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पैंक्रिएटिक व कोलोन कैंसर से मिलेगी मुक्ति

खुशखबरी : कैंसर मुक्ति की दिशा में नयी खोज पश्चिम के देशों खासकर अमेरिका की तुलना में भारत में पैंक्रिएटिक कैंसर के मरीज कम हैं. भारत में इसके सबसे ज्यादा मरीज मिजोरम में देखने को मिल रहे हैं. इसके कारणों का ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है. हालिया शोध से पता चला है कि इम्यूनोथैरेपी […]

खुशखबरी : कैंसर मुक्ति की दिशा में नयी खोज
पश्चिम के देशों खासकर अमेरिका की तुलना में भारत में पैंक्रिएटिक कैंसर के मरीज कम हैं. भारत में इसके सबसे ज्यादा मरीज मिजोरम में देखने को मिल रहे हैं. इसके कारणों का ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है. हालिया शोध से पता चला है कि इम्यूनोथैरेपी के जरिये इस कैंसर को भी जीता जा सकता है. पढ़िए एक रिपोर्ट.
वर्ष 2011 में जब एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स की मृत्यु हुई थी, तब पैंक्रिएटिक कैंसर काफी सुर्खियों में था. इसी कैंसर की वजह से स्टीव की जान गयी थी. अकेले अमेरिका में हर साल पैंक्रिएटिक कैंसर 53,000 मामले सामने आते हैं, जिनमें से लगभग 42,000 की मौत हो जाती है. इसी से इसकी भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह सबसे खतरनाक कैंसरों में से एक है. 10 फीसदी से भी कम मरीज पांच साल भी जी पाते हैं. वैश्विक स्तर पर देखें तो वर्ष 2012 में 3,30,000 लोगों ने इस कैंसर के कारण अपनी जान गंंवाये थे.
हाल ही मेें चिकित्सा विज्ञान की मशहूर पत्रिका ‘न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन’ में नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के चीफ ऑफ सर्जरी डॉ स्टीवेन ए रोजेनबर्ग का एक शोध छपा है, जिसमें कोलोन ने कैंसर से पीड़ित 50 वर्षीय एक मरीज को कैंसरमुक्त बनाने में मिली सफलता का वर्णन किया गया है. इस शोध के अनुसार 50 वर्षीय पीड़िता सेलीन रेयान पांच बच्चों की मां है. वह पेशे से इंजीनियर है. सेलीन को कोलोन कैंसर डिटेेक्ट हुआ था. उसका इलाज उसके ही इम्यून सिस्टम की कोशिकाओं की वजह से हो पाया. इस शोध से चिकित्सकों को उम्मीद बंधी है कि कोलोन और पैंक्रिएटिक कैंसर के मरीजों को कैंसरमुक्त किया जा सकता है.
सेलीन का जेनेटिक मेकअप असाधारण था, इस वजह से इलाज में सफलता मिली. असाध्य समझी जानेवाली बीमारी से छुटकारा मिला. डॉक्टरों ने इसे इम्यूनोथेरैपी का एक प्रकार बताया है.
डॉक्टरों ने यह भी कहा है कि हालांकि एक मरीज पर सफल प्रयोग से यह आकलन नहीं किया जा सकता है कि दूसरे मरीज पर भी यह प्रयोग सफल होगा ही. हां, यह जरूर है कि इस प्रयोग से कैंसर के इलाज में एक नयी राह मिलेगी.
यूनिवर्सिटी ऑफ पेेनसिलवानिया के डॉ कार्ल एच जून के अनुसार इस प्रयोग में पहली बार क्रास(KRAS) नाम के जीन में खराबी को टारगेट किया गया. यह महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि जीनों में मयूटेशन बहुत ही आम है. पैंक्रिएटिक कैंसर के हर मरीज में क्रॉस जीन होता है. दवा बनानेवाली कंपनियों ने क्रॉस जीन को टारगेट करने के लिए दवा बनाने पर खरबों रुपये खर्च किये, फिर भी अब तक सफलता नहीं मिली है.
कोलोरेेक्टल कैंसर के 30-50 फीसदी मरीजों में क्रॉस म्यूटेशन होता है, जबकि 13 फीसदी म्यूटेशन वैसा होता है, जैसा सेलीन के मामले में था. अगर सेलीन क्लीनिकल ट्रायल के लिए तैयार नहीं हुई होतीं, तो इस इलाज का पता भी न चलता. चूंकि डॉक्टरों ने सेलीन के आग्रह को यह कह कर ठुकरा दिया था कि उसके ट्यूमर अभी छोटे हैं, लेकिन, सेलीन ने हार नहीं मानी और डॉक्टरों को प्रयोग के लिए तैयार होना पड़ा.
कैंसर से लड़नेवाली कोशिकाओं को टिल्स(ट्यूमर इनफिल्ट्रेटिंग लिम्फोसाइट्स) कहते हैं. ये श्वेत रक्त-कणिकाएं होती हैं, जो ट्यूमर को चारों ओर से घेरे रहती हैं. यह इस बात का संकेत है कि इम्यून सिस्टम कैंसर पर हमला करने की कोशिश कर रहा है. डॉ रोजेनबर्ग दशकों से टिल्स का अध्ययन कर रहे हैं.
उनका लक्ष्य है कि बीमारियों से लड़ने की क्षमता में वृद्धि हो और इसे ही इलाज के रूप में उपयोग किया जाये. इस विधि ने अब तक सबसे अच्छा प्रदर्शन स्किन कैंसर के इलाज में किया है. डॉ रोजेनबर्ग की टीम ने इस बार डाइजेस्टिव सिस्टम में होनेवाले कैंसर पर फोकस किया है.
डाइजेस्टिव सिस्टम में होनेवाले कैंसर बहुत ही पीड़ादायक होते हैं. वे ऐसे इम्यून कोशिकाओं की तलाश कर रहे हैं जो म्यूटेशन की पहचान कर सके, कैंसरकारी कोशिकाओं पर हमला करे और स्वस्थ कोशिकाओं को छोड़ दे.
सेलीन को कोलोन कैंसर था, जो बढ़ कर फेेफड़ों तक पहुंच गया था. सात ट्यूमर थे. हालांकि पहले वह सर्जरी, केमोथेरैपी और रेडिएशन की प्रक्रिया से गुजर चुकी थी. जब वह बीमारी से मुक्त नहीं हो पायी तो नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के टिल्स रिसर्च तक पहुंची. इस उम्मीद में कि डॉक्टर उसकी बीमारी का अध्ययन करें. लेकिन, उसकी जांच रिपोर्ट और स्कैन देख कर डॉक्टरों ने यह कह कर उसे लौटा दिया कि उसके ट्यूमर इतने बड़े नहीं हैं कि उनमें टिल्स हों. कुछ दिनों के बाद वह फिर नयी स्कैन रिपोर्ट लेकर डॉक्टरों के पास पहुंची.
फिर उसे वापस लौटा दिया गया. वह निराश होकर खूब रोयी. एक महीने के बाद शोधार्थियों ने उसकी सर्जरी की. टिल्स कोशिकाओं की तलाश के लिए फेफड़े से कई ट्यूमर निकाले गये. शोधार्थियों ने पाया कि सेलीन की कोशिकाओं में क्रॉस म्यूटेशन हो रहा था. उसके टी-सेल्स म्यूटेशन को पकड़ पाने में कामयाब थे. यह असाधारण टिशू टाइप था. या यह कहें कि असाधारण जेनेटिक मेकअप था. हो यह रहा था कि उसके टी-सेल्स की सतह पर एक खास प्रोटीन था जो कैंसर को मारनेवाली कोशिकाओं को खोज सकता था और कैंसरकारी कोशिकाओं पर हमला कर सकता था.
सेेलीन का इलाज करने के लिए डॉक्टरों ने उसकी उच्च क्षमता वाली टिल्स कोशिकाओं को कल्चर के लिए चुना. फिर लैबोरेटरी में उन कोशिकाओं को बड़ी मात्रा में बनाया.
इसके बाद उसे केमोथेरैपी दी गयी, ताकि श्वेत रक्त कणिकाएं खत्म हो सकें और टिल्स कोशिकाएं बढ़ सकें. ड्रिप के जरिये उसके रक्त में 100 बिलियन टिल्स डाला गया. 20 मिनट लगे इस काम में. 75 फीसदी कैंसरकारी कोशिकाएं नष्ट हो गयीं. उसे इलाज के दौरान इंटरल्यूकिन-2 भी दिया गया. और कुछ दिनों के बाद सेलीन स्वस्थ हो गयी. कैंसर का कोई नामो-निशान न बचा था.
(इनपुट: एनवाइटाइम्स डॉट कॉम )

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