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आर्थिक मोर्चे पर चुनौतीपूर्ण रहा 2016

वर्ष 2016 जहां वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के लिए बड़े उथल-पुथल से भरा रहा, वहीं भारत अपनी वृद्धि दर को कमोबेश बरकरार रखने में सफल रहा. लेकिन, आठ नवंबर के नोटबंदी के ऐलान ने आम जन-जीवन, कारोबार और निवेश पर गहरा असर डाला है, जिसके नतीजे आगामी महीनों में सामने आयेंगे. साल के आर्थिक हिसाब-किताब के […]

वर्ष 2016 जहां वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के लिए बड़े उथल-पुथल से भरा रहा, वहीं भारत अपनी वृद्धि दर को कमोबेश बरकरार रखने में सफल रहा. लेकिन, आठ नवंबर के नोटबंदी के ऐलान ने आम जन-जीवन, कारोबार और निवेश पर गहरा असर डाला है, जिसके नतीजे आगामी महीनों में सामने आयेंगे. साल के आर्थिक हिसाब-किताब के साथ प्रस्तुत है वर्षांत के सिलसिले की यह कड़ी…

अभिजीत मुखोपाध्याय

अर्थशास्त्री

वर्ष 2016 की शुरुआत पूरे विश्व में जारी एक व्यापक आर्थिक मंदी के साथ ही हुई. हालांकि, इस मंदी के अन्य भी कई असर हुए, मगर उनमें सबसे अहम यह था कि विश्व व्यापार की वृद्धि में कमी आयी. इसने भारत तथा चीन समेत उन कई देशों में विकास की प्रक्रिया बाधित कर दी, जिन्होंने निर्यात-उन्मुख विकास मॉडल अपना रखा था. इसका मतलब यह था कि अब निर्यात में किसी अर्थव्यवस्था के सतत विकास की क्षमता नहीं रही. इस निर्यात-ह्रास ने भारत पर भी अपने असर दिखाये.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था बीते साल सात फीसदी से भी ऊंची दर से विकासशील रही. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आकलन की प्रणाली कई तरह की बहसों तथा संशयों की शिकार रही है. अनेक अर्थशास्त्रियों का मत यह है कि विकास दर का यह दावा जमीन पर तो कहीं नहीं ही दिखता है, उद्योगों के विकास तथा घरेलू अथवा वाणिज्यिक खरीद के संकेतक भी इस दावे की पुष्टि नहीं करते. इसी तरह, रोजगार सृजन के आंकड़े भी खासकर निर्यातोन्मुख क्षेत्रों में गिरावट के रुझान दर्शाते हैं. यदि उपर्युक्त आर्थिक विकास हो भी रहा है, तो इसका अर्थ यही है कि यह ‘रोजगारविहीन’ है, क्योंकि किसी-न-किसी क्षेत्र में तो रोजगार निश्चित रूप से बढ़ा होना चाहिए था.

अर्थव्यवस्था की चुनौतियां

पूरे साल ऐसे कयास लगाये जाते रहे कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक वहां पर ब्याज दर बढ़ायेगा, जिससे वैश्विक वित्तीय पूंजी के उस अंश के लिए अमेरिका लौटने का आकर्षण बढ़ेगा, जो भारत जैसे उभरते वित्तीय बाजारों में लगा पड़ा है. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की विजय के बाद वहां यह दर सचमुच बढ़ी भी, जिसके चलते कुछ विदेशी संस्थागत निवेशकों की धनराशि भारतीय बाजारों से निकल वापस लौट गयी. नतीजतन, अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपया कमजोर पड़ गया, जो भारतीय निर्यातकों के लिए मुफीद हो सकता था, मगर व्यापार में आयी कुल मंदी इसमें बाधा पहुंचा रही है. दूसरी ओर, रुपये की कमजोरी भुगतान संतुलन पर विपरीत असर डाल सकती है, क्योंकि आयातों की लागतें बढ़ रही हैं, जो विदेशी पूंजी के वापस लौटने के साथ मिल कर भविष्य में कुछ गंभीर चुनौतियां पेश कर सकती हैं.

भारत में ‘मेक इन इंडिया’ जैसे नेकनीयत कार्यक्रमों का भी वांछित नतीजा नहीं निकल पा रहा, क्योंकि यहां सड़क, पत्तन, ऊर्जा तथा दूरसंचार जैसी सभी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. दुनियाभर में जारी कुल मंदी भी यह कार्य कठिन किये दे रही है. सुधारों के मोरचे पर जो एक सकारात्मक चीज हुई है, वह जीएसटी यानी वस्तु तथा सेवा कर का रास्ता साफ होना है.

इसमें कारोबारी सुगमता बढ़ाने के साथ ही पूरे देश में अप्रत्यक्ष कर का दायरा बढ़ाने की संभावनाएं भी निहित हैं. किंतु, आलोचकों ने इस तथ्य पर ध्यान दिलाया है कि केवल अप्रत्यक्ष करों पर केंद्रित होने के कुछ अपने खतरे भी हैं, क्योंकि अप्रत्यक्ष कर अर्थव्यवस्था के एक-एक व्यक्ति पर असर डालते हैं. मसलन, किसी भी आवश्यक वस्तु पर बिक्री कर की वृद्धि से धनी-गरीब सबको उसका भुगतान करना पड़ता है. इसलिए कर ढांचे को समतामूलक बनाने हेतु यह अनिवार्य है कि आय तथा कॉरपोरेट कर जैसे प्रत्यक्ष कर ढांचे में भी जरूरी सुधार लाये जायें.

नोटबंदी और नकदीरहित अर्थव्यवस्था

पर नवंबर के महीने में लायी गयी नोटबंदी ने इन सारे कदमों पर मानो ग्रहण सा लगा कर अर्थव्यवस्था को जबरदस्त चोट पहुंचायी. यह कदम नकली नोटों की समस्या के निराकरण के साथ ही अर्थव्यवस्था से काले धन के खात्मे के उद्देश्य से उठाया गया था. मंशा यह थी कि नकदी के रूप में रखा गया काला धन प्रणाली में वापस नहीं लौट सकेगा और इस तरह सरकार को थोड़ा-बहुत राजकोषीय लाभ मिल जायेगा. मगर यदि आधिकारिक आंकड़ा ही लिया जाये, तो नकली नोटों का अनुपात एक लाख नोटों में केवल 28 ही है और मध्य दिसंबर तक यह बहुत साफ हो चुका था कि इसमें से अधिकांश नोट प्रणाली में वापस प्रवेश पा चुके हैं. यह दलील दी जा सकती है कि अब सरकार अपराधियों की शिनाख्त कर काला धन बाहर निकाल सकती है, मगर काला धन निकालने के लिए यदि छापे ही जरूरी हैं, तो वे नोटबंदी के बगैर भी डाले जा सकते थे. इस उद्देश्य के लिए पूरे विश्व में कीमती उपभोक्ता वस्तुओं के उपभोग की शिनाख्त की जाती है और हम भी यही कर सकते थे.

साल खत्म होते-होते नकदीरहित अर्थव्यवस्था की एक नयी चर्चा भी चल रही है. एक बार फिर, एक व्यापक वित्तीय बुनियादी ढांचे के बगैर नकदीरहित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य की प्राप्ति अत्यंत कठिन होगी. भारत में आम लोगों तक न तो बैंकिंग सुविधाओं की पर्याप्त पहुंच है, न ही इलेक्ट्रॉनिक भुगतान सुविधाओं का वांछित स्तर उपलब्ध है. फिर नकदीरहित अर्थव्यवस्था को नोटबंदी के बगैर भी प्रोत्साहित किया जा सकता था.

अर्थव्यवस्था में गति के उपाय

प्रणाली से मुद्रा को बाहर खींच लेने तथा नकद भुगतान बाधित हो जाने से अर्थव्यवस्था के खासकर असंगठित एवं ग्रामीण हिस्से पर विपरीत असर पड़ने की आशंका है. उपभोग व्यय में गिरावट के असर कुछ क्षेत्रों तक पहुंच भी चुके हैं. यदि वर्ष 2017 में भारतीय अर्थव्यवस्था में फिर से गति लानी है, तो इस पर उपर्युक्त सभी कारकों का लघुकालिक ऋणात्मक असर पड़ सकता है.

जितनी जल्द संभव हो सके, बंद नोटों के बदले नये नोट लाने जरूरी हैं. वस्तु तथा सेवा कर जैसे सुधार जल्द लागू किये जाने की जरूरत तो है ही, साथ ही बुनियादी ढांचे एवं विनिर्माण क्षेत्र के जीर्णोद्धार की जरूरत भी है, ताकि घरेलू मांग में बढ़ोतरी हो सके. इसके साथ ही सामाजिक कल्याण व्यय भी बढ़ाये जाने चाहिए, ताकि विकास अधिक समतामूलक हो सके. केवल तभी हम काफी हद तक बेहतर 2017 की उम्मीद जगा सकते हैं.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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