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पड़ोस में राजनीति : नेपाल में जल्दी ही प्रचंड के नेतृत्व में नयी सरकार, आसान नहीं स्थिरता स्थापित करना

नेपाल में नयी सरकार बननेवाली है. हमेशा की तरह देश की आंतरिक स्थिति और पड़ोसियों, खासकर भारत और चीन, के साथ संबंधों को लेकर अनिश्चितता का माहौल है. मधेस और अन्य समुदायों की शिकायतें बरकरार हैं और भारत के साथ तनाव भी कायम है. नेपाल में स्थिरता दक्षिण एशिया में शांति की जरूरी शर्तों में […]

नेपाल में नयी सरकार बननेवाली है. हमेशा की तरह देश की आंतरिक स्थिति और पड़ोसियों, खासकर भारत और चीन, के साथ संबंधों को लेकर अनिश्चितता का माहौल है. मधेस और अन्य समुदायों की शिकायतें बरकरार हैं और भारत के साथ तनाव भी कायम है. नेपाल में स्थिरता दक्षिण एशिया में शांति की जरूरी शर्तों में से एक है. मौजूदा परिदृश्य पर एक विश्लेषणात्मक प्रस्तुति आज के इन-दिनों में…
कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट-सेंटर) के प्रमुख पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने बीते तीन सालों में बड़ी कुशलता से खुद को नेपाली कांग्रेस (एनसी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल- मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट (यूएमएल) के बीच की जगह में स्थापित कर लिया है. वर्ष 2013 के चुनाव में तीसरे स्थान पर रहने के बावजूद अब वे दूसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बन सकते हैं.
उनकी राजनीतिक चतुराई इस तथ्य से भी साबित होती है कि उन्होंने भारत के साथ अपने तनावपूर्ण संबंधों को काफी हद तक सुधार लिया है. लेकिन, राजनीतिक स्थिति सामान्य बनी रही, तो बतौर प्रधानमंत्री उनके पास महज नौ महीने ही होंगे. इस अवधि के बाद उन्हें नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा को सत्ता सौंप देना होगा, जो अगले चुनाव तक पद पर रहेंगे. नेपाल टाइम्स के अनुसार, बुधवार को अपनी पार्टी की एक बैठक में उन्होंने कहा कि ‘यह मेरा आखिरी मौका है’. अखबार का अनुमान है कि प्रचंड की नजर अगले साल होनेवाले तीन चुनावों पर है और वे ट्रुथ एंड रिकौंसिलिएशन कानून को प्रभावित करना चाहते हैं.
नेपाली राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने सर्वसम्मत सरकार पर सहमति बनाने के लिए एक सप्ताह का समय दिया है. दहल यूएमएल के नेताओं से मिल रहे हैं, पर पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह नयी सरकार में शामिल नहीं होगी और सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते अपनी सरकार का गठन करेगी. सहमति नहीं बनने की स्थिति में, जो कि निश्चित ही है, राष्ट्रपति दहल के नेतृत्व में बहुमत की सरकार बनाने के लिए तीन दिन का समय देंगी. नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष देउबा के प्रधानमंत्री बनने में अभी कुछ देर है, लेकिन उनकी पार्टी को नयी सरकार में कई अहम मंत्रालयों की जिम्मेवारी मिलेगी.
दोनों पार्टियों की परस्पर सहमति के अनुसार, नौ महीने के बाद प्रचंड प्रधानमंत्री पद देउबा को सौंप देंगे जो प्रांतीय और संसदीय चुनावों तक यह जिम्मेवारी निभायेंगे. जब पिछले साल अगस्त के महीने में केपी ओली देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब नेपाल भूकंप की भयानक तबाही से गुजर रहा था. कुछ दिनों के बाद नये संविधान में उपेक्षा को लेकर तराई का इलाका भी सुलग चुका था. हिंसक आंदोलन और अराजकता के कारण भारत से जरूरी चीजों की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हुई थी. नेपाल ने भारत पर आर्थिक नाकेबंदी का आरोप लगाया था, पर भारत ने इस आरोप को नकार दिया था. हिंसक आंदोलन और पुलिस की गोलीबारी में 50 से अधिक लोग मारे गये थे.
ओली ने भारत से संबंध बेहतर करने की कोशिशें कीं, पर चीन के साथ उनकी व्यापारिक संधि ने इस प्रयास को काफी प्रभावित किया. भूकंप पीड़ितों का समुचित पुनर्वास न कर पाने और सुशासन देने में विफल रहे प्रधानमंत्री ने राष्ट्रवाद की भरपूर आड़ लेने की कोशिश की. पर्यवेक्षकों का मानना है कि फिलहाल केपी ओली के हाथ से सत्ता की बागडोर भले छूट गयी हो, और भारत को इससे संतोष मिला हो, पर सत्ता के खेल में वे मजबूत होकर उभरे हैं और वापसी के लिए देशभक्ति का पत्ता लोगों के सामने खेल सकते हैं.
मधेसियों की चिंताएं
पिछले साल जुलाई से ही मधेसी, थारू और अन्य जनजातियां अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए विरोध कर रही हैं. नये संविधान का एक प्रमुख भेदभावपूर्ण प्रावधान सात संघीय प्रांतों का परिसीमन है. यह प्रावधान 2006 के जनांदोलनों के बाद सात-दलीय गठबंधन और माओवादियों के बीच तथा सरकार और मधेसी, थारू एवं विभिन्न जनजातियों के बीच हुए अनेक समझौतों की शर्तों और भावना के विपरीत है. राज्य संख्या दो को छोड़कर अन्य छह प्रांतों का परिसीमन इस तरह से किया गया है कि पहाड़ी उच्च जातियों का बहुमत हो गया है.
मधेसी और थारू समुदाय तराई-मधेस इलाके में दो स्वायत्त प्रांतों के गठन की मांग कर रहे हैं. यदि तराई-मधेस इलाके के तीन पूर्वी और नौ पश्चिमी जिलों को पहाड़ी प्रांतों में शामिल करने की जगह इस क्षेत्र के दो प्रांतों में जोड़ दिया जाये, तो इससे न सिर्फ मधेस और थारू समुदायों को, बल्कि राइ, लिंबू, मगर और गुरुंग समाजों को भी शासन में जगह मिलना सुनिश्चित हो जायेगा. अगर ऐसा हुआ, तो विभिन्न प्रांतों में पहाड़ी उच्च जातियों तथा अन्य समुदायों की संख्या लगभग बराबर हो जायेगी. संविधान में व्यवस्था है कि हर प्रांत राष्ट्रीय सभा में आठ निर्वाचित सदस्य भेजेगा.
ऐसे में प्रांत संख्या छह और सात, जिसकी जनसंख्या करीब चार लाख है, आठ-आठ प्रतिनिधि भेजेंगे तथा लगभग साढ़े पांच लाख आबादीवाला प्रांत संख्या दो के भी आठ सदस्य होंगे. प्रतिनिधित्व की यह विषमता भेदभावपूर्ण है. विरोधियों की मांग है कि प्रतिनिधियों की संख्या का निर्धारण प्रांतों की आबादी के आधार पर किया जाना चाहिए.
टकराव का दूसरा कारण राजकीय भाषा के सवाल से जुड़ा है. संविधान में नेपाली को संघीय सरकार की राजकीय भाषा का दर्जा दिया गया है और प्रांतों में सबसे अधिक बोली जानेवाली एक या दो भाषाओं को राजकीय भाषा बनाने का प्रावधान किया गया है. ऐसे में नेपाली के वर्चस्व के बरकरार रहने की संभावना बढ़ गयी है.
इसके परिणामस्वरूप 30 लाख से अधिक लोग अपनी मातृभाषा छोड़ नेपाली अपनाने पर बाध्य हो चुके हैं.गैर-पहाड़ी समुदायों की एक बड़ी चिंता उच्च संवैधानिक पदों पर नियुक्ति को लेकर है. संविधान में प्रावधान किया गया है कि जन्म से अधिकृत नागरिकों को ही इन पदों को ग्रहण करने का अधिकार होगा. तराई-मधेस इलाकों और सीमावर्ती भारतीय राज्यों के लोगों के बीच सांस्कृतिक संबंध होने के कारण शादी-विवाह भी खूब होते हैं. ऐसे में ज्यादातर नेचुरलाइज्ड नागरिक इन्हीं इलाकों से हैं. इस कारण इस प्रावधान का भी विरोध हो रहा है.
भारत का नेपाल के साथ शीत युद्ध का दौर
आनंद स्वरूप वर्मा
संपादक, समकालीन तीसरी दुनिया
पिछले वर्ष सितंबर में नेपाल के नये संविधान के जारी होने के साथ भारत और नेपाल के बीच जिस शीत युद्ध की शुरुआत हुई थी, उसका एक चरण बीते 24 जुलाई को प्रधानमंत्री केपी ओली के इस्तीफे के साथ पूरा हो गया. भारत सरकार ने राहत की सांस ली और मन ही मन नेकपा (माओवादी केंद्र) के नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के प्रति आभार जताया. प्रचंड की छवि नेपाली जनता के दिलो-दिमाग में एक ऐसे क्रांतिकारी की रही है, जिसके बारे में यह विश्वास के साथ कहा जाता था कि उन्होंने भारत के प्रभुत्ववादी रवैये का हमेशा विरोध किया और नेपाल की संप्रभुता को सम्मान दिलाया. ओली के त्यागपत्र प्रसंग ने प्रचंड के इस मिथ को तोड़ दिया.
पिछले लगभग 10 महीनों से एक अदृश्य से तनाव और तिलमिलाहट से ग्रस्त मोदी सरकार को न केवल ओली से छुटकारा मिला, बल्कि एक ऐसे नेता की छवि को भी मटियामेट करने का सुख मिला है, जिसे अब फिर अपने पुराने रूप में लौटने में काफी समय लग सकता है.
मोदी सरकार ने अत्यंत धीरज और कौशल के साथ नेपाल की इस रणनीति को अमली रूप दिया और भारतपरस्त कही जानेवाली नेपाली कांग्रेस के नेता शेरबहादुर देउबा को मोर्चे पर न लाकर पिछली कतार में रहने का सुझाव दिया. मोर्चा संभालने की जिम्मेवारी प्रचंड को सौंप दी, जो न केवल अपनी महत्वाकांक्षा से संचालित हो रहे थे, बल्कि जनयुद्ध के दौरान घटित ‘अपराधों’ की परछाई भी उनके ऊपर मंडरा रही थी.
भारत के रवैये से नेपाली जनता नाखुश
2014 मंे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा के बाद दोनों देशों के संबंधों को लेकर जो उत्साह का वातावरण बना था, वह सितंबर 2015 में संविधान जारी होने के समय पूरी तरह तनाव में तब्दील हो गया था. वैसे, भूकंप के दौरान भारत से गयी सहायता टीमों के रवैये से नेपाली जनता खुश नहीं थी और सितंबर आते-आते इस स्थिति में और तीव्रता आ गयी.
इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है कि किस तरह हमारे विदेश सचिव जयशंकर प्रधानमंत्री मोदी का संदेश लेकर 18 सितंबर 2015 को काठमांडो गये और वहां के राजनेताओं से उन्होंने कहा कि संविधान जारी करने का काम अभी टाल दिया जाये. उनकी मनाही के बावजूद संविधान जारी हुआ, लेकिन जारी होने के अगले ही दिन यानी 21 सितंबर को नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी कर दी गयी. नेपाल ने इसके लिए भारत को जिम्मेवार ठहराया, जबकि भारत का कहना था कि यह मधेस के आंदोलनकारियों ने किया है. धीरे-धीरे यह बात भी साफ हो गयी कि नाकाबंदी 21 सितंबर को शुरू हुई, जबकि आंदोलनकारी 23 सितंबर से धरने पर बैठे. इस सारी प्रक्रिया में उन लोगों ने भी भारत सरकार की भर्त्सना की जो मधेस के आंदोलनकारियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे.
ओली को लेकर भारत की राय
भारत सरकार ने कभी नहीं चाहा था कि केपी ओली प्रधानमंत्री बनें, लेकिन प्रचंड ने सभी पार्टियों के साथ बातचीत करके एक ऐसा वातावरण बनाया, जिसमें ओली प्रधानमंत्री बन सके.
उन्हें प्रधानमंत्री बनते ही नाकाबंदी से उत्पन्न समस्याओं से जूझना पड़ा और इसमें प्रचंड ने बराबर उनका साथ दिया. नाकाबंदी के दो दिन बाद ही काठमांडो में आयोजित एक विशाल सभा में प्रचंड ने काफी तीखे स्वरों में कहा- ‘हम भारत के मित्र बन कर रह सकते हैं, ‘यस मैन’ बन कर नहीं’. नेपाली जनता ने भी तय कर लिया कि वह सारी मुसीबतें झेल लेगी, लेकिन भारत के सामने झुकेगी नहीं. परिस्थितियां ऐसी बनी कि मधेस को छोड़ कर समूचा नेपाल भारत-विरोधी मानसिकता से संचालित होने लगा. ऐसे में जब प्रधानमंत्री ओली ने मदद के लिए अपने दूसरे पड़ोसी चीन की ओर हाथ बढ़ाया, तो सबने इसका स्वागत किया- प्रचंड ने भी.
नेपाल के लिए चीन कभी भी भारत का विकल्प नहीं हो सकता
ओली हों या प्रचंड या खुद चीन- सबको पता है कि व्यापार के मामले में चीन कभी भी भारत का विकल्प नहीं हो सकता है. इसकी न केवल सांस्कृतिक और सामाजिक वजहें हैं, बल्कि भौगोलिक कारण भी है, जो बहुत महत्वपूर्ण है. नेपाल तीन तरफ से भारत से घिरा है और इसकी खुली सीमा है.
उत्तर में चीन की सीमा है, जो अत्यंत दुर्गम पर्वत शृंखला से भरी है और जहां की जलवायु भी व्यापार की दृष्टि से अत्यंत प्रतिकूल है. तो भी चीन की मदद से नेपाल अपना इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसा तैयार कर सकता है, जिससे कुछ वर्षों बाद वह एक हद तक आत्मनिर्भर हो सके. ओली के इन कदमों से भारत की नाराजगी और भी ज्यादा बढ़ गयी.
भारत और नेपाल के बीच तनाव
इस वर्ष मार्च में प्रधानमंत्री ओली ने चीन की यात्रा की और चीन के साथ कई समझौतों पर दस्तखत किये. इस घटना ने भारत सरकार को काफी सतर्क कर दिया, क्योंकि इन समझौतों में एक समझौता यह भी था कि तिब्बत से काठमांडो तक रेललाइन तैयार की जाये और इसे लुम्बिनी तक लाया जाये.
भारत और नेपाल के बीच तनाव इस हद तक बढ़ता गया कि मई में नेपाल सरकार ने अपनी राष्ट्रपति विद्या भंडारी की भारत यात्रा रद्द कर दी, जो सिंहस्थ कुंभ मेले के लिए तय हुई थी. इसी तरह इसी साल 21 मई को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी की पूर्व निर्धारित लुम्बिनी यात्रा भी रद्द हो गयी. प्रधानमंत्री ओली ने भारत स्थित नेपाली राजदूत दीप प्रसाद उपाध्याय को उनके पद से यह आरोप लगा कर हटा दिया कि वह नेपाली कांग्रेस के साथ मिल कर ओली सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं.
5 मई को पहली बार प्रचंड ने केपी ओली की सरकार से अचानक समर्थन वापस लेने की घोषणा की और कहा कि नेपाली कांग्रेस के शेरबहादुर देउबा और मधेसी मोर्चा के नेताओं से उनकी बातचीत हो चुकी है कि आम राष्ट्रीय सहमति की सरकार का गठन किया जाये. यह नेपाल के हित में है. लेकिन 48 घंटे के अंदर ही उन्होंने ओली सरकार को फिर समर्थन दे दिया. बताया जाता है कि भारत सरकार के कहने से समर्थन वापस लिया था और चीन के दबाव पर दोबारा समर्थन दे दिया.
ओली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव
प्रचंड ने ओली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि इस सरकार ने जनता से किये गये किसी वायदे को पूरा नहीं किया. यहां सवाल यह पैदा होता है कि सरकार संचालन के लिए जो उच्च स्तरीय राजनीतिक संयंत्र बना था, उसके प्रमुख प्रचंड थे. क्या उन्होंने ओली को एक बार भी सार्वजनिक तौर पर कोई चेतावनी दी? क्या उन्होंने इस संयंत्र की एक बार भी बैठक बुलायी?
अभी प्रचंड के प्रमुख सहयोगी और संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस के नेता देउबा ने कहा है कि नयी सरकार का मुख्य काम संविधान को लागू करना होगा. जिस संविधान को लेकर भारत ने इतना हो-हल्ला मचाया, उसे लागू करने की बात वे लोग कर रहे हैं, जिन्होंने भारत के इशारे पर ओली सरकार को गिराया है- यह अपने आप में अत्यंत हास्यास्पद है.
नेपाल का हालिया राजनीतिक घटनाक्रम
20 सितंबर, 2015 – बहुत समय से लंबित नेपाली संविधान को नेपाली संविधान सभा में 507 सदस्यों के समर्थन के साथ सहमति. सभा के 598 सदस्यों में से 66 ने मतदान में हिस्सा न लेकर अपना विरोध दर्ज किया. इस दिन तक कतिपय प्रावधानों के विरोध में तराई क्षेत्र में चल रहे हिंसक आंदोलन में आठ पुलिसकर्मियों समेत 40 लोगों की मौत हो चुकी थी.
इस आंदोलन में मधेसी, जनजाति और थारू समुदाय के लोग शामिल थे. मधेसियों की मांग थी कि सरकार मधेसी पार्टियों के साथ 2008 में हुए समझौते को लागू करे जिसमें तराई में ‘पूर्ण स्वायत्त’ संघीय प्रांतो के गठन पर सहमति बनी थी.
23 सितंबर, 2015 – प्रमुख अंगरेजी अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक रिपोर्ट में दावा किया कि भारत ने नेपाली सरकार को नये संविधान में संशोधन करने को कहा था और कुछ प्रावधानों की सूची भी सौंपी थी. भारत सरकार ने इस रिपोर्ट की बातों का खंडन किया और नेपाल में हिंसा समाप्त कर बातचीत के द्वारा विवादित मसलों को सुलझाने का आग्रह किया. इसी दिन से भारत से सामानों की आपूर्ति बंद हो गयी और सीमा से सटे नेपाली इलाकों में बंद का आह्वान किया गया. नेपाल ने भारत पर आरोप लगाया कि वह मधेसी आंदोलन को सक्रिय समर्थन दे रहा है और जान-बूझ कर नेपाल के अंदर जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति रोक रहा है. नेपाल ने इस मामले को संयुक्त राष्ट्र के सामने भी रखा.
01 अक्तूबर, 2015 – भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने आधिकारिक तौर पर इन आरोपों को खारिज कर दिया और संकट को नेपाल की अस्थिरता का परिणाम बताया. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने कहा कि भारतीयों ट्रकों को नेपाल की सीमा में सुरक्षा देने की जिम्मेवारी नेपाली सरकार की है.
06 अक्तूबर, 2015 – मधेसी राजनीतिक पार्टी नेपाल सद्भावना पार्टी ने संकट के लिए भारत को जिम्मेवार ठहराने के लिए नेपाली मीडिया और सरकार की आलोचना की.
28 अक्तूबर, 2015 – ईंधन के संकट को दूर करने के लिए नेपाल ने चीन से व्यापारिक समझौता किया.
25 नवंबर, 2015 – भारतीय सशस्त्र सीमा बल ने कथित रूप से तस्करी कर रहे है चार मधेसी युवाओं को मार दिया. नेपाल ने इसकी निंदा करते हुए कहा कि ये युवक खाने-पीने का सामान ला रहे थे. नेपाली पुलिस ने अपनी सीमा के भीतर 13 भारतीय सुरक्षाकर्मियों को गिरफ्तार किया.
05 फरवरी, 2016 – असंतुष्ट समुदायों की मांगों पर विचार करने के सरकार के वादे के बाद मधेसी आंदोलन समाप्त.
19 फरवरी, 2016 – प्रधानमंत्री केपी ओली छह दिवसीय दौरे पर भारत पहुंचे.
04 मई, 2016 – माओवादी नेता प्रचंड ने ओली सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा की.
24 जुलाई, 2016 – केपी ओली ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दिया.
28 जुलाई, 2016 – भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने कहा कि नेपाल में नेतृत्व परिवर्तन उस देश का आंतरिक मामला है तथा भारत इससे न तो खुश है, और न ही दुखी. स्वरूप भारतीय मीडिया में छपी रिपोर्टों पर अपनी टिप्पणी दे रहे थे जिनमें कहा गया है कि ओली के इस्तीफे से भारत खुश है.
29 जुलाई, 2016 – निवर्तमान प्रधानमंत्री केपी ओली ने अप्रत्यक्ष रूप सेभारत पर निशाना साधते हुए बयान दिया कि ‘पड़ोसी ने नेपाल की नींद खराब कर दी है’. उन्होंने यह भी कहा कि उनके कार्यकाल में चीन से हुए समझौतों को वे रद्द नहीं होने देंगे. केपी ओली ने एक बार फिर भारत को आर्थिक नाकेबंदी के लिए दोषी ठहराया.

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