वो आत्मीयता तब से आज तक बनी हुई है. वह मुझे बाबू विश्वनाथ प्रसाद कहते हैं. संबंधों का निर्वाह करने में नामवर सिंह का कोई जवाब नहीं. उनका परिवार इसकी मिसाल है.

आज नामवर सिंह आधुनिक साहित्य के शीर्ष आलोचक-विचारक हैं. लेकिन उनकी साधना की ओर लोग प्रायः ध्यान नहीं देते. ऑर्डेन ने एलियट की कविता पढ़ कर कहा था, ‘हमारे बीच एक ऐसा कवि आया है, जिसने कवि होने की पूरी तैयारी की है.’ नामवर सिंह इस समय शायद अकेले ऐसे आलोचक हैं, जिन्होंने आलोचक होने की इतनी बड़ी तैयारी की है. आलोचक का काम होता है कि वह साहित्य का नया पाठ प्रस्तुत करे. पाठकों को कहानी, कविता या उपन्यास पढ़ने का तरीका बताये. इस तरह से वह आलोचना के द्वारा साहित्य का आसमान बदल देता है. किसी लेखक का महत्व पाठकों को बताता है. मेरे ख्याल से रामविलास शर्मा के बाद नामवर सिंह ने यह काम किया. इसका सबसे बड़ा उदाहरण निर्मल वर्मा हैं. नामवर सिंह ने उनकी कहानी ‘परिंदे’ पर जो लिखा, उससे निर्मल वर्मा, निर्मल वर्मा हुए. इसी तरह ऊषा प्रियम्वदा, धूमिल, विनोद कुमार शुक्ल आदि बहुत से कहानीकारों और कवियों को पढ़ने का ढंग नामवर सिंह ने ही बताया. नामवर सिंह की मान्यता और सफलता हवाई नहीं है. यह प्रत्यक्ष पाठकों के बीच दिखाई पड़ती है.

उन्होंने अच्छी आलोचना करके अपने शुभचिंतक कम, विरोधी ज्यादा पैदा किये. हालांकि, अच्छी आलोचना का लक्षण भी यही है. इसलिए भी उनका जितना सम्मान होना चाहिए, उतना नहीं हुआ. नामवर सिंह बहुत से पदों पर रहे. हालांकि, ऐसे बहुत से पद थे, जिसके वे योग्य थे, लेकिन वे पद उन्हें नहीं मिले. नामवर सिंह ने बहुत कठिन दिन भी देखे हैं.

जिस जमाने में नामवर सिंह ने काशी विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया, अच्छा प्राध्यापक कहलाना मुश्किल काम था. क्योंकि तब हिंदी विभाग में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पंडित कमलापति त्रिपाठी जैसे दिग्गज अध्यापक थे. इसलिए ऐसा कहना तो अपराध होगा कि उस समय विभाग में सबसे अच्छे प्राध्यापक नामवर थे, लेकिन एक दिग्गज अध्यापक मंडली के सामने कोई अपनी जगह बना ले, यह बहुत बड़ी बात थी. और उन्होंने अपनी वह जगह बनायी थी.

मैं और केदारनाथ सिंह क्लासफेलो थे. हम अकसर नामवर सिंह के यहां पहुंच जाते थे. उन दिनों वे जो कुछ भी पढ़ते थे, बाद में हमको भी पढ़ कर सुनाते थे. न जाने कितनी कविताएं, आलोचना, लेख सब उन्होंने हमें पढ़-पढ़ कर सुनाये हैं. किराये का बहुत छोटा सा मकान था, जिसमें एक के ऊपर एक कमरे बने हुए थे. सबसे ऊपर वाले कमरे में वे रहते थे. कमरे में मैक्सिम गोर्की का एक चित्र लगा था. एक कुर्सी और मेज थी. नामवर सिंह दक्षिण भारत गये थे, तो वहां से अगरबत्ती लाये थे. वे एक अगरबत्ती जला देते थे और उसके बाद निराला की कविताएं- ‘रेखा’, ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘सरोज स्मृति’ आदि पढ़ कर सुनाते थे. नामवर सिंह बहुत अच्छी कविता करते थे. मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से हूं, जिसने उनको गाते सुना है. उन्होंने बहुत बढ़िया कंठ पाया है. बहुत अच्छी कविताएं भी लिखी हैं. पर वे रघुवीर सहाय को अपना प्रिय कवि मानते हैं. मैं और केदारनाथ सिंह बैठे होते थे और वे कहते थे कि अब मैं अपने प्रिय कवि की कविताएं पढ़ने जा रहा हूं. उस समय नयी कविताएं कल्पना में निकलती थीं. ‘दुनिया कोई बजबजायी जैसी चीज हो गयी है’, जैसी कई नयी कविताएं उन्होंने हमें पढ़ कर सुनायीं. मुझे याद है कि फिराक गोरखपुरी की लंबी कविता ‘जुगनू’ कल्पना में निकली थी, नामवर सिंह ने हमें वह कविता पूरी पढ़ कर सुनायी थी. मैं जो कुछ भी जानता हूं, उनमें से बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो उस समय नामवर जी ने पढ़ाया-सुनाया.

आलोचना के क्षेत्र में उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति मैं उनकी नयी कहानियों पर किताब ‘कहानी: नयी कहानी’ को मानता हूं. इस किताब ने कई कहानीकारों को स्थापित किया. हालांकि, उन्हें और लिखना चाहिए था. लेकिन, उन्होंने जितना लिखा और बोला है, उसमें से कई बातों से मतभेद होने के बावजूद मैं मानता हूं कि हिंदी आलोचना ही नहीं, बल्कि हिंदी जगत को भी ऊंचा उठाने का काम किया है. उसे नया संस्कार, गरिमा और नयी चमक दी. उन्होंने लेखकों और आलोचकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की है. एक आलोचक के नाते भी और संस्थान निर्माता के नाते भी. ‘आलोचना’ पत्रिका का संपादन करके भी उन्होंने यह काम किया. उनको स्वस्थ जीवन की शुभकामनाएं.

नामवर के बिना काम चलना मुश्किल

प्रो. अपूर्वानंद

दिल्ली विश्‍वविद्यालय

नामवर सिंह ने अपने लेखन के जरिये आलोचना को एक सहज, पठनीय और आनंददायी क्रिया के रूप में स्थापित किया. आमतौर पर साहित्य में आलोचना केंद्रीय स्थान पर नहीं रहती, लेकिन नामवर सिंह ने आलोचना को बिल्कुल केंद्रीय स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया, जो एक अनोखी बात थी. आलोचना एक जरूरी गतिविधि और कार्रवाई के रूप में नामवर सिंह के लेखन के जरिये स्थापित हुई है.

‘छायावाद’ उनकी आरंभिक पुस्तकों में है. इस पुस्तक ने छायावाद और उस दौर के कवियों को बिल्कुल नये ढंग से देखने के उपकरण दिये हैं. ‘कहानी : नयी कहानी’ उनके स्तंभों का संकलन है, लेकिन उसमें व्यावहारिक समीक्षा, आलोचना के जरिये कहानियों को पढ़ते हुए उन्होंने, जो सैद्धांतिक स्थापनाएं की, उससे वह किताब अपने आप एक सैद्धांतिक आलोचना की भी पुस्तक बन गयी. ‘कविता के नये प्रतिमान’ पुस्तक ने, जब पूरी दुनिया में कविता की आलोचना के उपकरण खोजे जा रहे थे, उन उपकरणों को सामने रखते हुए उस वक्त जो हिंदी कविता लिखी जा रही थी, उसको पढ़ने की दृष्टि दी.

इसी तरह ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने एक नयी दृष्टि दी है, जो मार्क्सवादी परंपराओं के भीतर भी एक नयी बात थी. हजारी प्रसाद द्विवेदी को जब वह प्रस्तुत कर रहे थे, तब एक लोकवादी दृष्टि को भी प्रस्तुत कर रहे थे. यानी शास्त्र और लोक के बीच की बहस को, जो बहुत महत्वपूर्ण था. इन सबके बीच में नामवर की उस किताब को भी नहीं भूला जाना चाहिए, जो स्तंभों का ही संकलन है- ‘बकलम खुद’. इसमें उनका एक अलग ही रंग दिखायी पड़ता है. ‘वाद, विवाद, संवाद’ को भी याद रखा जाना चाहिए. उनकी इस पुस्तक को सैद्धांतिक स्थापनाओं के लिए नहीं, तो सिर्फ भाषा के लिए भी पढ़ा जा सकता है. नामवर सिंह अत्यंत पठनीय आलोचक हैं, जो आलोचकों के लिए बहुत दुर्लभ बात है.

साहित्य नामवर सिंह के विचार के केंद्र में है. लगभग साठ वर्ष तक अगर कोई व्यक्ति किसी भाषा की चर्चा के केंद्र में बना हुआ है, तो यह किसी योजना के तहत नहीं हो सकता, न शिष्यों की फौज, न संगठन के जरिये. यह स्वयं उसके अध्ययन, रचनाशीलता, साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता के दम पर होता है. इसलिए नामवर सिंह का मार्क्सवादी होना न होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है. मैं मानता हूं कि नामवर सिंह अंतत: साहित्यवादी हैं. अब हिंदी की उनके बिना कल्पना ही नहीं की जा सकती है.

साहित्यिक व्यक्ति के रूप में उनके योगदान की बात करें, तो उनका एक बड़ा योगदान उनकी भाषा है- जो भाषा उन्होंने अर्जित की, जो भाषा उन्होंने गढ़ी. वह है विलक्षण आलोचना की भाषा. हमें यह भी पता है कि हम सब का, जो साहित्य के पाठक हैं, काम नामवर सिंह के बिना नहीं चलता है.

नयी रचनात्मक आलोचना की लीक बनायी

प्रेम भारद्वाज

संपादक, पाखी

नब्बे के नामवर को उस तरह से नहीं देखा जा सकता, जिस तरह उनके अनुज काशीनाथ सिंह ने अपने नवीनतम उपन्यास उपसंहार में अकेले बेबस श्रीकृष्ण को देखा है. ‘ढलता सूरज’ दिन का पूरा सच नहीं होता, शाम के पहले सुबह और दोपहर भी दिन के हिस्से होते हैं. नब्बे के मोड़ पर आज भी सीधे खड़े नामवर को समझने के लिए उनके जीवन, लेखन और हिंदी साहित्य के भी पुराने पन्ने पलटने होंगे. पुराने पन्ने जर्द जरूर पड़ जाते हैं, मगर उन पर अक्षरों की चमक और महत्ता को लमहों की गर्द कभी भी धुंधला नहीं पाती है. उदाहरणस्वरूप कालिदास, शेक्सपियर, कबीर, तुलसी से लेकर प्रेमचंद, निराला के दृष्टांत हमारे सामने हैं. आज हम जिस नामवर को देखते-जानते हैं, वे पिछले छह दशक से हिंदी साहित्य में बतौर शिखर केंद्र में हैं, किसी वट वृक्ष की तरह उनकी जड़ें हिंदी साहित्य की धरती में बेहद गहरे फैली हुई हैं, जो ऊपरी तौर पर नजर नहीं आतीं.

प्रारंभ से ही उनका जीवन एक शब्द अरण्य में एक तपस्वी सरीखा रहा है. 1941 में गांव छोड़ा और 1942 में शादी. तीन साल बाद पुत्र विजय का जन्म. कबीर-तुलसी की तरह इनको भी परिवार का विधिवत सुख नहीं मिला. बनारस में उन्होंने कर्ण की तरह युद्ध किया. काशी ही उनका कुरुक्षेत्र बना. युद्ध भी अपने हिंदी साहित्य के लोगों से ही किया. जिस तरह वे ताउम्र एक तनी हुई रस्सी पर चलते रहे, लोगों को उनका रस्सी पर डोलना-चलना नजर आया, लेकिन जोखिम भरे संतुलन में छिपा उनका दर्द नजर नहीं आया.

इस हकीकत को दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी आलोचना की बनी त्रयी- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ रामविलास शर्मा के बाद सर्वमान्य रूप से जो नाम लिया जाता है, वह नामवर सिंह का ही है. हिंदी के सृजन संसार पर उनकी गहरी नजर और पकड़ है. नामवर सिंह ने आलोचना में पुरानी अवधाराणओं-स्थापनाओं के बाद तब एक नयी लकीर खींची, जब लोग आमतौर पर राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश में ही नयी कहानी को सिमटा मान रहे थे. नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ को रेखांकित करते हुए उसे नयी कहानी की पहली कहानी माना. जब छायावाद की छाया में हिंदी आलोचना उलझी थी, तब मात्र 27 साल की उम्र में ‘छायावाद’ पुस्तक लिख कर नामवर ने खलबली मचा दी. तब विश्वविद्यालय की दुनिया में नंद दुलार वाजपेयी और डॉ नागेंद्र जैसे छायावाद के पक्षधर काव्य सौष्ठववादी आलोचकों का दबदबा था. ‘छायावाद’ की मौजूद व्याख्याओं में उनसे पहले जिन विशेषताओं का जिक्र किया जाता था, नामवर ने उनको ही निशाने पर लिया. उसी उम्र में इतिहास और आलोचना के जरिये उन्होंने साबित किया कि वे कितने रचनात्मक, मौलिक और दृष्टिसंपन्न हैं. अज्ञेय के बाद हिंदी साहित्य में शायद नामवर को ही लोकप्रियता मिली और आलोचना भी उन्हें ही झेलनी पड़ी.

नयी कविता के तिलिस्म को उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कविता के नये प्रतिमान’ में मुक्तिबोध को केंद्र में रख कर तोड़ा. उनकी आलोचना की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने काफी हद तक हिंदी आलोचना की पुरानी पटरी छोड़ कर नयी रचनात्मक आलोचना की लीक बनायी. अगर उनके गुरु आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन में लोक तत्व प्रमुख रहा, तो नामवर ने भी प्रगतिशीलता के साथ परंपरा को प्राण की तरह अनिवार्य माना. इसीलिए भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ को नामवर सिंह ने प्रेमचंद की संवेदना का दूसरा कोट कहा था. उनका यह कहना परंपरा के महत्व को प्रतिष्ठित करता है. उनकी पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में भी परंपरा का बोध और परंपरा की खोज दोनों ही हैं.

नामवर सिंह के लेखकीय व्यक्तित्व के कई रूप हैं. काशी में साहित्य आलोचना के क्षेत्र में अपने लिए जगह बनाते अथक योद्धा, काशी विश्वविद्यालय व सागर विश्वविद्यालय में गरल पीनेवाले नीलकंठ, आलोचना पत्रिका के जरिये हिंदी साहित्य को कई आलोचक दिये, जेएनयू में लोकप्रिय प्रोफेसर बने, और फिर लिखना छोड़ वार्षिक परंपरा को प्रतिष्ठित कर नये ऋषि के रूप में गोष्ठियों के केंद्र बने रहे. रचनाकारों के सिर पर हाथ रख कर उनको सुर्खियों में लाने का उनका जादू अब भी कायम है.

तमाम असहमातियों और नापसंदगी के बावजूद अधिकतर लेखकों की चाहत होती है कि नामवर सिंह उनकी कृति पर कुछ बोल या लिख दें. नामवर सिंह के पहले भी आलोचना की परंपरा थी. और इनके बाद भी आलोचना रहेगी. विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे दिग्गज आलोचक कबूलते हैं कि उन जैसे कई शीर्ष आलोचक नामवर सिंह की जेब से निकले हैं. आज नामवर सिंह नब्बे की उम्र में सक्रिय बने हुए हैं, हिंदी साहित्य की गोष्ठियों और साहित्य समाज में सरगोशियां हैं कि नामवर के बाद कौन? यह ऐसा प्रश्न है, जिसका जवाब हमें चिंता में डाल देता है.

नामवर सिंह : परिचय

जन्म : 28 जुलाई, 1927, जीयनपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश).

शिक्षा : काशी विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए एवं पीएचडी.

पुस्तकें : बकलम खुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, पृथ्वीराज रासो की भाषा, छायावाद, इतिहास और आलोचना, कहानी नयी कहानी, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद.

सम्मान और पुरस्कार : साहित्य अकादमी पुरस्कार (1971), हिंदी अकादमी, दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’ (1991), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘साहित्य भूषण सम्मान’ (1993).

काशीनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और अपूर्वानंद का लेख, प्रीति सिंह परिहार से बातचीत पर आधारित

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