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बाल दिवस : बच्चों की दयनीय दशा, समुचित निवेश की जरूरत

बेहाल और परेशान हैं भारतीय बच्चे आज जब हम बाल दिवस के अवसर पर देश के नौनिहालों की मुश्किलों को दूर कर उनके लिए एक बेहतर भविष्य की कोशिश का संकल्प ले रहे हैं, तब हमें अपनी मौजूदा असफलताओं और चुनौतियों की पड़ताल जरूर करनी चाहिए. बच्चों के अच्छे हालात के लिहाज से भारत दुनिया […]

बेहाल और परेशान हैं भारतीय बच्चे
आज जब हम बाल दिवस के अवसर पर देश के नौनिहालों की मुश्किलों को दूर कर उनके लिए एक बेहतर भविष्य की कोशिश का संकल्प ले रहे हैं, तब हमें अपनी मौजूदा असफलताओं और चुनौतियों की पड़ताल जरूर करनी चाहिए. बच्चों के अच्छे हालात के लिहाज से भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में से एक है.
यदि इस स्थिति में सकारात्मक बदलाव न हुआ, तो न सिर्फ बच्चों का आनेवाला कल त्रासद होगा, बल्कि देश भी अपनी आशाओं और आकांक्षाओं को फलीभूत नहीं कर सकेगा. इस महत्वपूर्ण अवसर पर बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य समेत अन्य मसलों पर आंकड़ों और विश्लेषण पर आधािरत िवशेष प्रस्तुति…
कोमल गनोत्रा
निदेशक- पॉलिसी, रिसर्च एंड एडवोकेसी, चाइल्ड राइट्स एंड यू
मौजूदा भारत में बच्चों के विकास की जो परिस्थिति है, वह बहुत सकारात्मक नहीं है. एक तरफ तो हम बहुत विकसित हो रहे हैं, बच्चों को पढ़ाने की नयी-नयी तकनीक आ गयी है, लेकिन जब यह बात आती है कि क्या हम हर बच्चे को वही शिक्षा, वही स्वास्थ्य दे पा रहे हैं, तो इस मामले में हम कुछ पीछे हैं. देश में बदलाव हुआ है, लेकिन वह बदलाव हर बच्चे तक नहीं पहुंच पा रहा है, मौजूदा भारत के बचपन को लेकर यह एक चिंता का विषय है. आज भी गांवों में एक बच्चे के जन्म के बाद उसके पंजीकरण के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है.
आज भी हम शिशु मृत्यु दर को कम करने में उतने कामयाब नहीं हुए हैं, जितना कि होना चाहिए. आज भी छठवीं-सातवीं के बच्चे सही-सही किताबें पढ़ने में अक्षम पाये जाते हैं. ऐसे में जहां हम सकारात्मक रूप से यह देखते हैं कि देश में विकास हुआ है, लेकिन वहीं हम यह भी देखते हैं कि हमने बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए जो निवेश किया है, वह बहुत ही न्यूनतम राशि है. ऐसे में हर बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए हमें एक लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा.
स्वस्थ और शिक्षित बचपन के बिना किसी भी देश का विकास संभव नहीं है, क्योंकि ये बच्चे ही आगे चल कर विकसित देश की तसवीर बनाते हैं. अगर इनकी बुनियाद ही कमजोर होगी, तो फिर आगे के भविष्य के बारे में बहुत सकारात्मक तो नहीं सोचा जा सकता. समाज और सरकार सिर्फ 14 साल तक के बच्चों को बच्चा मानती है, इसलिए आज 15 साल के 65 मिलियन बच्चे काम कर रहे हैं.
मेरी नजर में जब तक वह बालिग (18 वर्ष) न हो जाये, तब तक उसे बच्चे के वर्ग में ही रखना चाहिए. हमारा सारा निवेश 14 साल तक के बच्चों के लिए है, जिसे मैं मानती हूं कि 18 साल तक होना चाहिए. हमारे बच्चे हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और आज का बच्चा कल का व्यक्ति है.
अगर हम बचपन पर ज्यादा निवेश नहीं करेंगे, तो उसके व्यक्ति बनने के रूप में उसका फलन भी ज्यादा नहीं पायेंगे. बच्चों के लिए जितने अधिकार तय किये गये हैं, वे सारे अधिकार अगर उन्हें मिलें, तो वे अपनी काबिलियत और क्षमता का सही इस्तेमाल कर पायेंगे. मेरे ख्याल में एक खुशहाल बचपन के लिए कुछ बच्चों से लेकर सभी बच्चों तक हर अधिकार और बुनियादी चीजों की उपलब्धता बहुत जरूरी है.
जिस तरह से चाचा नेहरू या अबुल कलाम आजाद बच्चों के प्रति अपने स्नेह को व्यक्त करते थे, ऐसा आज के समय के नेता भी करते हैं या नहीं, ऐसा कहना बहुत मुश्किल है. नेहरू जिस तरह से बच्चों की समझ के स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करते थे, वैसा तो आज मुश्किल है.
लेकिन, हम यह देख सकते हैं कि जब संसद में लेबर बिल पास हो रहा था, तब कुछ सांसदों ने बच्चों के अधिकार को लेकर बहुत ही छोटे-छोटे मुद्दों पर बातें की. इससे यह तो समझ में आता है कि बच्चों के प्रति उनकी संवेदनशीलता है, लेकिन बच्चों से स्नेहपूर्वक वार्तालाप एक अलग चीज है. अच्छाई हर जगह कुछ न कुछ होती ही है और हर जगह बच्चों को देखनेवाले लोग होते हैं. बच्चों के अधिकार के लिए कई याचिकाएं सांसदों ने डाली हैं. लेकिन, यहां एक बात कहना जरूरी है कि आज के दौर में नेताओं में बच्चों के प्रति स्नेह इसलिए भी नहीं पनपता, क्योंकि बच्चे वोट बैंक नहीं हैं. यही वजह है कि नेताओं का बच्चों के प्रति व्यक्तिगत स्नेह उभर कर सामने नहीं आ पाता है.
एक विकसित भारत के लिए एक खुशहाल बचपन का होना बहुत जरूरी है. और खुशहाल बचपन के लिए दो चीजें बहुत जरूरी हैं. एक शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य. हमारे देश में 14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार है.
यह अच्छी बात है. हालांकि, आज तक हम यही मानते आये हैं कि छह साल की उम्र से शिक्षा शुरू होती है. यही वजह है कि ऐसी खबरें आती हैं कि आठ साल का बच्चा सही से लिख भी नहीं पाता. दरअसल, मेरे ख्याल में बच्चों का लिखना छह साल से भले शुरू हो, लेकिन उनकी पढ़ाई और सीखने-समझने की प्रक्रिया तीन साल से ही शुरू हो जानी चाहिए. लेकिन, भारत ने आज तक तीन से छह साल के बच्चों पर कोई विचार या रुचि ही नहीं दिखायी. यह बहुत जरूरी है बच्चों के विकास और एक खुशहाल बचपन के लिए. एक और बात यह है कि हमने छह से चौदह साल के बच्चों के लिए स्कूल तो खूब बनाये हैं, लेकिन उनकी गुणवत्ता पर आज भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
हमारे देश में 15 से 18 के बीच की उम्र के 33 मिलियन बच्चे काम करते हैं, यानी इस उम्र समूह का हर पांचवां बच्चा काम कर रहा है. ऐसे में यह कैसे संभव है कि एक विकसित भारत की नींव के लिए हम कुछ बेहतर कर पायेंगे. अगर कोई देश इतने बच्चों को पढ़ा नहीं सकता, तो फिर सवाल उठना लाजमी है कि आखिर हम विकास की किस अवधारणा के पीछे भाग रहे है.
दूसरा मसला बच्चों के स्वास्थ्य का है. आज भी दूर-दराज के हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों और स्वास्थ्य सुविधाओं की समस्याएं हैं. शिशु मृत्यु दर अब भी एक समस्या बनी हुई है. इस मामले में हम बहुत पीछे हैं और आगे आये बिना खुशहाल बचपन की कल्पना नहीं की जा सकती है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
निराशाजनक हो सकती है तसवीर
बच्चों की दशा को सुधारने के लिए यदि दुनियाभर में पर्याप्त और समुचित प्रयास नहीं किये गये, तो वर्ष 2030 तक उनकी दशा बेहद खराब हालत में पहुंच सकती है. यूनिसेफ ने अपनी हालिया रिपोर्ट में जो आंकड़े दर्शाये हैं, वे इस लिहाज से भयावह हैं.
16.7 करोड़ बच्चे दुनियाभर में घनघोर गरीबी में जीने को होंगे अभिशप्त.
6.9 3 है पांच वर्ष से कम उम्र समूह के वर्ष 2016 से 2030 के बीच.
6 करोड़ बच्चे, जो प्राथमिक स्कूल में जाने की उम्र के होंगे, स्कूलों से बाहर होंगे यानी अनेक कारणों से वे प्राथमिक शिक्षा से वंचित हो सकते हैं.
दुनियाभर में बच्चों की मौजूदा दशा
16,000 बच्चे रोजाना काल के गाल में समा जाते हैं दुनियाभर में, जिनमें से ज्यादातर का निधन उन बीमारियों से होता है, जिनका इलाज मुमकिन है और उन्हें बचाया जा सकता है.
23 करोड़ बच्चों का वजन कम है यानी वे कुपोषण का शिकार हैं पांच वर्ष से कम उम्र समूह में दुनियाभर में और आधिकारिक तौर पर इनका कोई रिकॉर्ड दर्ज नहीं होता.
20 लाख से ज्यादा संख्या है 10 से 19 वर्ष के उम्र समूह में एचआइवी से पीड़ितों संख्या दुनियाभर में, जिसमें करीब 56 फीसदी बालिकाएं हैं.
(स्रोत : यूनिसेफ)
चाइल्ड ट्रैफिकिंग के चंगुल में बच्चे
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक, चाइल्ड ट्रैफिकिंग एक प्रकार से बच्चे को उसके सुरक्षात्मक माहौल से निकाल कर अपने किसी अन्य मकसद के लिए उसकी क्षमताओं का दोहन और उसका उत्पीड़न करना होता है. दुनियाभर में चाइल्ड ट्रैफिकिंग यानी बच्चों के अवैध व्यापार का मामला बढ़ता जा रहा है. गायब होनेवाले ज्यादातर बच्चे इसका शिकार बनते हैं.
नेशनल ह्यूमेन राइट्स कमीशन ने ऐसे बच्चों से बातचीत के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि एक राज्य से दूसरे राज्य में चाइल्ड ट्रैफिकिंग सामान्य घटना होती जा रही है.
25.9 फीसदी के साथ आंध्र प्रदेश में चाइल्ड ट्रैफिकिंग के सबसे ज्यादा मामले सामने आये.
15 फीसदी हिस्सेदारीय देखी गयी कर्नाटक की इस लिहाज से.
12.5 फीसदी बच्चे पश्चिम बंगाल से जुड़े पाये गये चाइल्ड ट्रैफिकिंग के शिकार.
12.3 फीसदी का जुड़ाव तमिलनाडु से देखा गया.
इसके अलावा भारत में इसके प्रमुख कारण निम्न हैं :
– गरीबी
– भोजन का अभाव
– वैश्वीकरण
– प्राकृतिक आपदाएं
– विकास की गतिविधियों के कारण होनेवाला विस्थापन
– नस्लीय और सांप्रदायिक संघर्ष
– सांस्कृतिक मानदंड और परंपराएं
– सामाजिक नजरिया
– बेहतर कानून व्यवस्स्था की कमी
– सरकार की असंवेदनशील नीतियां
– राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव.
भारत में बच्चों की दयनीय दशा आंकड़ों के आईने में
44.40 करोड़ है भारत में 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या, जो कुल आबादी का 37 फीसदी हिस्सा है.
शिक्षा की स्थिति
9.90 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं देशभर में यानी प्रत्येक चार में से एक बच्चा स्कूल से बाहर है.
32 फीसदी बच्चे ही अपनी स्कूल शिक्षा सही उम्र के भीतर पूरा कर पाते हैं देशभर में, डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन 2014-15 की रिपोर्ट के मुताबिक.
बाल श्रम है जारी
1.013 करोड़ बाल श्रमिक हैं देश में 5 से 14 वर्ष तक की उम्र के.
3.30 करोड़ बच्चों को देशभर में किसी-न-किसी तरीके का काम करना पड़ता है 5 से 14 वर्ष तक की उम्र समूह में.
बच्चों का उत्पीड़न
8 मिनट के अंतराल पर औसतन एक बच्चा गायब होता हे देश में, डिस्ट्रिक्ट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2014 के आंकड़ों के मुताबिक.
10 वर्षों के दौरान भारत में बच्चों के प्रति होनेवाले अपराध पांच गुना तक बढ़ चुके हैं, डिस्ट्रिक्ट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2014 के आंकड़ों के मुताबिक.
– दूसरा सबसे बड़ा कारण है बच्चों में आत्महत्या का परीक्षा में फेल होने का भय, एक्सीडेंट एंड स्यूसाइड डेथ्स इन इंडिया, 2014 के आंकड़ों के मुताबिक.
बच्चों का स्वास्थ्य
– भारत में बच्चों के स्वास्थ्य सूचक की दशा पूरी दुनिया के मुकाबले बेहद खराब है.
– आधे से अधिक बच्चों का जन्म अब भी घरों में ही होता है, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक.
54 फीसदी नवजातों का ही पूर्ण टीकाकरण
होता है देशभर में.
80 फीसदी बच्चे एनीमिया की चपेट में आते हैं तीन वर्ष से कम उम्र समूह के बीच.
60 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार
हैं देशभर में.
8.5 लाख बच्चों की मौत उनके एक साल पूरा करने से पहले
हो जाती है.
– एक-तिहाई से भी कम बच्चों को पर्याप्त पोषक आहार मिल पाता है देशभर में.
(स्रोत : भारत सरकार के विविध संबंधित विभाग और एजेंसियां)
भारत में बाल श्रमिकों की संख्या
बाल श्रमिकों की संख्या कुल लड़की लड़कियां
15 से 18 वर्ष तक 22,871,908 14,887,455 7,984,453
5 से 14 वर्ष तक 10,128,663 5,628,915 4,499,748
(स्रोत : भारत की जनगणना, 2011)
जन्म पंजीयन का ट्रेंड
जन्म का पंजीयन कराना प्रत्येक बच्चे का अधिकार है और उसकी पहचान का यह पहला स्टेप है. हालांकि, पिछले दशकों में इसमें तेजी आयी है, लेकिन अनेक तरह के इंतजामों के बावजूद देशभर में बड़ी संख्या में बच्चों के जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाता है, जो आगे चल कर इन बच्चों के लिए अनेक तरीके से परेशानी का सबब बन सकता है. जानते हैं जन्म पंजीयन में वर्षवार हुई बढ़ोतरी को :
नोट : इस लिहाज से बिहार और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बहुत कम प्रदर्शन देखा गया है. बिहार में जहां यह महज 57.4 फीसदी तक पहुंचा है, वहीं उत्तर प्रदेश में यह 68.6 फीसदी तक पहुंच पाया है.
(स्रोत : ऑफिस ऑफ द रजिस्ट्रार जनरल एंड सेंसस कमिश्नर, गृह मंत्रालय)

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